अपंग - 70 Pranava Bharti द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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अपंग - 70

70

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भानुमति सदा से शिव-रात्रि का व्रत  तो रखती थी लेकिन कभी भी मंदिर नहीं जाती थी | यह बात लाखी बहुत अच्छी तरह से जानती थी | न जाने कितने वर्ष हो गए थे भानु को मंदिर में गए हुए थे |

"लाखी ----" अचानक भानु ने कहा |

'जी, दीदी ---"

"इस बार मैं मंदिर जाऊँगी ---" अचानक ही भानु ने लखी से कहा |

"क्या----दीदी ---?? क्या कह रही हैं आप ? कभी गई हैं क्या ?" उसने तुरंत चौंककर कहा |

"क्यों? मैं इतनी पापी हूँ क्या जो मंदिर नहीं जा सकती ?" उसने हँसकर कहा |

"दीदी ! आप जानती हैं, मैं क्या कह रही हूँ ----" लाखी बेचारी खिसिया गई |

"हाँ---जानती हूँ बाबा ----"

"फिर भी आप मंदिर जाएंगी ?"

"हाँ.देखना चाहती हूँ , आख़िर यह ढोंगी कैसे अपने सदाचार से मंदिर में पवित्रता फैला रहा है ? कुछ तो नया कर ही रहा होगा ---"

"रहने भी दो न दीदी --क्या बेकार में --आप जानती हो, उसको देखकर आपको क्या होने वाला है ? आप नहीं सह सकतीं उसको, जब माँ जी के सामने आप उसे बर्दाश्त नहीं कर पाती थीं तो ---"

"अरे ! ठीक है न दादी अम्मा। पुनीत को नहीं ले जाऊँगी लेकिन मैं ज़रूर जाऊँगी ---" कहकर भानु वहाँ से उठकर चली गई |

लाखी जानती थी दीदी को जो करना होता था, करके ही रहती थीं | वह उसके पीछे-पीछे आ गई | इतने दिनों बाद जाएंगी गाड़ी लगवा दूँ ? "

"नहीं --नहीं --आज कोठी के पीछे से पहाड़ियों से जाऊँगी, ऊपर सीढ़ियों से चढ़कर जाने का मन है |"

"इतना पास भी नहीं है दीदी, मुश्किल हो जाएगा| "

"हो जाने दे | तू बस --बेटू का ध्यान रखना | तू ठीक कह रही है, इतना कम समय भी नहीं लगेगा --देर तो होनी ही है | क्या पता वहाँ क्या सिच्वेशन होगी |"

भानु तैयार हो गई तो लाखी ने उसे एक सुन्दर सी टोकरी में बगीचे से फूल लाकर पूजा का सारा सामान उसमें सजा दिया | अगर गाड़ी से जाती तो वह थाल सजाकर देती लेकिन इतनी सारी पहाड़ियाँ चढ़कर मंदिर में पहुंचना आसान न था | इसीलिए वह टोकरी सजा लाई थी जिससे उसकी दीदी को मंदिर तक पहुँचने में अधिक परेशानी न हो |

'अजीब ज़िद है दीदी की ! बताओ भला इतनी ऊँची चढ़ाई चढ़कर जाने की भला कहाँ ज़रुरत है भला ?' लाखी ने मन में सोचा लेकिन भानु के चेहरे पर दृढ़ता देखकर वह और कुछ ज़िद न कर सकी |

जब भानु मंदिर के लिए निकलने लगी पुनीत मचल पड़ा | उसे भी माँ के साथ मंदिर जाना था जो कि सम्भव ही नहीं था | इतनी सीढ़ियाँ चढ़कर वह ही चढ़ जाए तो गनीमत थी फिर बच्चे को लेकर जाना और जिस कारण वह जाना चाहती थी, वहाँ बच्चे का भला क्या काम था ?

"लाखी दीदी ! आप बेटू को ड्राइवर अंकल के साथ घुमाकर लाना --ठीक है न ? इतनी ऊँचाई पर चढ़ना नहीं हो पाएगा --- | ठीक है लाखी दीदी ?" भानु ने पुनीत को हँसाने के लिए थोड़ा नाटक सा किया ---

"बट मॉम --आई वॉन्ट टू कम विद यू ---" बच्चा थोड़ी ज़िद में आने लगा | बच्चा ही तो था, उसे पटाने में भानु को काफ़ी देर लग गई |

"बेटा ! जब तक आप आएँगे , मम्मा वापिस आ जाएंगी, आपको जो भी लाना है, दीदी के साथ जाकर ले आइए | ठीक है ---? " उसने काफ़ी सारे नोट लाखी को दे दिये और बच्चे को प्यार करके अपने बगीचे को पार करने के लिए चल दी | गार्ड पीछे का गेट खोल चूका था | उसने सीढ़ियाँ चढ़ने के लिए खुद को तैयार किया और आगे बढ़ गई |

लगभग एक घंटे की चढ़ाई में बीच-बीच में लगे पत्थरों पर बैठती हुई जब वह हाँफते हुए मंदिर पहुँची तब तक थक-टूटकर चूर-चूर हो गई थी | कितनी भीड़ हो चुकी थी मंदिर में | कितने भक्त हैं इस दुनिया में ? उसने मन में सोचा | इतने लोग आखिर मंदिर क्यों आते होंगे ? उसने सोचा, वह क्यों आई है ? उसके चेहरे पर व्यंग्यात्मक मुस्कुराहट पसर गई |

मंदिर के बरामदे में बने चबूतरों पर भी लोग बैठे हुए थे, मंदिर के अंदर से भजन गाने की  आवाज़ आ रही थी | ढोल.मंझीरे, खड़ताल जैसे सब कुछ बज रहे थे | आवाज़ें थीं कि भजन की कम और शोर की ज़्यादा थीं | उसे लग रहा था कि यहाँ से भाग जाए या कान बंद करके बैठ जाए | यहाँ की वास्तविकता जानने के लिए जब इतना परिश्रम करके, थक-टूटकर वह यहाँ तक आई थी तो विवेक से काम तो लेना पड़ेगा न !

फूलों की टोकरी मंदिर के बरामदे में रखकर उसने कुछ फूल अपनी अंजुरी में लिए और आगे बढ़कर शिव जी के नंदी पर अर्पित करने लगी | उसकी दृष्टि अचानक ही मंदिर के बड़े से भाग में झूम-झूमकर सदाचारी और एक स्त्री के ऊपर पड़ी जो झूम-झूमकर लगभग चिल्लाने की मुद्रा में भजन गए रहे थे | उन्हें घेरी हुई भीड़ के सिर ऐसे झूम रहे थे मानो उनके जैसा पुण्य आत्मा कोई हो ही नहीं | सारे लीन थे भक्ति में, किसी-किसी के आँख-नाक अजीब सी मुद्रा बना रहे थे |

भानु फूल चढ़ाना भूल गई, मन अजीब सा हो आया | वह सब कुछ वहीं छोड़कर जाने क्यों जिस रास्ते से आई थी, उसी रास्ते से भागते हुए उतरती नीचे की और भागने लगी | न जाने उसे क्या हो गया था ? वह जितनी देर में चढ़ी थी, उससे आधी से भी कम देर में अपनी कोठी के गार्डन के दरवाज़े पर थी | गार्ड ने उसे दूर से देखते ही गेट खोल दिया था | लाखी भी पुनीत को थोड़ी देर घुमाकर वापिस ले आई थी | वह जानती थी कि कुछ तो ऐसा ही होगा इसलिए अपनी भानु दीदी को संभालने के लिए वह मन से तैयारी करने लगी थी |

उसने भानु को आते ही उसे गार्डन में पड़ी हुई कुर्सी पर बैठा दिया, वह बुरी तरह हाँफ रही थी | पुनीत भी उधर ही खेल रहा था | लाखी थोड़ी देर में ही उसकी पसंद के खिलौने दिलवाकर ले आई थी | उसने भानु के लिए नीबू-पानी बनाकर उसके लिए फ़्लास्क में रखा हुआ था | उसके अंदर प्रवेश करते ही वह भागकर नीबू-पानी का ग्लास भर लाई थी | उसने भानु की पीठ सहलाते हुए उसे धीरे-धीरे पानी पिलाया | उसने देखा भानु की अंजुरी में कुछ फूल चिपके हुए थे, पूजा की टोकरी भी उसके हाथ में नहीं थी | वह काफ़ी कुछ समझ गई थी लेकिन चुप ही रही |

"मॉम --मॉम" करता पुनीत अपना खरीदा हुआ सामान माँ को दिखाने के लिए बेचैन था | उसके पास आते ही जाने क्यों भानु उसे सीने से लगाकर रो पड़ी | कभी-कभी वह अपने आपको बहुत अकेला महसूस करती थी | इस समय भी उसका दिल न जाने क्यों ज़ोर से धड़क रहा था |