सेहरा में मैं और तू - 15 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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सेहरा में मैं और तू - 15

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यात्रा लंबी थी। उन्हें रास्ते में एक बार जहाज बदलना भी पड़ा। रास्ते में खाने या नाश्ते के लिए उन्हें जो कुछ भी परोसा गया था वो उन वस्तुओं का नाम तो नहीं जानते थे पर इतना उन्हें समझ में आ गया था कि उन्हें दिया गया सारा नाश्ता और खाना बेहद स्वादिष्ट और पौष्टिक था। उन्होंने बहुत चाव से उसे खाया।
तरह तरह के पेय और फलों के रस भी उन्होंने पहली बार चखे।
कबीर को केवल एक असुविधा ज़रूर हुई कि वो जहाज के भीतर बने वाशरूम में सहज महसूस नहीं करता था। एक अनजाना सा भय उसे लगता रहता था। किंतु रोहन जल्दी ही सब तौर- तरीकों का अभ्यस्त हो गया था और ज़रूरत पड़ने पर अपने साथी कबीर की मदद भी करता था।
न जाने क्यों यहां कबीर छोटे साहब से घुलने - मिलने में भी कुछ संकोच करता था। शायद उसे ये अहसास रहता था कि रोहन उन दोनों के संबंधों के विषय में सब कुछ जानता है।
फिर दो सदस्य साथ में और भी होने से उसे कोच का मान सम्मान व शिष्टाचार भी रखना ही पड़ता था।
अगले दिन शाम को जब वो अपने गंतव्य वेनेजुएला की राजधानी पहुंचे तो उनके लिए दुनिया बदली हुई थी।
अब तक उन्होंने भारत में विदेशियों को पर्यटकों के रूप में घूमते हुए देखा था परंतु यहां ज्यादा तादाद उन्हीं की थी और थोड़े से मेहमान पर्यटकों के रूप में भारत से आया हुआ उनका दल था।
लेकिन एक बात थी। यहां सभी कुछ व्यवस्थित तथा अनुशासन बद्ध दिखाई देता था। ऐसा लगता था जैसे यहां का हर व्यक्ति ज़रूरत पड़ने पर उन लोगों की हेल्प कर देगा।
यहां कहीं भी भारत जैसी भीड़- भाड़, आपा- धापी या अफरा- तफरी नहीं थी। सफाई का आलम तो ये था कि गलती से कहीं कोई किसी चॉकलेट का रैपर भी फेंक दे तो वह कई मीटर दूर से ही दिखाई देता था। कोई न कोई उसे तत्काल डस्टबिन में भी डाल देता था। ऐसे में उसे फेंकने वाले का शर्मिंदा होना भी स्वाभाविक था।
हवाई अड्डे से अपना सामान लेकर बाहर आने में उन्हें कुछ समय लगा।
उन्हें लेने के लिए एक गाड़ी वहां पहले से तैनात थी जिसमें उन्हें लगभग तीन घंटे का सफ़र करके उस छोटे से नगर में पहुंचना था जहां इस अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता का आयोजन किया गया था।
ट्रैफिक में सभी जगह उन्हें बेहद अनुशासित माहौल नज़र आया। गंदगी, रेलम पेल या खोमचे वालों का कहीं नामोनिशान नहीं था।
लोग इतने कम होते थे मानो ये कोई सार्वजनिक अवकाश का दिन हो। गाड़ी में, कारों में या कहीं भी जितनी क्षमता होती उसके आधे लोग भी नहीं दिखाई देते थे।
तीन घंटे बहुत आराम से गुज़र गए और अंततः वो लोग अपने डेरे में पहुंच गए।
ये भी एक स्टेडियम और उसके साथ लगा हुआ एक रिहायशी इलाका था। साफ - सुथरे गेस्ट हाउस और फ्लैट बने हुए थे जिनमें उन लोगों के रहने की व्यवस्था थी। जल्दी ही ये दल वहां के माहौल से सुपरिचित हो गया।
कुछ दूरी पर निगाह दौड़ाने पर यह क्षेत्र किसी ग्रामीण या कस्बाई क्षेत्र जैसा लगता था किंतु यहां सभी प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध थीं। बाज़ार ऐसा दिखाई देता था मानो किसी कॉलेज या विश्वविद्यालय परिसर में ज़रूरत के सामान का कोई कार्निवल लगा हुआ हो। वहां की आबोहवा से ये अनुमान भी सहज ही लगाया जा सकता था कि यहां आसपास ही सागर तट भी है। ठंडी हवाएं वातावरण को उन्मादी बना रही थीं।
केवल डेढ़ दिन का समय बीच में था फिर स्पर्धा का आरंभ होना था। पहले दिन शाम को एक उद्घाटन समारोह और परिचय सत्र था फिर अगली सुबह से प्रतियोगिता शुरू होने वाली थी।
कबीर और रोहन को एक ही कमरे में ठहरने की जगह मिली थी जबकि छोटे साहब एक अलग विंग में कुछ अन्य लोगों के साथ थे।
रात का भोजन उन लोगों ने बहुत इत्मीनान और चाव से किया। एक तरफ़ नए - नए पकवानों के स्वाद का आकर्षण था वहीं दूसरी ओर ज़्यादा खाकर आलस्य और सुस्ती से बचने की चुनौती भी।
रास्ते की थकान और जेटलेग के बावजूद कबीर और रोहन रात देर तक बातें करते रहे। आंखों में नींद से ज्यादा जिज्ञासा का वास था।
दोनों का देश की धरती के बाहर परदेस की ज़मीन पर पहली बार पांव रखने का एक सपना तो पूरा हुआ किंतु मुख्य चुनौती किसी पहाड़ की तरह अब भी सामने थी।