आख़िर वह कौन था - सीजन 2 - भाग 3 Ratna Pandey द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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आख़िर वह कौन था - सीजन 2 - भाग 3

राजा के मुँह से यह बात सुनते ही श्यामा के मन में रोपित हुआ बीज अंकुरित हो गया। उसके मन के अंदर की शक़ की सुई अपने पति आदर्श की तरफ़ घूम गई। श्यामा ने इधर-उधर देखा कि किसी का ध्यान तो नहीं है उसकी तरफ़। लेकिन सब अपने-अपने दोस्तों के साथ बात कर रहे थे। श्यामा ने पूछा, “कहाँ रहते हो?”

“वह सामने वाली खोली में।”

“क्या करते हो?”

राजा ने थोड़ा हैरान होते हुए जवाब दिया, “जी कॉलेज जाता हूँ।”

वह सोच रहा था आख़िर मैडम उसके बारे में इतना सब क्यों पूछ रही हैं?  क्या जानना चाहती हैं और क्यों?

तभी श्यामा ने कहा, “अच्छा ठीक है जाकर प्रसाद ले लो।”

राजा तो प्रसाद लेने चला गया लेकिन श्यामा उसे जाते हुए देखती रही। उसकी चाल ढाल, यहाँ तक की आवाज़ भी आदर्श से कितनी मिलती है। वह सोच रही थी कि इतने पुराने से कपड़ों में भी राजा कितना अच्छा दिख रहा है।

तभी श्यामा के कानों में आदर्श की आवाज़ आई, “अरे श्यामा कहाँ हो?”

“हाँ-हाँ इधर ही हूँ, आई।”

“अरे यह देखो इनसे मिलो यह हमारे पहले ग्राहक हैं, जिन्होंने आज ही घर बुक कर लिया है।”

“अरे वाह यह तो बड़ी ही ख़ुशी की बात है तब तो इन्हें आपको थोड़ा डिस्काउंट ज़रूर देना चाहिए।”

“बिल्कुल श्यामा वह तो मैं दे चुका हूँ।”

श्यामा की नज़रें बार-बार इधर-उधर घूम रही थीं। वह देखना चाह रही थी कि उस लड़के की माँ कहाँ है? तभी उसे राजा अपनी खोली में जाता हुआ दिखाई दे गया और श्यामा को पता चल गया कि वह किस खोली में रहता है। कुछ ही समय में सब लोग जाने लगे।

करुणा, आदर्श ओर श्यामा भी अपने घर के लिए निकल गए। श्यामा कोई साधारण हाउस वाइफ नहीं थी। वह शहर की जानी-मानी वकील थी। अपने पैरों पर खड़ी श्यामा अपने मान-सम्मान, अपने स्वाभिमान के प्रति काफ़ी जागरुक थी।

आज घर लौटते समय वह सोच रही थी, कहाँ गया उसका स्वाभिमान? आदर्श ने उसके स्वाभिमान को अपने जूते तले रौंद डाला है। धोखा दिया है, विश्वासघात किया है। क्या कमी थी उसमें जो उसे बाहर मुँह मारना पड़ा। उसने तो अपना तन-मन सब कुछ प्यार से उसे समर्पित कर दिया था, फिर क्यों? तब तक उनका घर आ गया। घर पहुँच कर भी श्यामा बेचैन थी। क्या करूं? किस से बात करूं? उसे कुछ भी नहीं सूझ रहा था।

दूसरे दिन जब आदर्श साइट पर चला गया तब वह करुणा के पास जाकर बैठ गई और कहा, “माँ मैं आपसे कुछ बात करना चाहती हूँ।”

“श्यामा बेटा जिस आग में तुम जल रही हो और जो बात करना चाहती हो वह मैं जानती हूँ। उस लड़के को देखकर तुम्हारा मन शक की गिरफ़्त में आ गया है। मैंने भी उसे देखा था। वह बिल्कुल मानो दूसरा आदर्श ही हो, है ना? लेकिन ऐसे चमत्कार होते रहते हैं बेटा।”

“नहीं माँ यह तो अपने आप को समझाने वाली बात है। दरअसल बात कुछ और ही है। माँ यह मेरा अपमान है। अब मैं क्या करूं?”

“श्यामा बेटा यदि तुम्हारा शक सही है तब तुम्हारे पास दो रास्ते हैं। पहला यह कि तुम परिवार की चिंता छोड़ कर अपने स्वाभिमान के साथ रहो और उसे कभी माफ़ मत करो। दूसरा यह कि यदि परिवार को बचाना चाहती हो तो सब कुछ भूल जाओ। जो भी शक तुम्हारे मन में उछालें मार रहा है, उसे बाहर निकाल कर फेंक दो।”

करुणा की बात को काटते हुए श्यामा ने कहा, “माँ यदि मेरी जगह आप होतीं तो आप क्या करतीं?”

“ना तो मैं तुम्हारी जितनी पढ़ी लिखी हूँ और ना ही अपने पैरों पर खड़ी हूँ। मैं दूसरा रास्ता अपनाती बेटा। चाहे तुम इसे मेरी मजबूरी या मेरी कमज़ोरी ही क्यों ना समझ लो। मैंने पुरुष प्रधान समाज में जन्म लिया है बेटा। बचपन पिता के साये में, जवानी भाई के साये में बिताई और शादी के बाद पति के पीछे-पीछे चलती रही। यदि उनकी हाँ तो मेरी भी हाँ और उनकी ना तो मेरी भी ना, इससे ज़्यादा कभी कुछ सोचा ही नहीं।”

 

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात) 

स्वरचित और मौलिक  

क्रमशः