सौगन्ध--भाग(३) Saroj Verma द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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सौगन्ध--भाग(३)

नीलेन्द्र के तलवार निकालते ही वीरबहूटी ने अपने सैनिकों को आदेश दिया कि वें शीघ्रता से नीलेन्द्र को बंदी बना लें,सैनिकों ने वीरबहूटी के आदेश पर नीलेन्द्र को बंदी बना लिया और उसे बंदीगृह में डाल दिया,इस बात से नीलेन्द्र की क्रोध की सीमा का पार ना था,उसने मन में प्रण कर लिया था कि मैं अपने अपमान का प्रतिशोध लेकर रहूँगा,वो बंदीगृह में यही विचार बना रहा था और इधर वीरबहूटी ने अपनी पुत्री वसुन्धरा से ये कह दिया कि तुम्हारा पति अत्यधिक लालची प्रवृत्ति का है एवं उसने इस राज्य का उत्तराधिकारी बनने हेतु मेरी हत्या करने का प्रयास किया,मैनें उसका षणयन्त्र समझ लिया तो वो हमारे राज्य से भाग निकला...
ये सुनकर वसुन्धरा के हृदय को अत्यधिक आघात पहुँचा एवं उसे अपने पति नीलेन्द्र से भी घृणा हो गई,उसे अब संसार के किसी भी पुरूष पर विश्वास ना रह गया था,उसे अपने गर्भ में पल रहे शिशु से भी तनिक भी प्रेम नहीं रह गया था,वसुन्धरा ने मन में सोचा कि हाय...मेरा जीवन...जब भी मेरे जीवन में कोई आशा का दीपक जलता हुआ दिखाई देता है तो उसे मेरा दुर्भाग्य आकर बुझा देता है,ना जाने मेरे भाग्य में क्या लिखा है,ना जाने मैनें ऐसे कौन से बुरे कर्म किए जो मुझे उसका दण्ड भुगतना पड़ रहा है,ऐसे ही दुख में पुनः बेचारी वसुन्धरा के दिन ब्यतीत होने लगे,
एक रात्रि नीलेन्द्र बंदीगृह से भाग निकला एवं सीधा वसुन्धरा के कक्ष में पहुँचा,वसुन्धरा उस समय जाग रही थी एवं चिन्तामग्न थी,नीलेन्द्र वसुन्धरा के समीप जाकर बोला....
वसुन्धरे!मैं आ गया।।
नीलेन्द्र को अपने समक्ष देखकर वसुन्धरा बोली...
तुम!अब यहाँ क्या करने आएं हो?
मैं तुम्हें कुछ बताना चाहता हूंँ,नीलेन्द्र बोला।।
मुझे कुछ नहीं सुनना,वसुन्धरा बोली।।
परन्तु,क्यों?नीलेन्द्र बोला।।
क्योंकि! तुम जैसे लोभी एवं विश्वासघाती व्यक्ति से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है,वसुन्धरा बोली।।
किन्तु!मैं तुम्हारा पति हूँ,नीलेन्द्र बोला।।
तुमने इस राज्य का उत्तराधिकारी बनने हेतु मेरे पिता की हत्या करने का प्रयास किया,वसुन्धरा बोली।।
तब नीलेन्द्र ने वसुन्धरा के समक्ष अपनी बात रखते हुए कहा.....
ये सत्य नहीं है वसुन्धरे! बल्कि उन्होंने मेरा उपभोग करके तुम्हारे संग विश्वासघात किया,उन्होंने देवनारायण की हत्या करवाकर उसे नदी में फेंकवा दिया एवं तुमसे उसके विषय में असत्य कहा,इसके उपरान्त उन्होंने मुझसे आग्रह किया कि मैं तुमसे विवाह करूँ,जब उन्हें ज्ञात हो गया कि तुम्हारे गर्भ मे मेरी सन्तान है तो उन्होंने मुझे भी अपने मार्ग से हटाना चाहा एवं मेरे विषय में तुम्हें झूठी सूचना दी,ये सत्य है कि मैं इस राज्य का उत्तराधिकारी बनना चाहता था किन्तु मैं उनकी हत्या नहीं करना चाहता था,भूलवश मुझसे तलवार उठ गई तो उन्होंने मुझे हत्यारा समझ लिया....
ये सुनकर वसुन्धरा के पैरों तले जमीन खिसक गई एवं उसका मस्तिष्क मंद पड़ गया,उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि उसके पिता उसके संग ऐसा कर सकते हैं,इसका तात्पर्य है कि देवनारायण ने मुझसे विश्वासघात नहीं किया था,मेरे पिता ने उसकी हत्या करवा दी,वसुन्धरा ये सब सोच ही रही थी तभी वीरबहूटी उसके कक्ष में उपस्थित हुआ और उसने नीलेन्द्र के हृदय में अपनी तलवार घोंप दी,नीलेन्द्र के हृदय से रक्त की धारा बह चली एवं क्षण भर में उसके प्राण पखेरू उड़ गए.....
ये देखकर वसुन्धरा चीखी....
पिताश्री!ये आपने क्या किया?वो मेरे स्वामी थे।।
ऐसे विश्वासघाती स्वामी से तो स्वामी का ना होना ही अच्छा,वीरबहूटी बोला।।
विश्वासघाती वो नहीं आप हैं,वसुन्धरा बोली।।
तो तुम्हें सब ज्ञात हो गया ,वीरबहूटी ने पूछा।।
जी!हाँ! और इतना कहकर वसुन्धरा ने कक्ष में उपस्थित फलों की टोकरी में रखी कटार निकाली और अपने पिता के उदर में घोंप दी और तब तक घोंपती रही जब तक कि उनके प्राण ना निकल गए,वसुन्धरा अपने पिता के इस कृत्य से अत्यधिक क्रोधित थी और उसने उनकी निर्दयता से हत्या कर दी,पिता की मृत्यु के पश्चात वसुन्धरा स्वयं राज्य की उत्तराधिकारी बन गई,कुछ ही महीनों के पश्चात उसने एक पुत्र को जन्म दिया और उसने उसका नाम बसन्तवीर रखा,बसन्तवीर अब बड़ा हो रहा था इसलिए वसुन्धरा ने उसे आगें की शिक्षा हेतु गुरुकुल में भेज दिया,जहाँ उसने शस्त्रों एवं शास्त्रों का ज्ञान ग्रहण किया....
समय अपनी गति से बढ़ रहा था और इधर पुजारी भूकालेश्वर जी ने वसुन्धरा की पुत्री को देव के चरणों में समर्पित कर उसे देवदासी बना दिया ,वो अत्यधिक सुन्दर थी इसलिए उन्होंने उसका नाम मनोज्ञा रखा,बाल्यकाल से ही पुजारी जी ने मनोज्ञा को संगीत एवं नृत्य की शिक्षा दिलवाई,जब भी मनोज्ञा मंदिर में कोई भी नृत्य प्रस्तुत करती तो उसकी भाव-भंगिमाएं देखकर लोंग आश्चर्यचकित हो जाते,सोचतें कि इतनी छोटी बालिका इस कला में इतनी पारंगत कैसें है,सरस्वती माँ की कृपा है इस पर,उनका ही आशीर्वाद है जो इस बालिका को ये कला वरदान स्वरूप मिली है....
बालिका की प्रसंशा सुन पुजारी भूकालेश्वर फूले नहीं समाते ,उन्हें स्वयं पर एवं बालिका पर गर्व होता,उन्हें इस बात की भी प्रसन्नता होती कि इस बालिका का पालन पोषण उन्होंने ही किया है,मंदिर की बूढ़ी मालिन जिसे मनोज्ञा दादी अम्मा कहती थी,वो भी मनोज्ञा का पूर्णतः ध्यान रखती,सत्य तो ये था कि मनोज्ञा को माँ की ममता बूढ़ी मालिन शबरी से ही मिली थी,शबरी के पास भी अपना कहने के लिए कोई ना था,इसलिए मंदिर की बगिया की देखभाल एवं मनोज्ञा की देखभाल करके अपना जीवन-यापन कर रही थी,वहीं मंदिर के पीछे उसकी छोटी सी झोपडी़ थी जिसमें वो रहती थी,पुजारी भूकालेश्वर अपने और बालिका के साथ साथ उसका भोजन भी बना लिया करते,इस प्रकार उनका बीत रहा था,
उधर नदी किनारें मछुआरे शम्भू के घर में देवनारायण देवव्रत बनकर रह रहा था,शम्भू की पत्नी माया देवव्रत को भ्राता कहती और देवव्रत उसे अपनी बड़ी बहन समझता था,शम्भू और माया का पुत्र लाभशंकर तो देवव्रत से इतना प्रेम करता था कि वो एक क्षण के लिए भी अपने मामा देवव्रत के बिना ना रह पाता,समय तो अपनी गति से चलता रहता है इसलिए वो बीता चला जा रहा था,मनोज्ञा अब सोलह वर्ष की हो चली थी,इसलिए अब पुजारी भूकालेश्वर जी ने मनोज्ञा को कहीं भी जाने से मना कर रखा था,उन्होंने उस पर प्रतिबन्ध लगाया था कि वो केवल मंदिर में ही रहेगी क्योंकि वो एक देवदासी है एवं अब उसका पूर्ण ध्यान ईश्वर की भक्ति में लगा रहना चाहिए, वन एवं नौकाविहार से उसका कोई सम्बन्ध है,भोग-विलास,रेशमी वस्त्र एवं आभूषणों जैसी माया से उसे दूर रहना चाहिए,वो केवल श्वेत वस्त्र ही धारण कर सकती है एवं आभूषणों के नाम पर केवल पुष्पों के बने हुए आभूषण ही पहन सकती है,उसकी ना सखियाँ होगी और ना ही वो किसी ऐसी वस्तु का उपयोग करेगी जिसका सम्बन्ध मोह-माया से जुड़ा हुआ हो,
जब शबरी बालिका को ऐसे रूप में देखती तो उसका कलेजा मुँह को आता,उसे बालिका के प्रति पुजारी जी का ऐसा व्यवहार बिलकुल ना भाता था,वो मन में सोचती इतनी सुन्दर बालिका,इतना सलोना रूप,इसे तो किसी राजमहल की राजकुमारी होना चाहिए था और ये बेचारी कहाँ पड़ी है?
परन्तु जब कभी पुजारी जी कहीं और जाते तो शबरी मनोज्ञा का वेष बदलवाकर उसे घूमने के लिए भेज देती,मनोज्ञा ने चोरी चोरी अश्व सवारी करना भी सीख लिया था,संग संग उसने बाणों से अपने लक्ष्य को भी वेधना सीख लिया था,शबरी की पहचान के एक व्यक्ति के पास अश्व था तो शबरी उसे मनोज्ञा के लिए माँग लेती थी,तब मनोज्ञा उस पर सवार होकर वनविहार को चली जाती....
एक रोज़ ऐसे ही मनोज्ञा अश्व पर सवार वन को पहुँची,वो बहुत ही सुंदर ,अत्यधिक बड़ा स्थान था जो अगल-बगल वृक्षों से घिरा हुआ था, वृक्षों पर तरह-तरह के पुष्प और फल लगे हुए हैं, सामने वाले पहाड़ पर एक झरना था, जिसमें शीतल जल झर झर की ध्वनि करता हुआ बह रहा, झरने के ऊपर कुछ पक्षी कलरव कर रहे थे, वो अत्यधिक मनमोहक दृश्य था, कुछ छोटे छोटे मृग भी इधर उधर विचरण कर रहे थे,
तभी मनोज्ञा पुरुष वेष में अपने धनुष और बाणों के साथ मैदान में उपस्थित हुई ,वो सदैव वहांँ अभ्यास हेतु आती थी,,उसकी वेषभूषा देखकर कोई ये नहीं कह सकता था कि वो पुरूष नहीं है, उसने अपने लम्बे केशो को भी पगड़ी में छिपा रखा था,माथे पर टीका था एवं उसके मुँख पर तेज चमक रहा था,
वो कभी भी निरपराध जीवों जैसे पशु-पक्षियों पर कभी भी अभ्यास हेतु प्रहार नहीं करती थी,इसलिए मैदान में घूम रहे मृग, जंगली सूअर और भी वन्यजीव उसे कभी भी हानि नहीं पहुंँचाते थे,सारे पशु उससे बहुत ही प्रेम करते थे एवं पशु पक्षियों से वह भी अत्यधिक प्रेम करती थी,वो सारा अभ्यास फलों और पुष्पों पर ही किया करती थी,
तभी उसने फलों पर बाण से अपना लक्ष्य साधा, वैसे ही उसे कुछ ध्वनि सुनाई दी,वो उस दिशा की ओर भागी,तो क्या देखती है कि एक मृग मूर्छित अवस्था में गिरा पड़ा है एवं उसके घाव से रक्त बह रहा है, ये सब देखकर उसके हृदय को अत्यधिक कष्ट हुआ, उसने उसे शीघ्रता से अपनी गोद में उठा लिया, तत्पश्चात उसने उस स्थान पर अपनी दृष्टि डाली परन्तु उसे वहाँ कोई भी दिखाई नहीं दिया,वो उस मृग को झरने की ओर ले ही जा रही थी कि तभी एक पुरुष ने उसे पुकारा___
ठहरो.....इसे कहांँ ले जा रहे हो?इसका वध तो मैंने किया है,इस पर तो मेरा अधिकार है,आप कौन होते हैं इसे ले जाने वाले?
मनोज्ञा ने उसे कोई उत्तर देना आवश्यक नहीं समझा एवं मृग को यूंँ ही अपने हाथों में लिए हुए वो चुपचाप झरने की ओर बढ़ने लगी, उसने झरने के शीतल जल से मृग का घाव धोया और उसे मैदान में सूखी जगह और वृक्ष की छाया के तले लिटा दिया तत्पश्चात कुछ पौधों की पत्तियांँ मसलकर उसके घाव पर लगा दी,वो युवक उसे एकटक देखे जा रहा था, जिसने मृग को अचेत किया था।
मृग के घाव पर बांधने के लिए अब कोई वस्त्र चाहिए था तो मनोज्ञा ने शीघ्र अपनी पगड़ी उतारी एवं जैसे ही मनोज्ञा ने अपनी पगड़ी उतारी तो उसके लम्बे घने भूरे केश खुल गये,उसका रूप और सौंदर्य देखकर उस युवक की आंँखें खुली की खुली रह गई, मनोज्ञा का रूप-लावण्य देखकर वो तो बस मनोज्ञा पर मोहित हो गया, मनोज्ञा ने पगड़ी का कुछ हिस्सा चींड़कर कर मृग को बांध दिया और ले चली अपने संग,
ये सब देखकर वो युवक मनोज्ञा के पीछे पीछे आने लगा एवं उससे बोला...
"अच्छा!!तो तुम एक युवती हो, मुझे लगा तुम कोई युवक हो ,
ये सुनकर मनोज्ञा ने कोई उत्तर नहीं दिया...
उस युवक ने पुनः मनोज्ञा से पूछा.....
और इस मृग को कहांँ ले जा रही हो,ये तो मेरा है।।"
"इस पर तुम्हारा नाम लिखा है,मनोज्ञा ने पूछा।।
"नाम तो नहीं लिखा परन्तु इसे मेरे बाण ने मूर्छित किया है, इसलिए ये मेरा है", नवयुवक बोला।।
"तुम्हें लज्जा नहीं आई, किसी निर्दोष पर बाण चलाते हुए", मनोज्ञा क्रोध से बोली।
"क्यो क्या हुआ?आखेट तो सभी करते हैं, इसमें बुरा क्या है?"यदि मैंने किया तो, नवयुवक बोला।
किसी निर्दोष को मारना घृणित है ,अपने बल का प्रयोग किसी निरपराध पर करना अत्यधिक बुरा कार्य है, अपने क्षण भर के सुख के लिए किसी मूक जीव को मृत्यु देना बहुत बड़ा अपराध है,समझे तुम!!
मनोज्ञा ने क्रोध से अपनी आंँखें बड़ी करते हुए कहा।।
आप तो बहुत ही क्रोधित हो रही है देवी!मैं तो केवल बाण चलाने का अभ्यास कर रहा था, नवयुवक बोला।।
अभ्यास वो भी किसी जीव पर,अगर अभ्यास ही करना है तो और भी वस्तुएं हैं,वृक्ष, पुष्प, लताएं,उन पर लक्ष्य साधो,मनोज्ञा बोली,
ठीक है लेकिन आप हैं, बड़ी सुंदर, नवयुवक बोला।।
ए....अपनी सीमा रेखा मत पार करो,ये कैसी ओछी बातें कर रहे हो,मनोज्ञा बोली।।
जो सत्य है वहीं कहा, नवयुवक बोला।।
इसके पश्चात मनोज्ञा बिना कुछ बोले, वहाँ से चली गई,
नवयुवक पीछे से पुकारता रहा कि देवी!!अपना नाम तो बता दीजिए.....
किन्तु मनोज्ञा ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और वो वहांँ से चली आई....

क्रमशः.....
सरोज वर्मा....