सौगन्ध--भाग(१३) Saroj Verma द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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सौगन्ध--भाग(१३)

जब चंचला देवव्रत के गले लगी तो ये देवव्रत को अच्छा ना लगा और उसने अन्ततः चंचला से कह ही दिया....
कौन हैं आप?एवं ऐसा व्यवहार क्यों रहीं हैं?
ओह...पिताश्री!ऐसा प्रतीत होता है आप उस दिन की बात को लेकर अब भी मुझसे क्रोधित हैं,चंचला बोली...
किसका....पिता...एवं...कौन सी बात?देवव्रत ने चंचला को स्वयं से दूर करते हुए कहा....
यही कि मैं उस नवयुवक से सरोवर के किनारे मिली थी,परन्तु यह सत्य नहीं है,मेरा तो उस नवयुवक से कोई भी नाता नहीं है,चंचला बोली....
देखो पुत्री!तुम्हें कोई भ्रम हुआ है ,मैं तुम्हारा पिता नहीं हूँ,देवव्रत बोला...
पिताश्री!ये आप कैसीं बातें कर रहे हैं?चंचला बोली...
मैं सत्य कह रहा हूँ,देवव्रत बोला....
जब देवव्रत को मनाना चंचला के वश की बात ना रह गई तो भूकालेश्वर जी को आगें आना पड़ा,उन्हें लगा कि वें यदि उनके मध्य ना पड़े तो वें देवव्रत को वहाँ से ना ले जा पायेंगे क्योंकि देवव्रत को चंचला को पहचान ही नहीं रहा,इसलिए भूकालेश्वर जी बोलें....
मित्र!देवव्रत!अब क्षमा भी कर दो अपनी पुत्री को,अब आगें वो ऐसा अपराध ना करेगी,मित्र मैं तुम्हें बंदीगृह से मुक्त होता देखकर अत्यधिक प्रसन्न हूँ,मेरे गले तो लग जाओ,इतना कहकर भूकालेश्वर जी देवव्रत के गले लगें एवं मद्धम स्वर में कहा....
ये लाभशंकर है....
अब देवव्रत ने सारे प्रघटन को भलीभाँति समझ लिया था और वो भी अभिनय करते हुए चंचला से बोला....
मैं तुम्हारी उस दिन की बात से इतना क्रोधित हुआ कि मुझे लज्जावश वो नगर ही छोड़ना पड़ा और मैं यहाँ इस राज्य में आ गया,तुमने कोई मार्ग ही नहीं छोड़ा मेरे लिए,मैं क्या कहता लोगों से कि मेरी पुत्री पदभ्रष्टा है,मेरे नाम को धूमिल कर चुकी है....
ना...ना..पिताश्री!आपकी पुत्री सबकुछ हो सकती है किन्तु...पदभ्रष्टा...ना...पदभ्रष्टा तो कदापि नहीं हो सकती,चंचला अपने माथे पर लज्जावश हाथ रखते हुए बोली...
तो वो नवयुवक कौन था?देवव्रत ने अभिनय करते हुए पूछा...
पिताश्री!वो तो एक राहगीर था,मैं सरोवर पर जल भर रही थी तो उसने मुझसे जल माँगा,मैने उसे जल पिलाया तो वहाँ से निकल रहे नगरवासियों ने देख लिया एवं ईर्ष्यावश ये झूठी बात फैला दी,क्योंकि मैनें उन नगरवासियों का प्रेम स्वीकार नहीं किया था,मेरे यौवन एवं रूप को देखकर वें अभद्र टिप्पणियांँ किया करते थे जो मुझे पसंद नहीं थी और एक रोज मैनें भी उन सभी को अशब्द कहें थे तो उन्होंने प्रतिशोधवश मेरे विषय में मिथ्या बातें प्रसारित कर दीं.....,चंचला दुखी मन से बोली....
मुझे क्षमा कर दो मेरी पुत्री!तू तो गंगा की तरह पवित्र है एवं मैं तुझे पदभ्रष्टा समझ बैठा,देवव्रत बोला.... भूकालेश्वर जी को अब लगा कि अभिनय की अधिकता हो रही है वैसें भी देवव्रत का अभिनय ऐसा था कि जैसे कोई बालक अभिनय कर रहा हो,मुँख पर कोई भाव नहीं,ना क्रोध के और ना ही प्रसन्नता के, कोई भी सरलता से समझ सकता कि देवव्रत को अभिनय आता ही नहीं है,इसलिए भूकालेश्वर जी ने देवव्रत से कहा....
मित्र!अब आपको शीघ्र ही अपने नगर की ओर प्रस्थान करना चाहिए,क्योंकि वहाँ आपकी धर्मपत्नी आपकी प्रतीक्षा में हैं,ना जाने कब उनके लिए ईश्वर का बुलावा आ जाएं....
जी!महात्मा!आप सत्य कह रहे हैं,चंचला बोलीं....
परन्तु!पुत्री!क्या राजकुमार ने आदेश दे दिया है कि हम अपने नगर लौट सकते हैं ,देवव्रत ने पूछा....
जी!मैनें उन्हें वचन दिया है कि माँ के दर्शनों के पश्चात हम दोनों वापस इस राज्य में लौटेंगें,चंचला बोली....
ओह....पुत्री!ये तुमने क्या किया?देवव्रत ने पुनः अभिनय की अधिकता दिखाते हुए कहा...
अब तो भूकालेश्वर जी के क्रोध का पार ना था इसलिए वें खींझते हुए बोलें....
मित्र!आप अपनी पत्नी की चिन्ता कीजिए और यहाँ से अति शीघ्र जाइएं,आपको बात क्यों नहीं समझ आ रही है,चंचला आपको कब से ये बात समझाने का प्रयास कर रही है....
जी!मैं समझ गया,चलो पुत्री तुम्हारी माँ के पास चलते हैं,देवव्रत बोला....
जी!पिताश्री!मैं तो कब से तत्पर हूँ?चंचला बोली...
तो राजकुमार!हमें वापस जाने की अनुमति दें,देवव्रत ने बसन्तवीर से कहा...
किन्तु!अपना वचन याद रखना,बसन्तवीर बोला....
जी!हमारे संस्कार ऐसे नहीं कि हम अपना वचन तोड़े,देवव्रत बोला....
तो जाओ और पिता पुत्री शीघ्रता से लौटना,बसन्तवीर ने अनुमति देते हुए कहा....
अन्ततः सभी राजमहल से वापस भूकालेश्वर जी के निवासस्थान आएं एवं उसी समय सभी ने अपनी कुछ आवश्यक वस्तुएँ बाँधी और चल पड़े लाभशंकर के निवास स्थान की ओर, जो एक नदी किनारें स्थित था,वें सभी अश्व पर सवार होकर नहीं आएं थे,यदि वें ऐसा करते तो राज्य की सीमा पर पकड़े जाते,इसलिए सभी ने वेष भी बदल लिया था ताकि उन्हें कोई पहचान ना पाएं,अन्ततः एक रात्रि एवं एक दिन की यात्रा के पश्चात वें लाभशंकर के निवासस्थान पहुँच गए....
उन्हें वहाँ पहुँचते पहुँचते सायंकाल हो चुकी थी,लाभशंकर अपने घर के भीतर घुसा तो माया ने जैसे ही अपने पुत्र लाभशंकर को देखा तो बोल पड़ी....
शंकर....तू आ गया मेरे लाल!मेरी तो आँखें ही तरस गई थीं तुझे देखने के लिए....
माँ!तुम भी कैसीं बातें करती हो?इतने दिन भी नहीं हुए हैं मुझे यहाँ से गए हुए कि तुम्हारी आँखें तरस गईं,लाभशंकर बोला...
तू क्या समझेगा?एक माँ के हृदय की दशा,जब तू पिता बनेगा ना तो तब तुझे ये अनुभव ज्ञात होगा,माया बोली....
तब देवव्रत घर के द्वार से बोला....
माया बहन!अपने पुत्र से ही मिलती रहोगी या अतिथियों का स्वागत भी करोगी...
अतिथि....कौन से अतिथि,माया ने आश्चर्य से पूछा....
ये अतिथि....तनिक बाहर आकर तो देखिए,देवव्रत बोला....
तब माया घर से बाहर निकली और उन सभी को देखकर बोली...
क्षमा कीजिए!मैनें आप सभी को पहचाना नहीं...
तब देवव्रत बोला....
माया बहन!ये रानी वसुन्धरा हैं,ये मंदिर के पुजारी भूकालेश्वर जी हैं एवं ये भूकालेश्वर जी की पुत्री मनोज्ञा हैं....
ओह....आप लोंग और मेरे यहाँ अतिथि बनकर आएं,ये मेरे लिए बड़े सौभाग्य की बात है,....आइए....आइए...ना भीतर आइएं....,माया बोली....
इसके पश्चात माया ने सभी के जलपान की ब्यवस्था की ,अन्ततः अपने पति शम्भू एवं पुत्र से परामर्श करके रात्रि के भोजन के भोजन के प्रबन्ध में जुट गई और सभी आपस में वार्तालाप में लीन हो गए,तभी माया को चूल्हे पर अकेले कार्य करता हुआ देखकर मनोज्ञा उसके पास जाकर बोली....
लाइए...माता जी!मैं आपके कार्यों में हाथ बँटाती हूँ...
ना...पुत्री!तुम रहने दो,मैं कर लूँगीं...,माया बोली...
माता जी!मुझे भी कार्य करने का अभ्यास है,घर के सभी कार्य मैं ही करती हूँ,मनोज्ञा बोली...
ना पुत्री!तुम मेरी अतिथि हो,तुम कार्य करोगी तो मुझे अच्छा नहीं लगेगा,माया बोली....
तब भूकालेश्वर जी बोलें...
बहन!मनोज्ञा को आपका हाथ बँटाने दीजिए,आप अकेले थक जाएंगीं....
जी!आप कहते हैं तो मुझे कोई आपत्ति नहीं,माया बोली...
अन्ततः मनोज्ञा माया के कार्यों में हाथ बँटाने लगी एवं कुछ समय पश्चात रात्रि का भोजन तैयार भी हो गया,तब माया ने सभी से कहा....
चलिए!आप सभी भोजन गृहण कर लीजिए....
सभी भोजन करने बैठ गए किन्तु मनोज्ञा ना बैठी तो माया ने मनोज्ञा से कहा....
पुत्री!तुम भी सभी के संग बैठकर भोजन गृहण करो....
तब मनोज्ञा बोलीं....
माताजी!मैं सभी को भोजन परोसने में आपकी सहायता करूँगी एवं मैं आपके संग ही भोजन करूँगीं...
मनोज्ञा की व्यवहारकुशलता से माया अत्यधिक प्रसन्न हुई और कुछ ना बोलीं,मनोज्ञा एवं माया ने सभी को भोजन कराने के पश्चात स्वयं भोजन किया,कुछ समय के वार्तालाप के पश्चात सभी अपने अपने स्थान पर विश्राम करने हेतु लेट गए....

क्रमशः.....
सरोज वर्मा....