आख़िर वह कौन था - सीजन 2 - भाग 7 Ratna Pandey द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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आख़िर वह कौन था - सीजन 2 - भाग 7

सुशीला ने दूर से ही श्यामा की कार देख ली और वह ख़ुद ही चल कर उसके पास आ गई।

“क्या हुआ मैडम आप वापस…?”

“सुशीला अंदर कार में आकर बैठो तब मेरी बात अधूरी रह गई थी उसे ही पूरा करने आई हूँ। मैं जो भी बोलूं बहुत ध्यान से सुनना और सोच समझ कर जवाब देना।”

“बोलिये ना मैडम क्या बात है?”

“सुशीला यदि तुम चाहो तो मैं तुम्हें वह सब कुछ दिला सकती हूँ जिसकी तुम हक़दार हो। बोलो ब्याह करना चाहोगी उसके साथ।”

“यह क्या कह रही हैं मैडम जी आप? जिस इंसान से मैं नफ़रत करती हूँ, जिसका नाम तक मैंने मेरे बेटे को नहीं दिया, ऐसे इंसान के साथ आप मुझे विवाह करने का बोल रही हैं, कभी नहीं मैडम। भले ही वह कितना भी बड़ा इंसान क्यों ना हो लेकिन मेरी नज़रों में वह केवल एक लुटेरा है, बलात्कारी है और उसके साथ… कभी नहीं मैडम जी, कभी नहीं।”

“ठीक है सुशीला, अब तुम जाओ।”

सुशीला की ऐसी बातें सुनकर श्यामा का दिलो-दिमाग ऐसे बवंडर में फँस गया कि एक ग़रीब मज़दूर लड़की उस इंसान को धिक्कार रही है, जिसके साथ वह रहती है। कितनी स्वाभिमानी है सुशीला और वह…? सब कुछ पता चलने के बाद वह कैसे इस इंसान के साथ रह रही है। विचारों के जाल में श्यामा बुरी तरह से फँस चुकी थी। घर पहुँचते-पहुँचते उसने यह नतीजा निकाला कि अब वह तलाक लेकर ही रहेगी। आदर्श ने जो बोया है वह उसे काटना ही होगा लेकिन क्या वह अकेला ही भुगतेगा, नहीं उसके किये की सज़ा मेरे पूरे परिवार को भुगतनी पड़ेगी। ।

उधर सुशीला के खोली में पहुँचते ही शांता ताई और विमला ने सवालों की झड़ी लगा दी।

शांता ने पूछा, “अरी सुशीला क्या कह रही थीं मैडम?”

विमला बोली, “शायद उन्हें सब पता चल गया है, वरना सुशीला को अकेले क्यों…?”

“अरे चुप हो जा री विमला। उसे कुछ कहने भी देगी या ख़ुद ही बक-बक करती रहेगी।”

सुशीला शांत थी । उसने धीरे से कहा, “शांता ताई जाने दो, इस बात को बिना कुछ पूछे यहीं ख़त्म कर दो। बस भगवान से इतनी विनती करो कि मैडम का घर न टूटे।”

शांता ताई बहुत ही समझदार, धैर्य से काम लेने वाली स्त्री थी। वह बात की गहराई को समझ गई और कहा, “सुशीला तू ठीक कह रही है। बरसों बीत गए अब किसी का कुछ ना बिगड़े तो ही अच्छा है।”

उधर श्यामा के उसी घर में रहते हुए एक हफ्ते के अंदर आदर्श को कोर्ट से आया हुआ एक पत्र मिला। आदर्श ने उसे खोलकर जैसे ही पढ़ा, वह काग़ज़ उसके हाथों से छूट कर ज़मीन पर गिर पड़ा। पंखे की हवा से उड़ता हुआ कमरे में मौजूद श्यामा की साड़ी के पास जाकर वहीं पर रुक गया।

तलाक के काग़ज़ देखते से आदर्श की हैरानी का कोई ठिकाना ही नहीं था। उसने कहा, “श्यामा यह क्या है? क्यों है? पागल हो गई हो क्या?”

“यह क्या है? क्यों है आदर्श इसका जवाब तुम अपने अंदर से तलाशो। याद करो तुमने ऐसा तो क्या किया है जिसके कारण हमारे जीवन में यह खतरनाक मोड़ आया है। यदि तुम्हें याद ना आए तो मुझे बता देना मैं तुम्हें बता दूंगी कारण और वह भी पूरे सबूतों के साथ। आदर्श मैं तो पतिव्रता रही लेकिन तुम…”

“क्या बकवास कर रही हो? किसने भड़काया है तुम्हें?”

“मैं कोई बच्ची नहीं हूँ आदर्श, ना ही कान की कच्ची हूँ। मैंने अपनी आँखों से वह सच्चाई देखी है, जो तुम नहीं देख पाए? शायद दौलत के नशे में चूर, कभी तुम्हारा ध्यान ही नहीं गया। याद आया कुछ? वैसे याद करने की तो ज़रूरत ही नहीं है। दिन रात तुम्हारी आँखों के सामने तुम्हारे पाप का नतीजा मैले कुचैले कपड़ों में लिपटा घूमता हुआ शायद तुम्हें दिखाई नहीं दिया लेकिन मुझे दिखाई दे गया। एक अभागन जिसे तुम ने बर्बाद कर डाला, तब से लेकर आज तक तुम्हारी अय्याशी की सज़ा भुगत रही है। ग़लती तुम्हारी थी परंतु सज़ा उसे मिली। मैं लोगों को इंसाफ़ दिलाती हूँ, लड़ती हूँ, गुनहगार को सज़ा दिलाती हूँ। मैं कैसे बर्दाश्त कर लूं कि मेरे ही घर में वर्षों से एक गुनहगार छिपा बैठा है।”

 

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात) 

स्वरचित और मौलिक  

क्रमशः