आख़िर वह कौन था - सीजन 2 - भाग 2 Ratna Pandey द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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आख़िर वह कौन था - सीजन 2 - भाग 2

पूजा के समाप्त होते ही प्रसाद बाँटने की बारी आई तब प्रसाद लेने के लिए वही बच्चा फिर दौड़कर वहाँ आया। इस बार करुणा का मन नहीं माना और उन्होंने उस बच्चे को पास बुलाकर उससे पूछा, “तुम्हारा नाम क्या है?”

“राजा…,” इतना ही कह कर वह बच्चा प्रसाद हाथों में लिए वहाँ से भाग गया और करुणा की नज़रों से ओझल हो गया। भूमि पूजन समाप्त हो गया। सभी लोग अपने-अपने घर चले गए।

कुछ ही दिनों में वह आलीशान ऑफिस जिसकी रूप रेखा पहले ही तैयार हो चुकी थी, अपने अस्तित्व में आ गया। आदर्श के ऑफिस के ठीक सामने कुछ दूरी पर सुशीला की खोली थी। सुशीला की खोली के बाजू में पहले की ही तरह शांता ताई की खोली थी। उनकी बेटी विमला को शांता ताई ने उसके पति के अत्याचारों के कारण अपने ही साथ रख लिया था। सुशीला को केवल शांता और विमला का ही सहारा था। विमला भी सुशीला और शांता ताई के साथ मेहनत मजदूरी करके अपनी बेटी को पाल रही थी। सुशीला और विमला दोनों ही पुरुषों द्वारा सताई हुई स्त्रियाँ थीं। एक दूसरे के दुःखों को बांटते हुए वह अपने-अपने जीवन की गाड़ी चला रही थीं। सुशीला पहले की ही तरह अब भी पूरा दिन काम करती रहती और राजा उसके आसपास घूमता रहता। वह कई बार आदर्श के ऑफिस के नज़दीक भी चला जाता। आदर्श हमेशा उस बच्चे को देखता रहता।

एक दिन हिम्मत करके जब ऑफिस में कोई नहीं था, आदर्श ने राजा को अपने पास बुलाया, “ऐ बच्चे इधर आओ।”

राजा उसके पास आया तब आदर्श ने उससे पूछा, “तुम्हारा नाम क्या है?”

“राजा।”

“अरे वाह बहुत अच्छा नाम है, तुम्हारे पिता का नाम क्या है?”

“माँ ने नहीं बताया। वह हमें छोड़ कर कहीं दूर चला गया है।”

यह सुनते ही आदर्श ने एक गहरी साँस ली और आगे पूछा, “स्कूल जाते हो?”

“हाँ जाता हूँ।”

“चॉकलेट खाओगे,” कहते हुए आदर्श ने एक बड़ी-सी चॉकलेट ड्रॉज में से निकाली।

“नहीं मेरी माँ मना करती है, मुझे नहीं चाहिए,” कहते हुए राजा भाग गया।

धीरे-धीरे समय आगे बढ़ता गया। एक से बढ़ कर एक टावर बनकर खड़े होते जा रहे थे। लोगों का आना जाना लगा ही रहता था। आदर्श के बनाए फ्लैट्स आराम से बिक रहे थे। इस समय लक्ष्मी माँ उस पर बहुत मेहरबान थी। दोनों हाथों से आदर्श नोट गिन रहा था। देखते-देखते १० वर्ष गुजर गए। उसके बाद अब फिर से एक नए प्रोजेक्ट की तरफ़ आदर्श के क़दम बढ़ रहे थे। अगला प्रोजेक्ट शुरू करते-करते कुछ समय बीत गया। इस नए प्रोजेक्ट को शुरू करने में आदर्श को काफ़ी मशक्कत करनी पड़ी। ख़ैर वह बड़ा इंसान था, आखिरकार वह शुभ मुहूर्त आ ही गया जब वह प्रोजेक्ट ज़मीन पर शुरू हो रहा था।

अब फिर भूमि पूजन का दिन था। श्यामा और आदर्श पूजा में बैठे थे। पंडित पूजा करवा रहा था। तभी श्यामा की नज़र एक जवान लड़के पर पड़ी और एक पल के लिए हट कर फिर उसी पर जाकर टिक गई। श्यामा उस लड़के को देखकर हैरान थी। उसे देखकर श्यामा को शादी के समय का आदर्श उसके अंदर नज़र आ रहा था। वह बार-बार उसे देखे ही जा रही थी।

वही रंग, वही रूप, वही कद और वही काठी? यह कैसे हो सकता है? इतनी समानता…? श्यामा का माथा ठनका, उसे भगवान के ऐसे चमत्कार पर कतई भरोसा ना था। उसके मन में शक का बीज रोपित हो गया। अब पूजा में उसका मन नहीं लग रहा था। उसे डर लग रहा था कि पूजा ख़त्म होने से पहले यह लड़का यहाँ से कहीं चला ना जाए। वह उससे बात करने के लिए बेचैन हो रही थी।

पूजा ख़त्म होते से श्यामा उस लड़के के पास गई और उससे पूछा, “तुम्हारा नाम क्या है?”

“जी राजा।”

“पिता का नाम क्या है?”

“जी सुशीला यही मेरी माँ और पिता का नाम भी यही है।”

 

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात) 

स्वरचित और मौलिक  

क्रमशः