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करिश्मा हो गया।
कोई सोच भी नहीं सकता था वो हो गया।
पहली ही बार वेनेजुएला अंतरराष्ट्रीय निशानेबाजी प्रतियोगिता में भाग ले रहे भारतीय खिलाड़ी कबीर वनवासी ने स्वर्ण पदक के साथ ये प्रतियोगिता जीत ली। उन्होंने अंतिम राउंड में केवल एक प्वॉइंट खोया। यह किसी नए प्रतिभागी के लिए चमत्कार से कम नहीं रहा।
स्पर्धा के शेष दोनों पदक वेनेजुएला की स्थानीय टीमों ने ही जीते।
रोहन बंजारा को पहले दस निशानेबाजों में तो जगह मिली पर वो अंतिम आठ में स्थान नहीं बना पाए।
ये पहला मौका था कि ये प्रतियोगिता एशियाई देश के किसी खिलाड़ी ने जीती। टीम के साथ आए कोच श्रीकांत जॉर्ज के पांव तो ज़मीन पर पड़ते ही न थे। उन्हें बधाई देने वालों ने हाथ मिला - मिला कर हल्कान कर छोड़ा था। कबीर भी लगातार मीडिया फोटोग्राफर्स और अन्य खबरियों से घिरा हुआ था।
सिर्फ़ एक बार वह दौड़ कर अपने कोच छोटे साहब से मिल कर आ सका था जिन्होंने उसे गोद में उठा कर सबके सामने चक्कर लगाया था।
रोहन की दीवानगी का आलम भी ये था कि वह कबीर के गले में हाथ डाल कर उसके साथ ऐसे घूम रहा था जैसे प्रतियोगिता का पदक उसी ने हासिल किया हो।
देखते - देखते मेला अपने चरम पर पहुंचने लगा। स्टेडियम के उस हिस्से में दर्शकों का भारी हुजूम उमड़ पड़ा था जहां अवार्ड सेरिमनी होनी थी।
कई गणमान्य लोगों और बड़े अधिकारियों ने अपनी पोजीशन ले ली थी। पत्रकार लोग आयोजकों और खिलाड़ियों के इंटरव्यू लगातार ले रहे थे।
ढेर सारे लड़के- लड़कियां कबीर के साथ सेल्फी लेने की कतार में थे।
विक्ट्री स्टैंड सज चुका था। उसके पार्श्व में भारत और वेनेजुएला के राष्ट्रीय ध्वज लहरा रहे थे।
रोहन और कबीर अब छोटे साहब के साथ ही आकर खड़े हो गए थे जहां कई रिपोर्टर्स उन लोगों से खेल के आयोजन और कबीर की सफ़लता पर बात कर रहे थे। उनसे उनकी तैयारियों के बाबत पूछा जा रहा था।
छोटे साहब श्रीकांत की स्थिति तो बर्फ़ के उस ग्लेशियर जैसी हो गई थी जो पानी के बाहर भी दिखाई दे रहा था और उसके भीतर भी डूबा हुआ था। उनकी खुशी दोहरी थी।
काश, ये उनका देश होता, उनका शहर होता, उनकी अकादमी होती तो देखने वालों ने उन्हें सिर पर उठा लिया होता।
अब प्रतीक्षा हो रही थी उन चीफ़गेस्ट की, जो अपने हाथों से पुरस्कार विजेताओं को पदक प्रदान करने के लिए यहां तशरीफ़ लाने वाले थे।
जैसे- जैसे प्रतीक्षा की घड़ियां लंबी हो रही थीं दर्शकों के बीच ये कानाफूसी भी उठने लगी थी कि पॉलिटिकल लोगों को समारोह का मुख्य अतिथि बनाया जाना हमेशा ही दर्शकों के धैर्य पर भारी पड़ता है। वो समय पालन का ध्यान नहीं रखते बल्कि इस बात का ध्यान रखते हैं कि उन्हें देखने- सुनने वालों की उत्सुक भीड़ जमा हो जाए तब वो तशरीफ़ लाएं। कभी कभी तो भीड़ की उत्तेजना बढ़ाने के लिए वो समारोह स्थल के आसपास पहुंच कर भी इंतज़ार करते पाए जाते हैं ताकि तभी नमूदार हों जब भीड़ उत्साह और उमंग से भर चुकी हो।
लेकिन नहीं। यहां ऐसा कुछ नहीं था।
लोगों ने देखा कि मुख्य अतिथि की आलीशान सुनहरी हरी लिमोजिन कार जब आकर खड़ी हुई तब उसमें से उतर कर बाहर आने में भी मुख्य अतिथि को खासा समय लगा।
ऐसा जानबूझ कर नहीं हो रहा था, बल्कि इसलिए हो रहा था कि मुख्य अतिथि चौरानवे वर्षीय अत्यंत वृद्ध व्यक्ति थे जिन्हें व्हील चेयर पर बैठा कर यहां लाया जा रहा था।
ओह! लोग क्या सोच रहे थे और देरी का कारण क्या था??
माइक से हो रही उद्घोषणा से जनसमूह को पता चला कि कार्यक्रम के मुख्य अतिथि स्वयं अपने समय के एक विख्यात निशानेबाज़ हैं और अब इस प्रतियोगिता की आयोजन समिति के मुख्य सलाहकार हैं।
विक्ट्री स्टैंड पर खड़े कबीर की आंखों में आंसू थे। लगभग यही हाल सामने दर्शकों में बैठे कोच श्रीकांत जॉर्ज का भी था। रोहन ने उस वक्त एक तेज़ सीटी बजाकर आल्हादकारी ध्वनि निकाली जब कबीर को पदक पहनाया गया। मुख्य अतिथि की आयु को देखते हुए सभी खिलाड़ी स्टैंड से उतर कर सिर झुका कर पदक ग्रहण कर रहे थे और मुख्य अतिथि महाशय की ब्लेसिंग्स ले रहे थे। रिपोर्टर्स धड़ाधड़ तस्वीरें खींचने में लगे थे।
आसमान सुनहरी आभा के साथ उल्लास और उन्माद का गवाह था।
तभी मिली कबीर, श्रीकांत और रोहन को वो सूचना जिसने उन्हें गर्व और हैरत से भर दिया।
उन्हें रात के खाने पर मुख्य अतिथि महोदय के आवास पर आमंत्रित किया गया था जो कुछ दूरी पर एक छोटे से टापू पर भव्य बंगले के रूप में एकांत में बना हुआ था।