सेहरा में मैं और तू - 17 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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सेहरा में मैं और तू - 17

( 17 )
रोहन चला गया। कबीर कुछ मुस्कुराते हुए उसे जाता हुआ देखता रहा।
कबीर ने लैंप ऑफ़ किया और टांगें फ़ैला कर बिस्तर पर पसर गया। उसे कुछ अजीब सी थकान थी, जल्दी ही नींद आ गई।
आधी रात का वक्त हो चला था और आसपास से आती हुई आवाज़ें भी मंद पड़ चुकी थीं। सारा आलम जैसे नींद के आगोश में आने लगा हो।
कबीर गहरी नींद में था।
तभी उसने अपनी पीठ पर बंदर की तरह उछल कर कूदते हुए किसी को महसूस किया। शायद रोहन लौट आया था।
ओह! उसे ये बात ज़रा भी पसंद नहीं थी। ये रोहन भी यहां आकर उसके लिए एक मुसीबत ही बन गया था। ख़ुद तो इधर उधर न जाने कहां किन बातों में उलझा हुआ था ही, कबीर की भी नींद खराब की।
कितना बुरा लगता है जब गहरी नींद में कोई इंसान इस तरह से तंग करे। रोहन बिजली की सी गति से न जाने कहां से आया और सोते हुए कबीर के ऊपर कूद कर उसे मसलते हुए जगाने लगा।
कबीर जैसे किसी ख़्वाब से जागा। तड़प कर उसके नीचे से निकलने के लिए छटपटाने लगा। लेकिन तभी उसकी आंखों में अंधेरे में भी चमक आ गई।
वो जिसे रोहन समझ रहा था वो रोहन नहीं, बल्कि छोटे साहब थे जिन्होंने दबे पांव भीतर आकर एकाएक किसी बच्चे की तरह कबीर के बिस्तर पर छलांग लगा दी थी और अब उसे बेतहाशा चूमने लगे थे। उससे इस तरह लिपट गए जैसे कोई गाय का भूखा बछड़ा कई दिनों बाद अपनी मां से मिला हो।
कबीर का हाथ लैंप के स्विच पर जाते जाते थम गया। वह जिसे रोहन समझ रहा था वो तो वही शख्स निकला जिससे मिलने की मुराद वो दिन भर से अपने दिल की अंतिम गहराई से पाले बैठा था।
कबीर भी अंधेरे में ही नज़र आ रहे इस साए से लिपट गया और उसे बेतहाशा चूमने लगा। वह अपने छोटे साहब को अंधेरे की सौ परतों में भी पहचान सकता था।
उन दोनों को एक दूसरे में खोए हुए ये भी ध्यान नहीं रहा कि रोहन कमरे से बाहर है और वो किसी भी क्षण दरवाज़ा ठेल कर भीतर आ सकता है। दरवाज़ा भी भीतर से बंद कहां था?
बिस्तर एक लंबा- चौड़ा डबल बैड ज़रूर था मगर वो दोनों ही एक दूसरे में गुंथे हुए एक ही किनारे पर पड़े थे।
छोटे साहब को कबीर के बालों में हाथ फेरते फेरते भी अचानक अहसास हुआ कि कबीर की आंखें कुछ गीली हैं। क्या कबीर रो रहा था? क्या ये खुशी के आंसू थे जो अकस्मात मिली खुशी से छलक आए थे?
छोटे साहब ने एक हाथ से उसके आंसू पोंछे और दूसरे हाथ को उसके सीने पर रख दिया।
कौन कह सकता था कि अब से चंद घंटों बाद कबीर को एक महत्वपूर्ण बड़ी अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में भाग लेना था।
लेकिन जिंदगी शायद इससे भी बड़ी परीक्षा में उलझ कर रह गई थी।
सहसा कबीर ने छोटे साहब से कहा कि वह कल प्रतियोगिता में भाग नहीं लेगा।
छोटे साहब को अपने कानों पर जैसे विश्वास ही नहीं हुआ कि कबीर ये क्या कह रहा है? उन्होंने फिर से उसके कहे वाक्य पर गौर किया। कबीर कह रहा था - "श्रीकांत, मैं सच कह रहा हूं मैं कल मैदान में नहीं उतरूंगा जब तक तुम मेरी एक बात नहीं मानोगे।"
छोटे साहब इस पेशकश से सकते में आ गए। ये कोई नई बात नहीं थी कि उनसे सिर्फ़ तीन साल छोटा उनका ये दिलदार दोस्त उन्हें उनके नाम से, श्रीकांत कह कर पुकार रहा है। बल्कि आश्चर्य तो इस बात का था कि कबीर इस अंतिम समय में खेल में भाग लेने के लिए न जाने क्या शर्त रखने जा रहा है।
वह कुछ विस्मित से होकर बैठ गए। फिर कबीर का हाथ अपने हाथों में लेकर उससे पूछने लगे कि वह क्या कहना चाहता है।
कबीर ने एक पल की भी देर न लगाते हुए कहा कि वह अभी इसी वक्त उससे वादा करें कि वो यहां से जाते ही कबीर से शादी करेंगे तभी वह कल हाथ में गन उठाएगा अन्यथा नहीं।
छोटे साहब ने बेहद अभिभूत होकर एक गहरा चुंबन कबीर के होंठों पर जड़ दिया।
कबीर ने झट से अपना हाथ अपने गाल पर कनपटी के पास रख लिया। कहीं ऐसा न हो कि छोटे साहब आपा खो दें और सुबह शैतान रोहन उसे ब्लैक होल कह कर चिढ़ाए।
ओह! देर हो गई। रोहन है कहां? कहते हुए छोटे साहब भी निकलने के लिए अपनी शर्ट वापस पहनने लगे।