ममता की परीक्षा - 94 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ममता की परीक्षा - 94



साधना ने चौंककर श्रीमती भंडारी की तरफ देखा। हल्के गुलाबी रंग का सूट, सुनहरे फ्रेम का चश्मा, गुलाबी रंगत लिए हुए कान्तियुक्त तेजस्वी चेहरे की मालकिन श्रीमती भंडारी के व्यक्तित्व में गजब का आकर्षण था। उम्र के साठ बसंत देख चुकी श्रीमती भंडारी को देखकर सहज ही उनकी उम्र का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता था। कुछ पल तक साधना खामोशी से आँखों ही आँखो में उन्हें परखती रही, फिर धीरे से बोली, "जी, आपने सही समझा है। मैं पड़ोस के देहात से हूँ। रोजी रोटी की तलाश में आज ही यहाँ पहुँची हूँ। देखते हैं, किस्मत कहाँ लेकर जाती है।" कहकर उसने गहरी साँस ली।

"ओके ! कोई और है तुम्हारे साथ ?" कहते हुए भंडारी की निगाहें एक सवालिया निशान के साथ साधना के चेहरे पर टिक गईं।

"जी नहीं !" साधना का बहुत ही संक्षिप्त जवाब था।

साधना को एक तरह से परखते हुए श्रीमती भंडारी ने पूछा, "तुम्हें पता भी है कि शहर में किसी अकेली महिला का रहना कितना मुश्किल होता है ?.. और वो भी तुम्हारे जैसी खूबसूरत और जवान महिला के लिए ?"

साधना मुस्कुराई और बोली, "क्या मैं आपको आंटी बुला सकती हूँ ?"

"हाँ हाँ ! क्यों नहीं ? तुम बिल्कुल मेरे बच्चे की उम्र की हो। मुझे खुशी होगी।" श्रीमती भंडारी मुस्कुराई थीं।

"ओके ! थैंक यू आंटी !" एक मोहक मुस्कान के साथ ही साधना के चेहरे पर अब दृढ़ता भी साफ दिख रही थी, "मैं जानती हूँ आंटी कि चाहे गाँव हो या शहर ये समाज किसी भी अकेली महिला को आजादी से चैन की जिंदगी नहीं जीने दे सकता। लेकिन मैं अकेली नहीं हूँ आंटी ! मेरे साथ मेरे पिताजी का आशीर्वाद है, उनके दिए गए संस्कार हैं और इन सबके साथ ही मेरा हौसला और जिंदगी से लड़ने का मेरा अनुभव भी मेरे साथ है। ईश्वर ने चाहा तो बहुत जल्द ही मैं अपनी राह बना लूँगी।"

साधना की आत्मविश्वास से भरी बातें सुनकर श्रीमती भंडारी मुस्कुराई। बड़े ही अपनेपन व प्यार से साधना के कंधे पर हाथ रखते हुए बोलीं, "बहुत बढ़िया बेटी ! तुम्हारे आत्मविश्वास की मैं कदर करती हूँ लेकिन ये तो जानती हो न कि अति आत्मविश्वास कितना घातक होता है ?"

"आंटी ! ज्यादा विचार तो उसे करना होता है जिसके पास कुछ खोने के लिए हो। मेरे पास खोने के लिए क्या है ? खाली पेट और खाली जेब अभी इस शहर में आई हूँ। प्रयास करूँगी और कहीं कामयाब हो गई तो मेरा पेट भी भर जाएगा और जेब भी, नहीं तो इस समय फ़क़ीर तो मैं हूँ ही ....!" साधना ने किसी दार्शनिक के से अंदाज में कहा तो श्रीमती भंडारी वाह वाह कर उठीं।

"बेटा ! दिल जीत लिया तुमने मेरा। खाली जेब और खाली पेट भी तुममें गजब का आत्मविश्वास है और जिसके अंदर आत्मविश्वास इस कदर कूट कूट कर भरा हो तो ईश्वर को भी उसकी मदद करनी ही पड़ती है। मैं मिसेज भंडारी के नाम से मशहूर हूँ लेकिन मेरा नाम रमा भंडारी है। यहीं नजदीक ही एक महिला आश्रम जिसका नाम 'अहिल्याबाई महिला कल्याण आश्रम' है की मैं संचालिका हूँ। तुम चाहो तो मैं तुम्हारी मदद कर सकती हूँ।" कहने के बाद जवाब की प्रतीक्षा में रमा ने साधना की तरफ देखा।

साधना ने अविश्वास से उसकी तरफ देखा। इस तरह अचानक मदद की पेशकश से वह थोड़ा सावधान हो गई। रमा भंडारी का बेहद प्रभावशाली व्यक्तित्व अब उसके संदेह के घेरे में आकर रहस्यमय बन गया था। वह तय नहीं कर पा रही थी क्या जवाब दे ...। उसके दिल और दिमाग के बीच बहस छिड़ा हुई थी।
उसके दिल ने कहा 'सोच क्या रही है तू ? इतना अच्छा मौका आया है खुद चलकर तेरे पास और तू है कि उसपर भी शक किये जा रही है जो तुझ पर तरस खाकर तेरी मदद करना चाहता है ? बेवकूफ है तू ! इस अनजान शहर में तुझे किसी न किसी पर भरोसा तो करना ही पड़ेगा। फ़िर इसी में क्या बुराई है ? अगर इसपर भरोसा नहीं किया तो किसको पता कि कोई दूसरा इससे अधिक भरोसेमंद मिल ही जायेगा ? और वैसे भी कौन सा उसपर भरोसा करके तेरी पूँजी लूट जानेवाली है ? हाँ सजग तो हमेशा ही रहना होगा।'

दिमाग के ऐतराज के बावजूद उसके दिल ने रमा भंडारी के प्रस्ताव का समर्थन कर दिया था।
दिल ने आज फिर दिमाग को धता बता दिया था और एक बार फिर अपना वर्चस्व साबित करने में कामयाब हो गया था।

साधना रमा से मुखातिब होते हुए बोली, "आंटी ! नेकी और पूछ पूछ ! अब बताइये भला अँधा क्या माँगे ....दो आँख ही न ..! मुझे मदद की दरकार तो है ही इस समय और अगर आपका ही आशीर्वाद मिल जाय तो भला मुझे क्या आपत्ति होगी ? आप जो भी काम मुझे देंगीं मैं पूरी निष्ठा से उसे पूरा करने का प्रयास करूँगी।"

"तो फिर ठीक है ! चलें ?" कहते हुए रमा उठ खड़ी हुई।

"जी एक मिनट !" कहने के बाद साधना ने अमर को आवाज दी जो अभी तक एक झूले पर झूल रहा था। उसके आते ही साधना भी उठकर रमा के साथ चलने के लिए तैयार हो गई। नन्हें अमर ने पास खड़ी रमा पर सवालिया निगाह डालते हुए साधना से पूछा, " मम्मी ! ये बूढ़ी अम्मा कौन हैं ? क्या ये मेरी नानी हैं ?"

इससे पहले कि साधना उसे कुछ जवाब देती पास ही खड़ी रमा ने प्यार से उसके बालों में हाथ फेरते हुए कहा, "हाँ बेटा ! मैं तेरी नानी ही हूँ।"
फिर साधना से मुखातिब होते हुए बोली, "बड़ा प्यारा बच्चा है। कितने साल का हुआ ?"
"जी पाँचवाँ साल चल रहा है।" अमर का हाथ थामे रमा के साथ चलती हुई साधना ने संक्षिप्त सा जवाब दिया।
बगीचे से निकलकर साधना अमर के साथ रमा के पीछे पीछे चल पड़ी।

सड़क पार करके शहर से विपरीत दिशा की तरफ लगभग दस मिनट चलने के बाद साधना ने खुद को एक बड़ी सी इमारत के सामने खड़ी पाया। इमारत के बगल में जमीन का एक बड़ा टुकड़ा मैदान के रूप में विकसित किया गया था। यह मैदान कँटीले तारों से घिरा हुआ था। दुमंजिली इमारत का मुख्य दरवाजा अभी खुला हुआ ही था लेकिन भारीभरकम लोहे के दरवाजे को देखकर ही यह आभास हो रहा था कि इसका इस्तेमाल इमारत में रहनेवालों पर अंकुश लगाए रखने में अवश्य किया जाता होगा।

मन में उठे विचारों को झटकते हुए साधना फिलहाल रमा पर अपना ध्यान केंद्रित किये हुए थी। मुख्य दरवाजे से अंदर प्रवेश करने के बाद साधना को उस ईमारत की विशालता का अनुभव हुआ। अंदर लगभग दो सौ फीट लंबी और इतनी ही चौड़ी वर्गाकार खुली ऑंगन नुमा जगह थी और इस ऑंगन के चारों तरफ करीने से दुमंजिला इमारत शान से खड़ी थी जिसमें ऑंगन की तरफ खुलने वाले मुख्य दरवाजों से युक्त कमरे करीने से बने हुए थे। इमारत के चारों कोनों से दूसरी मंजिल पर जाने के लिए घुमावदार सीढियाँ सुनियोजित तरीके से बनी हुई थीं।

साधना ने उस विशाल आँगन नुमा जगह में पहुँच कर चारों तरफ का जायजा लिया। वहाँ से निकलने का एक मात्र रास्ता वही था जहाँ से वह अभी घुस रही थी। उस ऑंगन नुमा मैदान में कई महिलाओं का समूह अपना अपना कार्य शुरू करने की तैयारी कर रहा था। कुछ महिलाएँ ऊन और क्रोशिये लेकर बुनाई का कार्य आरंभ करने जा रही थीं तो वहीं कुछ महिलाएँ अखबारों व रद्दी कागजों के ढेर में से कागजों को सही करके उनसे कागज के थैले बनाने का कार्य आरंभ करने जा रही थीं। कुछ अपने अपने चरखे लिए चटाई बिछाकर कपास से सूत बनाने की शुरुवात करने जा रही थीं। ऊपर के कमरों में से भी कहीं कहीं कुछ खटर पटर की आवाजें आनी शुरू हो गई थीं। चारों तरफ का जायजा लेती हुई साधना रमा भंडारी का अनुसरण करती उनके पीछे पीछे ही चल रही थी। अंदर घुसते ही बायीं तरफ़ के कोने में ऊपर जानेवाली सीढ़ियों के बगल में एक बड़े से कमरे के सामने दरवाजे के बगल में एक शानदार तख्ती लगी थी जिसपर लिखा था 'श्रीमती रमा मोहन भंडारी
संचालिका - अहिल्याबाई महिला कल्याण आश्रम '

क्रमशः