(31)
नंदिता को गुस्सा आ रहा था। उसे लग रहा था कि सिर्फ मकरंद की वजह से उसे इतना सुनना पड़ रहा है। अगर उसे बात बुरी लगी थी तो उसे ज़ाहिर करने का यह क्या तरीका हुआ। उसे रुकना चाहिए था। जब वह ऊपर जाती तो बात करनी चाहिए थी। अब वह क्या करे ? कहाँ ढूंढ़े उसे ? फोन भी लेकर नहीं गया है। पता नहीं किस हाल में होगा ? उसने सोचा कि जब मकरंद लौटकर आएगा तो उससे पूछेगी कि उसने ऐसा क्यों किया।
नंदिता के पापा ने कहा,
"अब तो बहुत देर हो गई है ? बताओ क्या करें ? कुछ तो करना होगा ?"
नंदिता खुद समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे। उसकी मम्मी ने कहा,
"अजीब मुसीबत में डाल दिया है हमें। हम कर भी क्या सकते हैं। अब उसकी तलाश में दर दर भटकते तो फिरेंगे नहीं। कुछ ना करें तो भी अच्छा नहीं लगेगा।"
नंदिता को सारी बातें बहुत चुभ रही थीं। उसका सारा गुस्सा मकरंद पर था। उसने कहा,
"सच कह रही हैं मम्मी। उसके लिए दर दर भटकेंगे तो है नहीं। पापा आप गेट पर ताला लगा दीजिए। चाभी मुझे दे दीजिए। आएगा तो मैं खोल दूँगी। आप लोग आराम कीजिए।"
नंदिता के पापा ने कहा,
"आराम कहाँ मिलेगा। अभी पुलिस स्टेशन भी नहीं जा सकते हैं। एक यही तरीका है कि कुछ और देर उसकी राह देखें। जगते हैं सब लोग रात भर।"
नंदिता कुछ नहीं बोली। उसकी मम्मी ने कहा,
"हम लोगों ने तो डिनर भी नहीं किया। तुम भी बिना खाए बैठी हो। चलकर खाते हैं। हो सकता है तब तक लौट आए।"
नंदिता का मन तो नहीं था पर वह अपनी मम्मी की बात टाल नहीं पाई। सब डिनर के लिए उठ रहे थे तभी किसी ने गेट खटखटाया। तीनों लोग बाहर गए। एक आदमी था। उसके साथ मकरंद भी था। मकरंद के दाएं हाथ पर पट्टी बंधी हुई थी। पैंट दाएं घुटने के पास फट गई थी। वहाँ भी पट्टी बंधी थी। उसके साथ आए आदमी ने कहा,
"मेरी दुकान के सामने एक पिल्ले को बचाने के चक्कर में इनकी बाइक फिसल गई। इन्हें चोट लग गई थी। मैंने पास की क्लीनिक में ले जाकर फर्स्ट एड दिलवा दी। वैसे हाथ पैर में थोड़ा सा छिल गया है। कोई परेशानी वाली बात नहीं है। मैं इनकी बाइक से इन्हें छोड़ने आया हूँ।"
नंदिता ने आगे बढ़कर मकरंद को सहारा दिया। उस आदमी ने बाइक अंदर खड़ी कर दी। जब वह चलने लगा तो नंदिता ने कहा,
"आपका बहुत बहुत धन्यवाद। आपने बहुत मदद की।"
"जी धन्यवाद करने की कोई बात नहीं है। मैं दुकान बंद करके जाने की तैयारी कर रहा था जब यह हुआ।"
नंदिता के पापा ने कहा,
"आप अपने घर कैसे जाएंगे।"
"मेरा सहायक मेरा स्कूटर लेकर यहाँ तक आ गया था। वह बाहर खड़ा है। अब मैं अपने स्कूटर से चला जाऊँगा।"
नंदिता के मम्मी पापा ने भी उसे धन्यवाद दिया। मकरंद ने कहा,
"आपने जो डॉक्टर को फीस दी है वह तो ले लीजिए।"
उसने नंदिता को इशारा किया। नंदिता पैसे लेने ऊपर जाने लगी तो उसके पापा ने कहा,
"रहने दो। मैं दे दे रहा हूँ।"
यह कहकर वह अंदर से अपना वॉलेट ले आए। उस आदमी को पैसे देकर विदा कर दिया।
नंदिता सहारा देकर मकरंद को ऊपर ले गई। उसे बिस्तर पर बैठा दिया। उसके बाद किचन में जाकर उसके लिए हल्दी वाला दूध तैयार किया। दूध लाकर उसने मकरंद को पकड़ा दिया। वह उसके पास बैठ गई। मकरंद सोच रहा था कि शायद नंदिता उससे कुछ कहे। लेकिन वह चुपचाप बैठी थी। मकरंद चुपचाप दूध पीने लगा। नंदिता का फोन बजा। उसकी मम्मी का फोन था। उन्होंने उससे कहा कि वह और उसके पापा खाना खाने जा रहे हैं। वह भी नीचे आ जाए। लेकिन नंदिता ने मना कर दिया।
मकरंद दूध पी चुका तो नंदिता ने कहा,
"सुबह की सब्जी रखी है। रोटी सेंक देती हूँ।"
"मुझे भूख नहीं है।"
नंदिता ने उसे घूरकर देखा लेकिन बोली कुछ नहीं। मकरंद ने कहा,
"तुम नीचे क्यों नहीं चली गईं खाना खाने।"
नंदिता ने गुस्से से कहा,
"मेरे नीचे चले जाने का गुस्सा तो तुमने ऐसे निकाला है। अब दोबारा जाती तो पता नहीं क्या करते।"
मकरंद ने शांत भाव से कहा,
"नंदिता अब हमारे बीच बात नहीं सिर्फ झगड़ा होता है। उस दिन तुम्हारी मौसी ने और आज तुम्हारी मम्मी ने ताना मारा। उनके हिसाब से अगर मैं नीचे जाता तो उनकी बेइज्जती करा देता। तुम भी उनकी बात को सच मानते हुए अकेली नीचे चली गई।"
"अगर मैंने साथ आने को कहा होता तो क्या तुम तैयार हो जाते।"
"हो तो यह भी सकता था कि तुम नीचे ना जाती। मेरा इतना मान तो रख लेती। पर आजकल तुम्हें मेरी कोई परवाह ही नहीं है।"
नंदिता चिढ़ गई। तेज़ आवाज़ में बोली,
"तुम्हें जैसे मेरी बड़ी परवाह है।"
मकरंद ने कहा,
"अच्छा हो कि हम अपनी आवाज़ पर काबू रखें। नहीं तो तुम्हारे पापा मम्मी डिस्टर्ब होंगे।"
"तो अब तुम ही देखो ना झगड़ा बढ़ाने वाली बात कौन करता है। तुम कह रहे हो कि मुझे तुम्हारी परवाह नहीं है। अपने आप को देखो। तुम्हें मेरी कितनी परवाह है। बिना कुछ बोले घर से निकल गए। तब नहीं सोचा कि मैं परेशान होऊँगी। अगर मेरी परवाह होती तो यह सोचकर खुश होते कि इस हालत में मैं अपनें पापा मम्मी के साथ हूँ। वह मेरी देखभाल कर रहे हैं। उनका एहसान मानते। उनके साथ बनाकर रखते। पर तुम उनके किए धरे को नकार कर उनसे मुंह फुलाए रहते हो। इसका क्या मतलब हुआ ?"
मकरंद ने कहा,
"तुम्हारे कहने का मतलब है कि हर बात के लिए मैं ही दोषी हूँ।"
"रहने दो मकरंद। तुम सच कह रहे थे कि हमारे बीच सिर्फ झगड़ा हो सकता है बातचीत नहीं। क्योंकी तुम्हें कुछ सुनना ही नहीं है। बेहतर है हम दोनों सो जाएं। नहीं तो बात बढ़ेगी। इतनी रात में आवाज़ सिर्फ नीचे ही नहीं आस पड़ोस में भी पहुँचेगी।"
यह कहकर नंदिता उठी। उसने लाइट बंद कर दी और बिस्तर के एक तरफ लेट गई। कुछ देर बैठे रहने के बाद मकरंद भी लेट गया।
नंदिता और मकरंद दोनों ही जाग रहे थे। नंदिता सोच रही थी कि उसके पापा का कहना सही है। मकरंद को चुनने का उसका फैसला गलत साबित हुआ। मकरंद सिर्फ अपने हिसाब से सोचता है। शुरू से ही वह यहाँ आने के पक्ष में नहीं था। बेवजह के तर्क दे रहा था। बड़ी मुश्किल से आने को तैयार हुआ। यहाँ आने पर भी ठीक से एडजस्ट करने को तैयार नहीं है। अपने अहम के चलते उसके मम्मी पापा की भी अनदेखी कर रहा है।
उसका अपना परिवार नहीं है। इसलिए समझ नहीं पा रहा है कि परिवार क्या होता है। उसके मम्मी पापा उसकी इतनी देखभाल करते हैं। लेकिन वह बेवजह की बातें करता है। चाहता है कि वह अपने मम्मी पापा के घर रहते हुए भी उनसे कोई संबंध नहीं रखे। पर वह तो अपने मम्मी पापा से संबंध रखेगी। वह उसके मम्मी पापा हैं और उसकी भलाई ही सोचते हैं।
मकरंद को बुरा लग रहा था कि नंदिता ने एक बार भी उससे यह नहीं पूछा कि दर्द तो नहीं है। यह देखने की कोशिश नहीं की कि उसे कितनी चोट लगी है। वह बस अपने मम्मी पापा को सही और उसे गलत ठहराने में लगी थी। वह सोच रहा था कि इतने पर भी कहती है कि वह उसकी परवाह नहीं करता। उसकी परवाह करता था तभी तो इच्छा ना होते हुए भी यहाँ आने को तैयार हो गया। उसे लगा था कि इस हालत में कोई ऐसा होना चाहिए जो नंदिता की देखभाल करे। उसके कारण ही यहाँ रहते हुए बहुत सी बातों को बर्दाश्त कर रहा है। वह चोट खाकर घर लौटा था। लेकिन नंदिता के पापा मम्मी ने उसे दो शब्द भी नहीं कहे। उसकी मम्मी ने फोन करके सिर्फ नंदिता को खाने के लिए बुलाया। यह नहीं पूछा कि उसकी तबीयत कैसी है। इतने पर भी नंदिता को लगता है कि वह गलत है।
देर रात तक दोनों इसी तरह सोचते हुए सो गए।
मकरंद जब सोकर उठा तो चोट वाली जगह पर दर्द था और हल्का बुखार भी महसूस हो रहा था। नंदिता बेडरूम में नहीं थी। मकरंद उठा और वॉशरूम में गया। कुछ देर में फ्रेश होकर बाहर निकला। वह लॉबी में आया तो नंदिता वहाँ भी नहीं थी। उसकी हिम्मत कुछ करने की हो नहीं रही थी। वह वापस जाकर लेट गया।
कुछ देर में नंदिता बेडरूम में आई। मकरंद को जागा हुआ देखकर उसने कहा,
"अब कैसी तबीयत है ?"
मकरंद ने कहा,
"चोट वाली जगह पर दर्द है और हल्का बुखार भी है।"
"कल डॉक्टर ने कोई दवा तो दी नहीं थी।"
"नहीं सिर्फ घाव साफ करके पट्टी बांधी थी।"
नंदिता ने कुछ सोचकर कहा,
"मेरे साथ चलो। मैं डॉक्टर को दिखा कर लाती हूँ। दवा खाओगे तो जल्दी ठीक हो जाओगे।"
मकरंद को लग रहा था कि नंदिता की बात सच है। अगर दवा नहीं ली तो तकलीफ बढ़ जाएगी। आज तो ऑफिस जा नहीं सकता है। कल भी छुट्टी लेनी पड़ेगी। वह तैयार हो गया। नंदिता ने कहा,
"मेरी स्कूटी में बैठ कर चल पाओगे।"
"ऐप से ऑटो बुक करवा लो। उसमें आराम रहेगा।"
नंदिता ने ऑटो बुक करा दिया। कुछ देर में ऑटो आ गया। नंदिता मकरंद को सहारा देकर नीचे लाई। उसके पापा गेट पर खड़े थे। उन्होंने कहा,
"बैठे बैठाए मुसीबत खड़ी कर दी। अब तुम परेशान हो रही हो।"
नंदिता ने कुछ नहीं कहा। उसने मकरंद को ऑटो में बैठाया। खुद भी बैठ गई। ऑटो आगे बढ़ गया।
नंदिता के पापा के शब्दों ने मकरंद को एक बार फिर चोट पहुँचाई थी।