मेरे घर आना ज़िंदगी - 32 Ashish Kumar Trivedi द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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मेरे घर आना ज़िंदगी - 32



(32)

मकरंद कुछ वक्त पहले ही ऑफिस से लौटकर आया था। अब उसकी चोट ठीक हो गई थी पर जो कुछ घटा था उससे उसका दिल बहुत दुखा हुआ था। नंदिता अब उससे और अधिक दूर हो गई थी। वह पूरी तरह से‌ अपने मम्मी पापा के कहने पर चल रही थी। किसी भी चीज़ में उसकी सलाह लेना ज़रूरी नहीं समझती थी। इसका नतीजा यह हुआ था कि मकरंद जो पहले ही कम बोलता था, अब जब तक बहुत ज़रूरत ना हो कुछ बोलता ही नहीं था।
मेन डोर पर दस्तक हुई। मकरंद ने दरवाज़ा खोला। खाना बनाने के लिए कुक आई थी। किचन में जाने से पहले कुक ने पूछा,
"चाय बनानी है ?"
"हाँ.... बना दो। कल की सब्जी और दाल अभी तक रखी है। बेकार जाएगी। इसलिए अभी सिर्फ रोटियां सेंक देना। वही दाल सब्जी गर्म कर देना।"
आदेश लेकर कुक किचन में चली गई। मकरंद अपने कमरे में जाकर बैठ गया। खाना बनाने के लिए उसने कुक लगा ली थी। लेकिन नंदिता नीचे अपनी मम्मी पापा के साथ ही खाती थी। उसकी मम्मी का कहना था कि इस हालत में वह अपनी बेटी को खुद बनाकर खिलाएंगी। लेकिन उन्होंने मकरंद से यह नहीं कहा कि वह भी नीचे ही खाना खाया करे। उसे कुक के हाथ का खाने की ज़रूरत नहीं है।
मकरंद महसूस करता था कि इस घर में वह एकदम अलग थलग पड़ गया है। नंदिता अपने मम्मी पापा की तरह ही सोचने लगी है‌। उसे भी लगने लगा है कि मकरंद उसके लिए सही चुनाव नहीं था। वह सोच रहा था कि क्या सचमुच गलती उसकी ही है। वह सबके साथ मिलकर नहीं रह पा रहा है। वह शुरुआत से अब तक की घटनाओं को याद करने लगा। पर उसे अपनी गलती नज़र नहीं आ रही थी। वह तो बस यह चाहता था कि उन लोगों के यहाँ रहते हुए उसके सास ससुर पर कोई बोझ ना पड़े। इसलिए नंदिता से कहता था कि उन दोनों का खाना ऊपर बनना ही ठीक रहेगा। सफाई के लिए लगी मेड को अलग से पैसे दिए जाने चाहिए। पर नंदिता को उसकी बातें ठीक नहीं लगती थीं। नंदिता की मौसी ने स्तिथि को और बिगाड़ दिया था। उसके बाद तो हालत ऐसे होते गए कि उसके और नंदिता के बीच की दूरी बढ़ती चली गई। अब तो वह पूरी तरह से अपने मम्मी पापा के पक्ष में थी।
उसके कमरे के दरवाज़े पर दस्तक हुई। कुक चाय की ट्रे लेकर खड़ी थी। मकरंद ने उठकर ट्रे पकड़ ली। कुक ने कहा,
"चार रोटियां सेंक दी हैं। बाकी का आटा फ्रिज में रख दिया है। दाल सब्जी गर्म करके खाना टेबल पर रख दूँगी।"
"ठीक है। अपना काम करके तुम चली जाना।"
कुक किचन में चली गई। मकरंद चाय पीने लगा। चाय पीते हुए उसका मन फिर वही सब सोचने लगा। उसे अपने सास ससुर से अधिक इसमें नंदिता का दोष लग रहा था। नंदिता के पापा मम्मी तो पहले ही उसके खिलाफ थे। फिर भी नंदिता ने उससे शादी की थी। क्योंकी वह उससे प्यार करती थी। पर आज उसका वह प्यार ना जाने कहाँ चला गया था। अब वह भी उसकी हर बात को गलत नज़रिए से ही देखती थी। जबकी शादी के बाद एक साल तक दोनों ने एक सुखी जीवन बिताया था। दोनों एक दूसरे को अच्छी तरह समझते थे। अचानक नंदिता की प्रैग्नेंसी की खबर सुनकर कुछ दिनों के लिए परेशानी पैदा हुई थी। पर बाद में वह भी दूर हो गई थी। दोनों ने मिलकर बच्चे के आने की तैयारी शुरू कर दी थी।
मकरंद उन दिनों को याद कर रहा था। तब नंदिता बहुत खुश रहती थी। छोटी छोटी बातों में भी खुशी तलाश लेती थी। मकरंद की ज़िंदगी एक संकोच में बीती थी। अपनी इच्छानुसार दिल खोलकर जीना उसके स्वभाव में नहीं था। लेकिन नंदिता के साथ शादी के बाद वह भी बहुत खुल गया था। जब कभी चीज़ों को लेकर वह परेशान होता था तब वह उसे अपनी तरह से समझाती थी। लेकिन आज नंदिता को उसकी किसी भी बात से सरोकार नहीं रह गया था।
अपनी मम्मी के कहने पर नंदिता ने नौकरी छोड़ दी थी। उसे इस विषय में तब बताया जब अपने बॉस को रेज़िगनेशन लेटर देकर आई थी। मकरंद को उसके नौकरी छोड़ने से अधिक इस बात की तकलीफ थी कि उससे एक बार सलाह लेना भी उचित नहीं समझा था। जबकी पहले नंदिता ने ही तय किया था कि वह जब तक चला सकेगी तब तक नौकरी पर जाएगी। उसके बॉस इस बात के लिए राज़ी थे कि वह उसे बच्चे की पैदाइश के बाद मैटरनिटी लीव के साथ कुछ और छुट्टियां विदआउट पे दे देंगे। नंदिता ने तय किया था कि कम से कम आठ महीने तक तो अपने काम पर जाएगी। उसके बाद छुट्टी ले लेगी। उन लोगों के प्लान के अनुसार तय हुआ था कि जब नंदिता की मैटर्निटी लीव खत्म हो जाएगी तो दो महीने की विदआउट पे लीव ले लेगी। उस बीच में बच्चे की देखभाल के लिए किसी को रख लेंगे। जिससे नंदिता के दोबारा काम पर जाने के बाद वह बच्चे को संभाल सके। लेकिन नंदिता ने उस सारी प्लानिंग को दरकिनार कर अपनी मम्मी की बात मान ली थी।
मकरंद ट्रे लेकर किचन में गया। कुक जा चुकी थी। उसने कप धोकर रख दिया। लॉबी में टेबल पर खाना रखा हुआ था। उसे अभी भूख नहीं थी। उसने सोचा कुछ देर कहीं घूम आता है। मन बदल जाएगा। इस समय उस बड़े से मकान में सिर्फ वही अकेला था। नंदिता अपने मम्मी पापा के साथ किसी रिश्तेदार के घर गई हुई थी। तैयार होकर वह नीचे आया‌‌। एकबार नीचे के हिस्से को अच्छी तरह देखा। सारे खिड़की दरवाज़े बंद थे। उसने अपनी बाइक निकाली और चला गया।

योगेश की हालत दिन पर दिन बिगड़ती जा रही थी। वह बहुत कमज़ोर हो गए थे। डॉक्टर अपनी पूरी कोशिश कर रहे थे। लेकिन उनकी तबीयत में कोई सुधार नहीं हो रहा था। योगेश के अंदर अब जीने की इच्छा बची भी नहीं ‌थी। वह अस्पताल के बिस्तर पर लेटे हुए बीते दिनों को‌ याद कर रहे थे। उनकी आँखों के सामने दुल्हन बनी उर्मिला की तस्वीर घूम रही थी। वह पल याद आ रहा था जब वह दोनों पहली बार एक दूसरे के साथ थे। उनके पैतृक घर की ऊपरी मंज़िल पर बने एक छोटे से कमरे में उनके वैवाहिक जीवन की पहली रात बीती थी‌।

उनकी शादी गर्मियों के दिनों में हुई थी। जिस दिन विदाई हुई थी उस दिन सबसे अधिक गर्मी थी। घर में मौजूद सभी मेहमान सिर्फ गर्मी के बारे में बात कर रहे थे। गर्मी से राहत पाने के उपाय कर रहे थे। योगेश मर्दों के साथ घर के बाहरी हिस्से में थे। औरतें अंदर थीं। उर्मिला उनके साथ थीं। एक दो बार योगेश बहाने से अंदर झांककर आए थे। उन्हें लाल चुनरी से घूंघट किए उर्मिला औरतों से घिरी दिखाई पड़ी थीं। उन्हें उर्मिला की दशा पर तरस आया था। वह सोच रहे थे कि इतनी गर्मी में घूंघट में गहनों से लदी उर्मिला को कितनी उलझन हो रही होगी। वह बेसब्री से रात का‌ इंतज़ार करने लगे जब वह उर्मिला से मिलने वाले थे।
जब‌‌ उन्होंने कमरे में प्रवेश किया तो उर्मिला को पलंग पर वैसे ही घूंघट में किसी गठरी की तरह सिमटा हुआ पाया। कमरे में एक बल्ब जल रहा था। सीलिंग फैन था नहीं। उसकी‌‌ जगह एक टेबल फैन खड़ खड़ की आवाज़ के साथ चल रहा था। उसका मुंह जिधर था उधर से उर्मिला को हवा लगना नामुमकिन था। योगेश के कदमों की आहट से उर्मिला को उनके ‌आने की सूचना मिल चुकी थी। वह कुछ और सिमट गई थीं।
योगेश ने कमरे के अंदर घुसते ही सबसे पहले पंखे का मुंह उर्मिला की तरफ कर दिया। अचानक तेज़ हवा लगने से उनका घूंघट कुछ खुल गया। उन्होंने जल्दी से उसे बंद कर दिया। योगेश ने कहा,
"खुला रहने दो। गर्मी नहीं लग रही है‌ क्या ?"
उर्मिला ने कुछ नहीं कहा। योगेश ने आगे बढ़कर उनका घूंघट खोल दिया। उर्मिला ने अपने हाथों में अपना चेहरा छिपा लिया। योगेश ने कहा,
"क्या सारी ज़िंदगी ऐसे ही करोगी ? फिर हम साथ कैसे रहेंगे ‌?"
उर्मिला ने वैसे ही जवाब दिया,
"सारी ज़िंदगी नहीं....पर आज तो.... एकदम से ‌घूंघट हटा दिया। मुझे शर्म आ रही है।"
उसी समय बिजली चली गई। कमरे में अंधेरा हो गया। खड़ खड़ चलता पंखा भी शांत हो गया। योगेश जाकर उर्मिला के पास बैठ गए। उर्मिला ने अपना सर उनके सीने में‌ छुपा लिया। दोनों उसी तरह बैठे रहे। बत्ती गए देर हो गई थी। उस बंद कमरे में और अधिक गर्मी लग रही थी। योगेश ने उर्मिला से कहा,
"बहुत गर्मी लग रही है ना ?"
"हाँ...बिजली भी बहुत देर के लिए चली गई है।"
"रुको....मैं कुछ करता हूँ।"
योगेश उठकर कमरे से बाहर चले गए। कुछ देर में लौटे तो उनके हाथ में एक पुराना अखबार था। वह उससे उर्मिला को हवा करने लगे। उर्मिला ने उन्हें रोका,
"रहने दीजिए मैं ठीक हूँ।"
"कैसे रहने दूँ ? इतनी गर्मी है।"
योगेश फिर से अखबार से हवा करने लगे। कुछ देर बाद उर्मिला ने कहा,
"एक बात पूछूँ ?"
"पूछो...."
"क्या सारी ज़िंदगी मेरा ऐसे ही खयाल रखेंगे ?"
"बिल्कुल.....जब तक शरीर में हिम्मत रहेगी तब तक।"
अस्पताल के बिस्तर पर उस पल को याद करते हुए योगेश की आंँखों से‌ आंसू बहने लगे। उनके मुंह से निकला,
"मैंने वादा नहीं तोड़ा उर्मिला। पर अब शरीर साथ नहीं दे रहा है। मैं मजबूर हूँ।"
पास बैठे सुदर्शन के कानों में उनकी आवाज पड़ी तो उसने पूछा,
"क्या बात है अंकल ?"
योगेश ने कहा,
"बेटा उर्मिला से मुलाकात हो पाएगी। आँख बंद होने से पहले एकबार उसे देख लूँ।"
योगेश की आवाज़ में दर्द था। सुरदर्शन ने कुछ करने का वादा किया।