मेरे घर आना ज़िंदगी - 3 Ashish Kumar Trivedi द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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मेरे घर आना ज़िंदगी - 3


(3)

कमरे में एकदम खामोशी थी। मकरंद अपने हाथों में सर रखे बैठा था। मेडिकल रिपोर्ट उसके सामने पड़ी थी। मकरंद रिपोर्ट को घूरे जा रहा था। जैसे सारी समस्या रिपोर्ट के कारण ही पैदा हुई हो। नंदिता उसकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार कर रही थी। हर बीतते पल के साथ उसके दिल की धड़कनें तेज़ हो रही थींं। मकरंद ने नंदिता की तरफ देखकर कहा,
"मैं कह रहा था कि भगवान ना जाने क्यों मेरे पीछे पड़े हैं। कुछ भी मेरे हिसाब से होने ही नहीं देते हैं। देखो अब यह समस्या सामने आ गई। मेरी तो कुछ समझ नहीं आ रहा है कि क्या करूँ।"
मकरंद रुका। ऐसा लग रहा था जैसे कि वह बहुत कुछ कहना चाहता है पर कह नहीं रहा है। नंदिता मुंह झुकाए खड़ी थी। मकरंद ने कहा,
"मैंने अच्छी तरह से समझाया था कि अभी कुछ साल परिवार नहीं बढ़ाएंगे। लेकिन तुमने ध्यान नहीं रखा।"
अब तक नंदिता खुद पछता रही थी कि उसने लापरवाही की। वह गोलियां ले रही थी जो उसने नहीं ली थीं। संडे की उस शाम के बाद भी उसने ध्यान नहीं दिया। लेकिन अब जब मकरंद ने उसे एकमात्र दोषी करार दिया तो उसे अच्छा नहीं लगा। उसने कहा,
"मैं ही जानती हूँ कि जबसे मुझे मेरे प्रेगनेंट होने का पता लगा है मुझ पर क्या बीत रही है। मैं भी नहीं चाहती थी कि अभी हम अपनी ज़िम्मेदारियां बढ़ाएं। पर जो हुआ उसके लिए क्या सिर्फ मैं ही अकेले दोषी हूँ। फैसला हम दोनों का था। सावधान रहने की ज़िम्मेदारी भी हम दोनों की थी।"
यह कहकर नंदिता रोने लगी। मकरंद ने कहा,
"मैं अपनी ज़िम्मेदारी को नकार नहीं रहा हूँ। लेकिन सच तो यह है कि शुरू से ही तुमने ध्यान रखने का फैसला किया था। इसलिए मुझे कुछ पता नहीं था। मेरी भी क्या गलती है।"
"ठीक है तो सारी गलती मेरी है।"
नंदिता यह कहकर बेडरूम में चली गई और अंदर से दरवाज़ा बंद कर लिया। मकरंद भी सच सामने आने के बाद बहुत परेशान था। वह उठा और घर से बाहर निकल गया।
मकरंद नीचे आया। वह चाहता था कि अपनी बाइक लेकर वह कुछ समय के लिए कहीं चला जाए। लेकिन गुस्से में ना तो वह बाइक की चाभी लेकर आया था और ना ही अपना फोन। वह ऊपर जाना नहीं चाहता था। इसलिए पैदल ही सोसाइटी से बाहर निकल गया। गुस्से में चलते हुए वह कुछ दूर तक आ गया था। कुछ थकावट महसूस हो रही थी। उसे छोटी सी एक चाय की दुकान दिखाई पड़ी। उसने सोचा कि कुछ देर यहीं बैठता है। लेकिन अंदर जाने से पहले उसने अपनी जेब में हाथ डाला। वॉलेट भी नहीं था।
वह खड़ा होकर इधर उधर देखने लगा। सामने शिवजी का मंदिर दिखाई पड़ा। उसके बाहर एक पेड़ लगा था। वह उस पेड़ के चारों तरफ बने चबूतरे पर बैठ गया। उसे नंदिता पर गुस्सा आ रहा था। सोच रहा था कि जब उसने ज़िम्मेदारी ली थी तो लापरवाही करने का मतलब क्या था। अगर उससे चूक हो गई थी तो उसे आगाह कर देती। अब जब उसने उसकी गलती की तरफ इशारा किया तो उल्टा उस पर ही गुस्सा हो रही थी।
अंधेरा हो रहा था। स्ट्रीट लाइट जल चुकी थी। आसपास की दुकानों में लाइट जलाई जा चुकी थी। शिवजी के मंदिर के अंदर भी एक बल्ब जल रहा था। उसकी रौशनी में शिवलिंग के दर्शन हो रहे थे। मकरंद ने शिवलिंग की तरफ देखकर कहा,
"अब बताओ क्या करूँ मैं ? आपको नहीं पता कि आज के ज़माने में बच्चों की परवरिश कितनी मुश्किल हो गई है। सही परवरिश के लिए कितना पैसा लगता है। इसलिए चाह रहा था कि अपने आप को उसके लिए तैयार कर लेता। पर आपने तो समय से पहले ही भेज दिया। मेरे प्लान को एकबार फिर फेल कर दिया।"
वह अपनी बात कह रहा था तभी एक आदमी मंदिर में आया। उसने घंटा बजाया फिर हाथ जोड़कर बोला,
"उस समय मुझे बहुत बुरा लगा था। लेकिन अब समझ आया कि आपके अपने तरीके हैं। जिन्हें हम समझ नहीं सकते।"
मकरंद के कानों में उसकी कही बात पड़ गई थी। वह उसकी कही बात को अपनी स्थिति से जोड़कर देखने लगा। वह सोच रहा था कि फिलहाल वह भी नहीं समझ पा रहा है कि उसके सामने जो स्तिथि उत्पन्न हुई है उससे कैसे निपटा जाए। लेकिन उसे सुलझाने का उपाय निकालने के लिए उसे स्वीकार करना बहुत ज़रूरी है। वह चबूतरे से उतरा। सामने शिवलिंग को हाथ जोड़कर कहा,
"अब आप ही सही रास्ता दिखाइए।"
शिवजी से प्रार्थना कर वह अपने घर की तरफ चल दिया।

नंदिता बहुत देर तक बिस्तर पर पड़ी रोती रही। वह भी बहुत गुस्से में थी। सोच रही थी कि मकरंद ने कितनी आसानी से सारा दोष उस पर मढ़ दिया। आगे भी वह इस संबंध में जो मुश्किल आएगी उसका दोष उसे ही देगा। अभी तो बहुत सी समस्याएं सामने आएंगी। उसे समय समय पर डॉ. नगमा सिद्दीकी के पास जाना पड़ेगा। बच्चे की प्रगति की जांच करवानी पड़ेगी। बच्चे के जन्म के बाद भी बहुत सी चीज़ें होंगी। उसे इस सब के लिए मकरंद की सहायता की ज़रूरत पड़ेगी। लेकिन जिस तरह से उसने उसे दोष देकर अपना पल्ला झाड़ लिया है, उसे देखकर उससे कोई उम्मीद नहीं की जा सकती है।
यह सब सोचते हुए उसे डॉ. नगमा सिद्दीकी की कही बात याद आई कि आप और आपके पति अपने आप को बच्चे की परवरिश के लिए तैयार कर लें। उसने सोचा कि उसे बच्चे को जन्म तो देना ही है। पर वह मकरंद को अपनी ज़िम्मेदारी से दूर नहीं जाने देगी। बच्चे को पालने में उसकी जो मदद चाहिए होगी वह अवश्य लेगी।
नंदिता बेडरूम से निकली तो पाया कि मकरंद घर पर नहीं है। वह सोचने लगी कि मकरंद आखिर चला कहाँ गया। कुछ देर तक वह उसके आने की राह देखती रही। लेकिन जब मकरंद नहीं आया तो उसे चिंता हुई। उसने मकरंद को फोन मिलाया। लेकिन उसने पाया कि मकरंद का फोन सोफे पर पड़ा बज रहा है। वह परेशान हो गई। उसने पेग पर देखा तो उसकी बाइक की चाभी लटकी हुई थी। वह समझ गई कि बहुत दूर नहीं गया होगा। शायद सोसाइटी में ही टहल रहा हो। यह सोचकर वह नीचे जाने की सोच रही थी तभी डोरबेल बजी। उसने दरवाज़ा खोला तो मकरंद था। वह बिना कुछ बोले अंदर आ गया।

दो दिन हो गए थे। नंदिता और मकरंद के बीच कोई बातचीत नहीं हुई थी। यह बात दोनों को अखर भी रही थी। लेकिन दोनों ही चाहते थे कि दूसरा बातचीत शुरू करे। नंदिता इस बात पर ऐंठी थी कि गलती मकरंद की है। उसने उस पर सारा दोष मढ़कर खुद को अलग कर लिया। अब उसे ही बातचीत शुरू करके अपनी गलती माननी चाहिए। मकरंद सोच रहा था कि शायद नंदिता को इस बात का एहसास हो जाए कि लापरवाही उसने की थी। वह अपनी लापरवाही स्वीकार करे। दोनों ही बातचीत करना चाहते थे पर पहल नहीं करना चाहते थे।
नंदिता ने डिनर टेबल पर लगा दिया था। वह इंतज़ार कर रही थी कि मकरंद आकर बैठे तो खाना शुरू करे। मकरंद अपनी डायरी लेकर बैठा कुछ लिख रहा था। इस डायरी में वह हिसाब किताब लिखा करता था। वह कुछ हिसाब लगाने में व्यस्त था। इस बात पर ध्यान नहीं दे रहा था कि डिनर का समय हो गया है। नंदिता को यह बात बुरी लग रही थी। उसने गुस्से से कहा,
"मुझे भी काम हैं। कब तक डिनर करने के लिए बैठी रहूँ। मुझे डिनर के बाद सबकुछ समेटना भी पड़ेगा।"
नंदिता ने मकरंद को सुनाते हुए यह बात कही थी। मकरंद ने भी उसी सुर में कहा,
"बात सीधे सीधे भी कही जा सकती थी। ताना मारने की ज़रुरत नहीं थी।"
ताने वाली बात सुनकर नंदिता ने मकरंद से कहा,
"मेरी आदत ताना मारने की नहीं है। मैंने जो कहा सही है। डिनर के बाद टेबल साफ करना। बचा हुआ खाना फ्रिज में रखना। बर्तन साफ करना यह सब काम मैं ही करती हूँ। इस सब में वक्त लगता है।"
मकरंद ने डायरी बंद कर दी। वह जाकर टेबल पर बैठ गया। उसने अपनी प्लेट में खाना परोसा और खाने लगा। नंदिता भी अपनी प्लेट लगाकर खाने लगी। खाते हुए दोनों के मन में हलचल मची थी। मकरंद उस हिसाब के बारे में सोच रहा था जो वह डायरी में लिख रहा था। वह हिसाब लगा रहा था कि बच्चे की पैदाइश पर कितना खर्च आएगा। बच्चे के पैदा होने के बाद अगले एक साल में क्या करना होगा और उस पर कितना खर्च आएगा वह उसका भी हिसाब लगा रहा था। वह सोच रहा था कि जो उसका अनुमान है उससे कुछ अधिक का ही इंतज़ाम रखना पड़ेगा।
नंदिता को लग रहा था कि जैसे मकरंद उस पर सारा दोष लगाकर निश्चिंत हो गया है। उसने एकबार भी आगे क्या करना है इस बात पर उससे चर्चा नहीं की। अपनी डायरी लेकर बैठा है। वह सोच रही थी कि ज़रूर पिछले महीने उसकी मौसी की बेटी की शादी पर जो खर्च हुआ था उसका हिसाब लिख रहा होगा।
खाना खाने के बाद मकरंद अपनी प्लेट लेकर किचन में गया और उसे धोकर रख दिया। वापस आकर बोला,
"खा लेना तो टेबल छोड़ देना। मैं साफ कर दूँगा।"
नंदिता ने कहा,
"अभी तक जो काम मैं करती आई थी कर लूँगी। ज़िम्मेदारी उठानी है तो आगे जो होने वाला है उसकी ज़िम्मेदारी निभाओ।"
मकरंद उसका इशारा समझ गया। उसने कहा,
"मेरी जो भी ज़िम्मेदारियां हैं मैं उनसे पीछे नहीं हटता हूँ। अब जो सच्चाई है उसे स्वीकार करके आगे बढ़ना होगा। डायरी में इसी बात का हिसाब कर रहा था कि जो ज़िम्मेदारी आने वाली है उसे उठाने के लिए हमें क्या तैयारी करनी होगी।"
उसकी बात सुनकर नंदिता को बहुत तसल्ली मिली।