Robert Gill ki Paro - 17 books and stories free download online pdf in Hindi

रॉबर्ट गिल की पारो - 17

भाग 17

आज सभी दस बजे अजंता गुफाओं की ओर चले गए। रॉबर्ट तेज़ रफ्तार से घोड़े पर बैठकर दौड़ने लगा। उसने सोचा मैं हमेशा यात्रा पर ही रहता हूँ। मेरी यात्रा अंतहीन है, मुझे जाना कहां है कुछ पता नहीं। लेकिन उद्देश्यहीन भी मैं नहीं भटका हूँ। लगता है ज़िंदगी का अंतिम पड़ाव यह अजंता ग्राम ही है। बीच-बीच में भयानक उदासी उसे घेर लेती है।

हॉर्स शू पॉइन्ट पर वह घोड़े से उतर गया। चारों तरफ नज़र दौड़ाई। शायद पारो कहीं नज़र आ जाए। लेकिन दूर-दूर तक कोई नहीं था। घोड़ा जाने-पहचाने रास्ते पर अकेला ही उतरता गया। रॉबर्ट ने कुछ दु:खी अंदाज में अपने जूते से एक पत्थर को ठोकर मारी और फिर स्वयं ही लंगड़ाने लगा। ऐसा वह अक्सर निराशा की स्थिति में करता था।

वे लोग गुफा नं. 7 पर खड़े थे। रॉबर्ट ने नहीं में सिर हिलाया और गुफा नं. 9 का इशारा किया। जब वह गॉडेज़ बुद्ध की पद्मासन मुद्रा में चित्र बना रहा था और उसके सामने पेन्टिंग की पूरी थीम आ चुकी थी। वह स्टूल पर बैठकर जल्दी-जल्दी चित्र को पूरा करने लगा। चट्टान के एक बड़े टुकड़े से अर्धगोलाकार स्तूप के रूप में यह केव थी और छत पर बहुत सुंदर चित्रकारी की गई थी। रॉबर्ट के कुशल कलाकार हाथों ने पूरी केव का चित्रण कैनवस पर कर दिया था। यहाँ गॉड बुद्ध की खंडित खंडित जीवन यात्रा है।

अभी उसने चित्र पूरा ही किया था कि उसे पायलों की छम-छम सुनाई दी। वह एकाएक खड़ा हो गया।

नदी की चट्टानों के पास से यह ध्वनि थी। वह नदी की तरफ नीचे उतरने लगा। उसने मेहमूद को इशारा किया कि पेन्टिंग सामग्री लेकर वह बारादरी के लिए निकले। उसे पता था पारो आई है। यह उसी की पायल की छम-छम है। मेहमूद, कन्हैया और बाकी लड़के गुफाओं से काफी आगे निकल गए. घोड़ा ऊपर पहुँच गया था। उन सभी ने चट्टानों के किनारे पानी में पैर डाले पारो को बैठा देख लिया था।

रॉबर्ट नदी की धार के पास पहुँचा जो पर्वतों से निकलकर नीचे दूध की धारा की तरह बह रही थी। पारो चट्टान पर बैठी थी और नीचे पानी में हाथ डाला हुआ था। वह पानी को उछाल-उछालकर अपना चेहरा धो रही थी। उसके बालों में लगी पीले शेवंती की माला के फूल पानी में झर रहे थे। वह पारो की ओर मुग्ध भाव से देखता ही रहा। तभी अंजुरी से उछालकर उसने नदी का निर्मल ठंडा पानी रॉबर्ट की ओर उछाला। वह मुस्कुरा रही थी।

‘‘ओह नो! रॉबर्ट पीछे हटा। लेकिन तब तक पारो ने उसकी ओर काफी पानी उछाल दिया था। रॉबर्ट पास ही एक चट्टान पर बैठ गया। उसका कोट भीग गया था। कोट का रंग जहाँ-जहाँ भीगा था, वहाँ-वहाँ गाढ़ा दिख रहा था।

वह भी रॉबर्ट के पास आकर बैठ गई।

‘‘सर आपकी दाढ़ी पर धूल थी। मैंने इसलिए पानी डाला था।’’

रॉबर्ट कुछ नहीं बोला। एक ऐसा चेहरा वह देख पा रही थी जिसमें कोई भाव ही नहीं था। वह भी खामोश हो गई। दोनों मौन जाती हुई धूप वाला आसमान देखते रहे। काफी देर दोनों बैठे रहे। दोनों के बीच मौन छाया रहा। अंधेरा अपनी दस्तक दे रहा था।

‘‘पारो मैं इतने शहरों में रहा लेकिन अजिंठा गाँव जैसा मौसम, मैंने कहीं नहीं देखा। सभी जगह गर्मी मिली।’’ रॉबर्ट ने कहा।

‘‘यहाँ मैं जो हूँ।’’ पारो खिलखिलाकर हंस पड़ी। उसे दो-चार शहरों के अलावा कुछ मालूम ही नहीं था। वह केवल अपने गाँव अजिंठा को ही जानती थी।

‘‘मालूम है पारो, गाँव का आकाश अलग ही होता है। वह कुछ बोलता है, सुनता है। और बारिश में जब झमाझम बरसता है तो उसमें भी एक संगीत जैसी लय होती है।’’ पारो उसे आश्चर्य से देखती रह गई।

‘‘सर, आकाश तो सभी जगह का एक जैसा होता है। फिर शहर, गाँव का आकाश अलग कैसे?’’

रॉबर्ट हंसने लगा। ‘‘चलो चलते हैं। यहाँ रात हो जाएगी तो लैपर्ड हमें अपने घर ले जाएगा।’’

दोनों हंसने लगे।

ऊपर चढ़ते हुए पारो ने कहा-‘‘सर बाबा सुबह से ही कह रहे थे आज बारिश आएगी और देखो आसमान काले बादलों से भर गया है।’’

रॉबर्ट ने देखा सचमुच अंधेरे के साथ बादलों का अंधेरा भी बढ़ रहा है।

‘‘तुम्हारे बाबा को कैसे पता?’’ रॉबर्ट ने पूछा।

‘‘पता नहीं, लेकिन उन्हें मौसम का अंदाज हो जाता है। वे कहते हैं-हम बंजारे आदिवासी लोग हवा के रुख से ही मौसम का अंदाज कर लेते हैं। वे यह भी कहते हैं कि समुद्र के पास रहने वाले मच्छी (मछली) पकड़ने वाले मछुआरे भी बता देते हैं कि तूफान आने वाला है। फिर वे समुद्र में नहीं जाते।’’

सचमुच मुख्य सड़क तक आते-आते वे तेज़ बारिश में घिर गए.

रॉबर्ट ने सभी को वापिस भेज दिया था। मेहमूद अब तक बारादरी पहुँच भी गया होगा। लेकिन बारिश इतनी तेज़ थी कि दोनों ही भीग चुके थे। ठंडी हवा और बारिश से भीगी पारो कांपने लगी थी। बारिश रुकने का नाम नहीं ले रही थी।

कुछ दूरी तक वे चले। उन्होंने चमकती आकाशीय बिजली के बीच देखा, एक टूटी दीवालों वाला मकान कुछ ही दूरी पर है।

रॉबर्ट ने पारो का हाथ पकड़ा और उस मकान की ओर बढ़ गया।

मकान भीतर से पत्तियों और जालों से भरा था। जो दिखाई देता था बिजली की ही चमक में दिखता था।

‘‘सर, कोई सांप छुपा बैठा हो तो?’’ आजतक पारो के सामने ऐसी परिस्थिति नहीं आई थी।

रॉबर्ट ने वहाँ पड़ी एक लंबी डंडी उठा ली उससे पूरे कमरे की पत्तियां एक ओर कर दीं। नीचे से गोबर मिट्टी से लिपी जगह निकल आई।

‘‘लो सांप नहीं है न?’’

पारो डरी हुई थी। चारों तरफ काला अंधकार था, जिसमें सिर्फ बारिश की आवाज़ थी।

‘‘तुम अपने कपड़े उतारकर उसमें से पानी निकाल दो।’’ रॉबर्ट ने कहा।

पारो सकुचाई। कहा-‘‘रहने दो सर। मैं ऐसी ही ठीक हूँ।’’ लेकिन रॉबर्ट आगे बढ़ चुका था। उसने पारो का आंचल सीने से हटाया। बिजली कड़की और उजाला फैला। रॉबर्ट ने उसकी चोली की गीली डोरी पीठ पर से खोल दीं। फिर अंधेरा छा गया। रॉबर्ट की सांसे तेज़ थीं। उसने ट्राउजर्स के पॉकेट से (जलाने की वस्तु) निकाली और पत्तियों के ढंर में आग लगा दी। कोने में रखा सूखी पत्तियों का ढेर जलने लगा। रॉबर्ट के हाथों में पारो की चोली थी और अनावृत्त गोल-गोल नुकीली स्तन उसके सामने। लगातार बारिश तेज़ होती रही। पारो की ज़िंदगी में ऐसा भी हो सकता है। वह सोचकर भयभीत हो उठी।

बाबा... महावीर.... क्या उत्तर देगी वह सबको।

पत्तियों की आंच बुझ रही थी। कुछ डंडियां अभी भी मद्धम-मद्धम जल रही थी। रॉबर्ट बाजू में लेटा उसके नग्न बदन की कोमल त्वचा को अभी भी धीरे-धीरे सहला रहा था।

शायद बादल बहुत ऊंचे चले गए थे क्योंकि पहले बिजली चमकती फिर बहुत देर बाद बादलों की गड़गड़ाहट सुनाई देती। गड़गड़ाहट सुनते ही पारो रॉबर्ट से लिपट जाती।

‘‘पारो, मैं तुमसे प्रेम करता हूँ। बहुत सारा प्रेम। मैं तुमको कभी चीट नहीं करूंगा। तुम मेरी हो...।’’ कहकर वह पारो पर फिर झुका। भाषा कोई भी हो औरत प्रेम की, नफरत की सारी भाषाएं समझ जाती है।

पारो पुन: उससे लिपटकर रो दी।

‘‘सर...’’

‘‘डोन्ट क्राय पारो... मैं तुम्हारा हूँ।’’

पारो रॉबर्ट से सचमुच प्रेम करने लगी थी।

दोनों लिपटे पड़े रहे। रॉबर्ट ने पॉकेट से घड़ी निकालकर देखी। आठ बज रहे थे।

दूर ढोल की आवाज़ सुनाई दे रही थी। जो नज़दीक आती जा रही थी। पारो उठकर बैठ गई। वह जानती थी यह ढोल की आवाज़। गाँव वाले उन्हें ढूंढ़ते आ रहे हैं। ढोल जंगली जानवरों से बचने के लिए बजाए जाते हैं। पारो ने जल्दबाजी में कपड़े पहनने शुरू कर दिए। चोली की डोरियां रॉबर्ट से बंधवाई। कपड़े काफी हद तक पहनने लायक हो गए थे। अब पत्तियों का ढेर धुआं दे रहा था।

दूर से जयकिशन की आवाज़ सुनाई दे रही थी। ‘‘रॉबर्ट सर, आप कहां हैं? हम आ गए हैं। आप सुन पा रहे हैं तो हमें आवाज़ दें।’’

अब बारिश थम चुकी थी। लेकिन पूर्णतया बंद नहीं हुई थी।

इधर से रॉबर्ट चिल्लाया-‘‘जॉय! आयएम हियर... जयकिशन के हाथ में लालटेन थी, जिसको टोकरी से ढंका गया था। ताकि बारिश में भी वह जलती रहे। मेहमूद के हाथ में घोड़े की रस्सी थी। कन्हैया उसके साथ गाँव के कुछ और लड़के, बाबा और पारो का होने वाला पति महादेव सभी उन लोगों को ढूंढ़ने आए थे।

रॉबर्ट को देखकर जयकिशन रो पड़ा।

‘‘सर हम तो समझे थे...।’’

‘‘लैपर्ड ले गया?’’ रॉबर्ट ने कहा।

‘‘नहीं सर, जिसने अब तक दर्जनों शिकार किए हों उसे लैपर्ड कैसे ले जा सकता है? लेकिन अंधेरा... घुमावदार रास्ते...।’’ कहते-कहते जयकिशन चुप हो गया।

महावीर और महादेव दोनों ने घूरकर पारो को देखा। वह सिर से पांव तक कांप उठी। बाबा जितना अच्छा है, उतना सख्त भी। पारो ने सोचा।

पारो बाबा के साथ चलने लगी। उसके पैरों में प्रथम मिलन के बाद की पीड़ा का कंपन था।

रॉबर्ट घोड़े पर बैठकर काफी आगे निकल चुका था।

’’’

पारो के गाल पर महादेव का ज़ोरों से थप्पड़ पड़ा तो वह प्याज की बोरी पर जाकर गिरी।

‘‘जब सब लौट गए थे तो तू क्यों रुकी उस फिरंगी के साथ?’’ महादेव ने कहा। वह अत्यंत क्रोध में था।

‘‘वह मुझे प्यार करता है बाबा।’’ उसने निर्भीक होकर कहा।

‘‘क्या कह रही हो तू पारो?’’ उन्होंने पास ही पड़ी छतरी (छाता) उठाते हुए पारो की अंधाधुंध पिटाई शुरू कर दी।

महावीर ने आकर पारो के बाबा का हाथ पकड़ लिया।

‘‘बस काका... बातचीत से समस्या का हल निकालो।’’ उसने कहा।

‘‘क्या हल निकलेगा? अंग्रेजी कंपनी राज है। क्या हम इन फिरंगियों के विरुद्ध कुछ बोल सकते हैं। हमें मारकर हमारी कब्र खोद देंगे। किसी को पता भी नहीं चलेगा कि महादेव कौन-सी कबर में पड़ा है।’’ कहते हुए वह दीवार से टिककर दोनों हाथों से चेहरा छुपाकर जारजार रोने लगा।

‘‘जानती है न तेरा साखरपुड़ा (सगाई) महावीर के साथ हो चुका है।’’ महादेव ने कहा।

‘‘मुझे नहीं करना उस गुंडईगिरी करने वाले आदमी से शादी। तू तो कहता था बाबा, शादी में तेरी मर्जी पूछूंगा। अब कहां गई मर्जी?’’ पारो ने कहा।

‘‘तो तू क्या उसकी रखैल बनोगी? वो क्या तेरे से शादी करेगा। इज्जत की ज़िंदगी है रखैल बनना?’’ महादेव फिर ज़ोरों से दहाड़ा।

‘‘तू मुझे गुंडा बोल रही है पारो? अरे बचपन से तुझे प्यार किया है। चाहें तो आई की शपथ लेता हूँ।’’ महावीर रुआँसा हो उठा था।

‘‘लेकिन मैं तो तुझे पसंद नहीं करती न।’’ पारो लगातार बोले जा रही थी।

‘‘देखना उस फिरंगी की क्या हालत करता हूँ मैं।’’ कहता हुआ वह दरवाजे से बाहर निकला। लेकिन, गाँव को खबर लग चुकी थी कि पारो घर आ गई है। वे लोग पारो की खैर-खबर लेने उसके घर आ गए थे। लेकिन यहाँ तो अलग ही दृश्य देखने को मिल रहा था।

औरतें मुँह पर साड़ी का आंचल थामे हाय, हाय कर रही थीं। बिना माँ की लड़की कैसे तो पाला है महादेव ने। अरे हमने देखा है। और देखो कैसी पटा-पटा बोल रही है। न जाने शर्म कहां छोड़ आई।

पुरुष वर्ग भी पीछे नहीं था। वे सभी फिरंगी को कोस रहे थे। कितना बड़ा है उम्र में... दाढ़ी तो देखो खिचड़ी हो चली है। बाल-बच्चे-पत्नी वाला है... कोई कह रहा था।

‘‘अरे, इन लोगों का क्या? हमारी गाँव की भोली-भाली लड़कियों को फांसते हैं। सुख-चैन देने का वादा करते हैं। क्या कानोजी ने नहीं बताया था जब वह कलकत्ता से लौटा था। वहाँ तो ये फिरंगी ऐसा ही कर रहे हैं। अब यह बनाएगा रखैल और अपना काम पूरा होते ही चल देगा। कहां की पारो... कौन-सी पारो। सब कुछ न कुछ कह रहे थे।

महादेव ने पारो की मौसी जेना बाई (जो घर आ गई थी) से कहा-‘‘जाकर पूछो कि उस फिरंगी ने इसके साथ मुँह काला किया है।’’

लेकिन पारो ने मौसी को कोई उत्तर नहीं दिया।

‘‘देखो जीजा (दाजी) अब ये अंग्रेज के हाथ लग गई है। तुम हम कुछ नहीं कर सकते। इन लोगों के हाथ बहुत कुछ है। चाहेंं तो हमारे घर तुड़वा कर हमें दर-बदर की ठोकरें खाने पर मजबूर कर दें। तुम इसे छोड़ो। कोशिश तो करो, लेकिन फिरंगी से दो-चार नहीं होना है। ध्यान दो कि उसकी छोटी बहन पिहू उसके सामने न पड़े। जल्दी ही उसकी शादी कर दो। कोई ठिकाना नहीं फिरंगी का, साखरपुड़ा करके छोड़ नहीं देते, शादी कर देते तो आज यह दिन नहीं देखना पड़ता।’’

पारो सारी रात सो नहीं सकी। मौसी सही कहती है। आज यह कल वह... आज तक अंग्रेजों के कितने किस्से सुने हैं उन लोगों ने।

लेकिन वह रॉबर्ट से सचमुच प्यार करने लगी थी। लेकिन जब उसकी पत्नी बच्चे आ जाएंगे तब भी क्या वह मुझसे ऐसा ही प्यार करेगा?

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रॉबर्ट के दिमाग पर पारो तारी थी। वह बेहद खुश था। सुख क्या है पारो की नज़र में वह उसे देगा। रॉबर्ट के शौक भी कम न थे। फिर उससे जुड़े लोगों की इच्छाएं पूरी करना भी वह अपना कर्तव्य समझता था। वह अन्य पुरुषों की अपेक्षा कुछ अलग ही सोचता था। किसी स्त्री को उसकी इच्छा के विरुद्ध अपनी कामनाओं को उसके भीतर उंड़ेलने का वह पक्षधर नहीं था। जैसे इंडिया के राजा जमींदार, मालगुज़ार अन्य अमीर सामंत करते थे। और अंग्रेज अफसर ... सब कुछ जानता है वह। उसने आज तक स्त्री की मर्जी के विरुद्ध किसी से संबंध नहीं बनाए। क्योंकि उसके भीतर एक प्यार भरा दिल धड़कता है। वह प्यार पाना चाहता है, जो उसे लीसा से मिला... एनी से मिला... और अब पारो... पारो बहुत सभ्य, प्रिय, बुद्धिमान लड़की है। वह सदैव पारो से प्रेम करेगा।

सुबह बहुत जल्दी उठकर रॉबर्ट केव्ज़ जाने के लिए तैयार होने लगा। जयशंकर रॉबर्ट की हर आहट को पहचानता था। रॉबर्ट क्या करेगा इसका भी उसे पता चल जाता था। वह जल्दी से उठा और रॉबर्ट के लिए नाश्ता तैयार करने लगा। मेहमूद ने बिना नहलाए ही फेन्टम पर जीन डाली और उसके सामने चने की भाजी डाल दी। जल्दबाजी में उसने कैनवस, रंग, आदि संभाले और अजंता गुफा की ओर जाने लगा। रॉबर्ट ने 10 नं. की केव पर कैनवस लगाने को कहा। लेकिन वह जानता था मेहमूद बाद में पहुँचेगा। इसलिए वह अजिंठा ग्राम की ओर से होते हुए निकला। घरों के छप्पर से काला धुआं निकल रहा था। कुएं के पास पड़े काले पत्थर पर महादेव बैठकर स्नान कर रहा था और किसी भगवान का नाम जप रहा था। पारो नहीं दिखी। उसने घोड़ा धीमा किया तो एक घर के सामने सूप में चावल फटकारते पारो की मौसी नज़र आई। जिसने घूमकर घोड़े की आवाज़ सुनी और रॉबर्ट को देखा। वैसे ही फुर्ती से घर में घुस गई।

‘‘नासपीटा फिरंगी, अभी किसी नई लड़की की टोह में घूम रहा है।’’ कहते हुए अंदर घुस गई।

जिसकी चाहत थी वह नहीं दिखी तो उसने घोड़ा तेज़ी से अजंता केव्ज़ की तरफ दौड़ा दिया। हॉर्स शू पॉइन्ट पर मेहमूद खड़ा था। उसने नीचे उतरने का इशारा किया। घोड़ा अपने आप बगैर किसी सहायता से अनुशासित नीचे उतरने लगा। आज उसने जल्दबाजी में ही सही लेकिन सुंदरतापूर्ण केव्ज़ नं.9-10 और 1 (एक) पूरी कर ली है। शायद उसे केव नं. 1 की चित्रकारी में काफी समय लगेगा लेकिन यह एक भव्य पेन्टिंग होगी।

जल्दी-जल्दी रेखाचित्र बनाकर वह आराम से उनमें रंग भरने का कार्य करना चाहता है। कम से कम 6 पेन्टिंग तो वह शीघ्र ही लंदन भेज देगा। केव नं. 17 को भी पूरा करके इस प्रकार वह पेन्टिंग भेज पाएगा। रॉयल एशियाटिक सोसायटी का भी प्रेशर उस पर आ रहा है। 17 नं. की केव में एक अप्सरा का चित्र है, जो उसके दिमाग में रच बस गई है।

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मेहमूद औरंगाबाद से जो पत्र लाया था, उसमें एल्फिन और एनी का पत्र था।

एनी ने लिखा था-तुमसे बगैर मिले इंग्लैण्ड जा रही हूँ रॉबर्ट। डैड को समय से पहले रिटायरमेंट मिल चुकी है। क्योंकि वे बीमार हैं। उधर माँ भी बीमार हैं। माँ चाहती है कि मैं विवाह कर लूं। लेकिन रॉबर्ट मैं विवाह नहीं करूंगी। सिर्फ डैड जानते हैं क्यों? मैं तुम्हारी हूँ रॉबर्ट... तुमसे अलग नहीं रह पाती। यहाँ पहुँचने पर मि. फर्ग्युसन ने बताया कि तुम अजंता विलेज की बारादरी में रह रहे हो। तुम्हें अजंता केव्ज़ की पेन्टिंग और वहाँ की तस्वीरें लेने का काम मिला है। रॉबर्ट तुम तो इन्हीं रंगों में डूबे रहते थे। अब आदेश सहित यह कार्य तुम्हें मिल गया है। तुम्हें रॉयल एशियाटिक सोसायटी द्वारा नियुक्त किया गया है। रॉबर्ट यह तुम्हारे लिए, मेरे लिए और ग्रेट ब्रिटेन के लिए गौरव की बात है कि सेना का एक अंग्रेज अफसर वहाँ पर लुप्तप्राय हो चुकी केव्ज़ को सामने लाकर उसे पुनर्जीवित करेगा। रॉबर्ट, बधाई लो मेरी। मेरा मन कहता है तुम ग्रेट ब्रिटेन के इतिहास में सदैव याद किए जाओगे। तुम जब बुलाओगे रॉबर्ट, मैं आ जाऊंगी। मेरी सांसे तुम्हारी हैं, दिल धड़कता है तो सिर्फ तुम्हारे लिए। चुंबन... - एनी।

पत्र जल्दी दोगे। लो अभी से प्रतीक्षारत हो गई मैं।

पत्र पढ़कर रॉबर्ट भीग उठा। उसकी कला की कितनी कद्र की है एनी ने।

शीघ्र ही वह उत्तर देगा। उसने सोचा। एल्फिन ने लंदन की बहुत सारी बातें बताते हुए आगे लिखा था। जब टैरेन्स तुम्हारी फैमिली के साथ पहुँच जाए खबर करना, मैं आ जाऊँगा। फिलहाल दिल्ली में हूँ। साईमा लंदन में ही है। कुछ महीने बाद आएगी।

- एल्फिन

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जयकिशन बनी हुई पेन्टिंग को खाली कमरे में सफेद बारीक कपड़े से ढंककर रखता जाता था।

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खबर मिली थी डेढ़ महीने में टैरेन्स फ्लावर ड्यू, बच्चे पहुँच जाएंगे। अर्थात उसे खबर ही नहीं थी, वे लोग अरसा पहले जहाज पर बैठ चुके थे। आज पाँच-छह दिन हो चुके थे। पारो उसे नहीं मिली थी। वह इसी उधेड़बुन में बाहर निकला था कि फिर बारिश ने उसे घेर लिया।

तेज़ बारिश होने लगी थी। रॉबर्ट को भीगने में मजा आ रहा था। लेकिन घर पर जयकिशन चिंतित था। मेहमूद आज औरंगाबाद गया था। सामान की लंबी पर्ची जयकिशन ने उसे थमा दी थी। औरंगाबाद का बाजार अच्छा था। वहाँ से उसे सामान लाना था और अपने किसी रिश्तेदार की शादी में भी सम्मिलित होना था।

रॉबर्ट घर आया तो उसे गीला देखकर जयकिशन घबरा गया। तुरन्त उसके हाथ में बड़ा रुएंदार तौलिया थमा कर कपड़े निकालने अलमारी की ओर बढ़ गया। बाहर घोड़ा फैन्टम बारिश में भीग रहा था। उसने जल्दी ही रॉबर्ट के जूते-मोजे उतारे और सूखे कपड़े उसकी ओर बढ़ा दिए। फिर तुरन्त ही रम की बोतल और गिलास तिपाई पर रख दिया। अंडे तो पहले ही उबल चुके थे। उसने अंडे के पकौड़े तल कर रॉबर्ट के सामने रखे और दूसरी खाने-पीने की चीज़ें तिपाई पर जमा दीं। फिर वह घोड़े को अस्तबल में बांधने ले जाने लगा।

करीब घंटे भर तक रॉबर्ट पीता रहा और खिड़की से आती तेज़ हवा और बारिश की बौछारों का आनंद लेता रहा।

जानता था जयकिशन अब या तो रॉबर्ट खाने को मना कर देगा अथवा कुछ हल्का सा खाना खाएगा क्योंकि वह अंडे की पकौड़ी काफी खा चुका था। जयकिशन ने पकौड़ों के साथ टमाटर की खट्टी मीठी चटनी भी बनाई थी, जो रॉबर्ट को बहुत पसंद थी।

अचानक हवा का एक झोंका आया। लगा कोई दरवाजे के पास खड़ा है। जयकिशन ने आकर बताया-‘‘सर, पारो आई है।’’

रॉबर्ट एकदम खुश हो उठा। उसने देखा दरवाजे के पास गीली, बारिश के पानी से लथपथ पारो खड़ी थी। हाथ में एक मिट्टी का बड़ा-सा कटोरा था।

‘‘भीतर आओ पारो।’’ रॉबर्ट ने कहा।

‘‘यह क्या है?’’ जयकिशन ने पूछा।

‘‘मैं सर के लिए तली हुई मछली लेकर आई हूँ। आज बाबा पैठण गया था, वहाँ से लाया था। बहुत अच्छी बनी है। मैंने बनाई है।’’ पारो ने कहा।

उसने कटोरा जयकिशन के सामने कर दिया।

‘‘तुम एकदम भीग चुकी हो। मैं तुम्हें कौन-से सूखे कपड़े दूं।’’ रॉबर्ट ने कहा।

‘‘नहीं सर, मैं जाऊंगी, यही देने आई थी। घर पर मेरे लौटने की राह देखी जा रही होगी।’’ पारो ने कहा। जबकि घर पर कोई था ही नहीं। पिहू मौसी के साथ उसके घर पर थी और बाबा खाकर और थोड़ा मछली लेकर अपनी मंडली में चला गया था। यह कहकर कि इसी तरह बारिश रही तो वह वही रुक जाएगी। पारो को रॉबर्ट की याद आई। यह मछली खाएंगे वह तो खुश हो जाएंगे। सोचकर वह इतनी बारिश और नीम अंधेरे में घर से निकल पड़ी थी।

जयकिशन मछली गरम करके ले आया था। रॉबर्ट ने जबरदस्ती गीले कपड़ों में ही पारो को मछली के साथ एक रोटी खिलाई और स्वयं भी खाया।

मछली स्वादिष्ट थी। वह बहुत प्यार से पारो की ओर देखता रहा। बाहर बारिश थी। वह ठंड में कंपकंपाती रॉबर्ट के सामने बैठी थी। साड़ी का आंचल बारिश के पानी से भीगकर उसके शरीर से चिपका था। उसके उन्नत उरोज मानो आमंत्रण दे रहे थे। मुझमें समा जाओ रॉबर्ट... मुझे संपूर्ण कर दो। और रॉबर्ट ने उसकी गीली कंपाहट को अपनी चौड़ी छाती में समेट लिया।

उसने दरवाजे बंद कर दिए। जयकिशन झूठे बर्तन ले जा चुका था। दरवाजे के पीछे कमरे में रौशनियों का एक द्वीप अंधेरे में अपनी जगह बना रहा था। न यहाँ धर्म था न पूर्वी-पश्चिमी संस्कृति... यहाँ केवल प्रेम था। प्रेम... जिसकी अथाह गहराई में रॉबर्ट डूब चुका था।

बाहर घोड़ा हिनहिना रहा था। बारिश शायद थमी होगी, लेकिन पारो इस मिलन के लिए तैयार नहीं थी, जो हो चुका था।

अभी उजाला होना बाकी था। रात्रि में उसकी साड़ी खिड़की से आती हवाओं में सूख चुकी थी। रॉबर्ट गहरी नींद में था। उसने साड़ी पहनी और उस नीम उजाले में अपनी बस्ती की ओर लौट गई।

पारो और रॉबर्ट का संबंध जयकिशन और मेहमूद से छुपा नहीं था।

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