ममता की परीक्षा - 95 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ममता की परीक्षा - 95



रमा भंडारी के पीछे पीछे चलते हुए साधना ने उस आलीशान दफ्तर में प्रवेश किया जिसके मुख्य प्रवेश द्वार पर लिखा था 'श्रीमती रमा मोहन भंडारी ..संचालिका - अहिल्याबाई महिला कल्याण आश्रम'।
अंदर प्रवेश करते हुए साधना ने सरसरी निगाहों से कमरे का जायजा लिया। दरवाजे से लगा हुआ एक हॉल नुमा कमरा था जिसमें तीन तरफ दीवारों से लगकर करीने से सोफे रखे हुए थे।
दायीं तरफ काँच की एक दीवार बनी हुई थी जिसके ठीक बीचोंबीच काँच का ही एक दरवाजा लगा हुआ था जिसपर अंग्रेजी के बड़े अक्षरों में PULL लिखा हुआ था। बाहर से अंदर का कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा था।

उस दरवाजे पर बने हत्थे को अपनी तरफ खींचकर रमा ने उस कमरे में प्रवेश किया, जो शायद उनका निजी कमरा या दफ्तर था। कमरे में एक तरफ एक मेज लगी हुई थी और उसके पीछे एक आलीशान रिवाल्विंग चेयर थी। उस कुर्सी पर बैठकर रमा ने उसकी ऊँची पुश्त से पीठ टिकाकर अपनी आँखें मूंद लीं।

शायद थक गई थी रमा। थक तो साधना भी गई थी सो वह भी मेज के इस तरफ बिछी तीन कुर्सियों में से एक पर बैठ गई।नन्हा अमर काफी सहमा हुआ सा नजर आ रहा था और बार बार कुर्सी पर बैठी अपनी माँ का चेहरा ताके जा रहा था मानो पूछने का प्रयास कर रहा हो 'मम्मी ! हम यहाँ क्यों आये हैं ? हम यहाँ क्या कर रहे हैं ?' लेकिन उसके मुँह से एक भी शब्द नहीं निकल पा रहा था।

लगभग दो मिनट तक यही स्थिति बनी रही। फिर रमा अपनी नजरें साधना पर जमाते हुए बोली, "देखो .......!"
और फिर खुद पर ही झुँझलाते हुए बोली, "ओफ्फोह ! देखो मैं फ़िर भूल गई। क्या नाम बताया था तुमने अपना ? मुझे तो यह भूलने की बड़ी बीमारी है।"

साधना मुस्कुराई, "आंटी ! आपने पूछा ही नहीं और मैंने बताया भी नहीं ....! वैसे साधना ....साधना है मेरा नाम।"

"कमाल है न साधना ! हम बातें करते हूए इतनी दूर तक आ गए लेकिन न तुमने अपना नाम बताने की जरूरत समझी और न मैंने पूछने की जरूरत समझी।" कहते हुए रमा के चेहरे पर भी मुस्कान फैल गई थी।
अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वह बोली, "पता नहीं क्यों तुमको देखकर मुझे अपनी बेटी याद आ गई और बस इसी धुन में मुझे तुम्हारा नाम पूछने का ध्यान ही नहीं रहा।.. खैर ! छोड़ो उस बात को। ये देखो साधना ! इन कँटीले तारों के बीच बनी यह इमारत ही मेरी छोटी सी दुनिया है जहाँ तुम्हारी ही तरह जरूरत मंद लड़कियों को आसरा देने के लिए मैं हमेशा प्रयत्नशील रहती हूँ। तुम इसे अपना घर समझ कर यहाँ आराम से रह सकती हो।" कहते हुए रमा का चेहरा गंभीर हो गया।

साधना ने महसूस किया, जहाँ अभी कुछ देर पहले मुस्कान फैली हुई थी रमा के चेहरे पर, अपनी बेटी का जिक्र करते हुए वहाँ दर्द की एक हल्की सी लकीर खींच गई थी।
साधना की मुखमुद्रा भी गंभीर हो गई थी, "आंटी ! मैं आपकी बेटी के बारे में नहीं जानती, लेकिन वह बड़ी खुशकिस्मत रही होगी आप जैसी ममतामयी माँ की कोख से जन्म लेकर।"
दर्द की लकीर गहरा गई रमा के चेहरे पर। आँखों पर लगा चश्मा हाथों में लेकर दुपट्टे के कोने से पोंछते हुए बोली, "काश.. वह खुशकिस्मत होती.... ऐसा नहीं है साधना ! आखिर तक बदकिस्मत ही साबित हुई मेरी बच्ची ...!" और फिर उनकी निगाहें शून्य में कुछ घूरने लगीं।

साधना ने अमर से कहा, "बेटा जरा बाहर जाकर खेलो। मैं अभी आई। नानी से थोड़ी बात करनी है।"

नन्हा अमर मानो इसी आदेश के इंतजार में था। उसके जाते ही साधना अपनी जगह से उठ खड़ी हुई और रमा के नजदीक खड़े होकर बड़े अपनेपन से उनके कंधे पर हाथ रखकर कहा ,"आंटी ! अगर आपको बुरा न लगे तो मैं आपकी बेटी के बारे में जानना चाहती हूँ। अब कहाँ हैं वो ? कैसी हैं ? क्या हुआ था उनके साथ जो आप उन्हें बदकिस्मत कह रही हैं ? मैं समझ रही हूँ कि मैं आपके जख्मों को कुरेद रही हूँ लेकिन यह भी सत्य है कि जख्मों को ठीक करने के लिए मलहम लगाने से पहले उन्हें कुरेदना भी पड़ता है। वैसे भी मन का गुबार किसी के सामने निकाल देने से मन हल्का हो जाता है।"

अपने कंधे पर साधना का हाथ महसूस करके उसके हाथ को अपने हाथों में लेते हुए रमा भावुक हो गई।

वह बोली, "तुम ठीक कह रही हो बेटी ! मैं तुम्हें सब बताऊँगी उसके बारे में ...बैठो !"

साधना वापस आकर अपनी जगह पर बैठ गई। रमा ने बताना शुरू किया, "जूही ! नाम था उसका !"

अचानक बीच में ही टोकते हुए साधना बोल पड़ी, "था का क्या मतलब आंटी ? क्या जूही अब इस दुनिया में नहीं है ?"

"क्या कहूँ ? तुम पहले मेरी पूरी कहानी सुन लो और तब तुम्हीं बताना कि अब वह इस दुनिया में है कि नहीं !" साधना को समझाते हुए रमा ने आगे अपनी कहानी जारी रखी, "विवाह के पाँच बरसों बाद ईश्वर की यह अनमोल सौगात पाकर हम बहुत खुश थे। हमारी सूनी बगिया जूही की खुशबू से महक गई थी। हम पूरे मनोयोग से उसका पालन पोषण कर रहे थे । उसकी प्यारी प्यारी बातें सुनकर हमें संसार की सारी खुशियाँ मिल जाने का अनुभव होता । हमारा कारोबार भी बहुत अच्छा चल रहा था । हमारा गारमेंट एक्सपोर्ट का बहुत बड़ा व्यापार था । बहुत सारे क्लाइंट थे । धीरे धीरे हमारा व्यापार कई देशों में फैल गया था । अकेले मोहन जी यह सारा व्यापार सँभाल पाने में खुद को असमर्थ पा रहे थे । उन्होंने अपने बचपन के मित्र शाकिर को अपनी मदद के लिए बुला लिया और बाकायदा उसे पच्चीस प्रतिशत का पार्टनर बना दिया । शाकिर आकर्षक व्यक्तित्व का हँसमुख , समझदार व मेहनती था । बहुत जल्द उसने व्यापार की सारी जिम्मेदारियां सँभाल लिया । अब मोहन जी को कभी कभार जो भी वक्त मिल पाता , वह मेरे और जूही के साथ बिताना पसंद करते थे । बड़े मजे से हमारा वक्त गुजर रहा था । जूही तब पाँच वर्ष की हो गई थी जब बदकिस्मती ने हमारे द्वार पर दस्तक दिया था । एक दिन अचानक शाकिर ने हमसे सारे संबंध तोड़ कर अपना खुद का व्यवसाय शुरू करने की घोषणा कर दी । व्यवसाय की सारी बारीकियाँ सीखने के साथ ही उसने हमारे सभी ग्राहकों से निजी संबंध विकसित कर लिए थे । उसका हँसमुख व प्रभावशाली व्यक्तित्व उसके लिए काफी सहायक साबित हुआ । धीरे धीरे व्यापार कम , कम और कम होता गया । मोहन जी अक्सर तनावग्रस्त रहने लगे । अपनी बरबादी की वजह वह शाकिर को ही मानते थे और अपने मित्रों के उकसावे पर पूरे मुस्लिम समुदाय से नफरत करने लगे । समय बीतता गया। इस घटना को लगभग दस बरस हो चुके थे । मोहन ने अपना व्यापार फिर से सँभाल लिया था और अपने काम में व्यस्त हो गए थे लेकिन अपने दिल से वह शाकिर की गद्दारी को नहीं भूला पा रहे थे ।
जूही अब अठारह वर्ष की हो चुकी थी । शहर के प्रतिष्ठित कॉलेज से इसी साल उसने बारहवीं की परीक्षा उत्तीर्ण कर के बीकॉम के प्रथम वर्ष में दाखिला ले लिया था । उसके कमरे में कॉलेज की किताबें चेक करते हुए एक दिन एक किताब में एक आकर्षक लड़के की तस्वीर देखकर मेरा माथा ठनका । ' ये क्या है ? हमारे लाड़ प्यार का यही नतीजा है ? ' मेरी जगह कोई भी माँ होती तो उसे यह देखकर गुस्सा अवश्य आता सो मेरा भी गुस्सा होना स्वभावीक था लेकिन फिर शांति से विचार करके यह फैसला किया कि अब वह बड़ी हो गई है , उसे डाँटना फटकारना मुनासिब नहीं लेकिन उसे समझाया जा सकता है कि अभी उसे मेहनत करके अपना भविष्य बनाना आवश्यक है । पढ़लिख ले , कुछ बन जाये फिर शादी उसकी पसंद से ही हो जाएगी । मैंने तस्वीर बड़े ध्यान से देखी । उसकी पसंद इतनी बुरी भी नहीं थी ।
दो दिन बाद शाम को मौका देखकर मैंने जूही से इस बारे में बात छेड़ दी और सीधे सीधे उस लड़के के बारे में पूछ लिया ।
जूही ने भी बिना किसी लागलपेट के बताया कि वह उसीके कॉलेज में बीकॉम अंतिम वर्ष का छात्र है और पढ़ाई में हमेशा अव्वल आता है । गणित के जटिल प्रॉब्लम वह चुटकियों में हल कर देता था । कुछ नोट्स लेने के फेर में हुई जानपहचान कब प्यार में बदल गई वह खुद भी नहीं समझ पाई थी । मुझे उससे कोई कोई ऐतराज नहीं था । लेकिन आगे उसका और परिचय जानकर मेरे पैरों तले से जमीन खिसक गई । मुझे लगा मुसीबतों का पूरा पहाड़ मेरे ऊपर टूट पड़ा हो । जूही ने बताया था वह शहर के मशहूर वकील कासिम आजमी का इकलौता बेटा बिलाल आजमी था । हे भगवान ! मुझे काटो तो खून नहीं और ये अवस्था इसलिए नहीं थी कि मुझे उससे कोई नफरत थी बल्कि मैं तो यह सोचकर सिहर गई थी कि जब मोहन इस बारे में जानेंगे तब कैसा व्यवहार करेंगे ? उनकी मुस्लिम समुदाय से नफरत से मैं और शायद जूही भी अनजान नहीं थी । अब क्या होगा ? कैसे होगा ? यही सबसे बड़ा सवाल था हमारे सामने । जूही को ही ऊँचनीच समझाने के अलावा मेरे पास और कोई दूसरा रास्ता भी तो नहीं था । लेकिन वही हुआ जिसका मुझे डर था । जूही को कुछ नहीं समझना था सो उसने मेरी बात सुनना भी पसंद नहीं किया ।
दिन बीतते रहे । मैं अक्सर जूही को मौका देखकर समझाती रही , उसे अपने और पिता के मान सम्मान का वास्ता देती रही । हरसंभव प्रयास करती रही कि वह उस लड़के से किनारा कर ले , लेकिन नतीजा वही । डर के मारे मैंने मोहन जी से यह बात नहीं बताई थी ।
दो साल और बीत गए । एक दिन दबे पाँव भूचाल हमारे घर में आ धमका ।

क्रमश :