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निर्वासित

हमेशा की तरह राधे बाबू ने दुकान का शटर ऊँचा किया और दहलीज को छू कर दोनों हाथ जोड़ माथे से लगा लिये। अन्दर आ दीवार में बने आले में लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियों के आगे जलती हुई अगरबत्ती दो बार घुमा अगरबत्ती स्टेण्ड में खोंस दी। फिर एक डन्डे पर फटी हुई बनियान बांध कर खुद के बनाये झाड़न से आलों में रखे सामान पर से धूल झाड़ने लगे। सफाई के बाद वे कागज पर हिसाब-किताब लिखते हैं लेकिन आज उनके मन में क्रोध मिश्रित दुख था। बात कुछ खास नहीं थी, मीनाक्ष्ी नहाने के लिये गुसलखाने में घुसी तो एक घण्टे तक बाहर न निकली, अन्दर से उसके गाने की आवाज आ रही थी।

“सावित्री, अपनी लाडली से पूछो कल तक तो आ जायेगी न बाहर?“

“क्या है जी, कैसी बातें करते हैं“ सावित्री हाथ में करछुल लिये रसोईघर से बाहर निकली, “अब कोई गुसलखाने में जायेगा तो नहाकर ही निकलेगा ना, कहाँ जाना है आपकेा ? बैठो थोड़ी देर शान्ति से“ कहकर बड़बड़ाती हुई वापस रसोई में चली गई। “बड़ा मेला लगा है न ग्राहकों का“ धीमे स्वर में कहे गये अंतिम शब्द उन्हें सुनाई दे गये थे। मन खराब हो गया सवेरे-सवेरे।

यह सच है कि उनकी दुकान पर कभी कोई ग्राहक नहीं देखा गया, पर जिस घर में उनकी उपस्थिति से परिवार को असुविधा हो उस घर से कुछ समय के लिये दूर होने के लिये यह सर्वथा उपयुक्त स्थल था। आधा घण्टा और इंतजार करना पड़ा तब जाकर मीनाक्षी गुसलखाने से बाहर निकली। उसके माथे पर बड़े बल साफ दिखाई दे रहे थे, उसने क्रोध भरी नजर राधे बाबू पर डाली और पैर पटकती रसोई में सावित्री के पास पहुंच गई।

“क्यांे अम्मा, ये बाबूजी को जाना कहां है जो घर में शोर मचा रखा है ? अब कोई इत्मीनान से नहाये भी नहीं ?“

“अब हम क्या बतायें, हम तो खुद परेशान हैं“ सावित्री ने स्वर मद्धम कर लिया, “अभी आते होंगे खाना न मिला तो चिल्लाएंगे।“

“नहीं, हम क्यों चिल्लाएंगे, तुम दो घण्टे बाद बनाना खाना“ राधे बाबू ने गुसलखाने में जाते-जाते शायद सुन लिया था, “आदतें बिगाड़ी हुई हैं तुमने सबकी, दो-दो घण्टे गुसलखाने में बितायेंगी, यह नहीं कि मां का हाथ बंटा दें रसोई में। “नजरे आंगन के कोने में रखी चारपाई पर चादर लपेटे पुत्र पर पड़ी, “एक वो नवाब हैं, सूरज सिर पर आ गया है, पर पड़े हैं आराम से, हम इनके जितने थे तो अब तक घर के सौ काम निपटा देते थे“ कह कर गुसलखाने का दरवाजा बंद कर दिया।

“लो अब सुनील की शायत आई“ मीनाक्षी भाई के पास पहुँच गई, “हमारी तो गुड माॅर्निंग हो गई, अब तुम क्यों करवाने पर तुले हो, उठते क्यों नहीं ?“

“क्या आफत है“ बड़बड़ाता सुनील चादर तकया समेट अन्दर कमरे में चला गया, जाते-जाते रसोई में झांक सावित्री की ओर आंख से इशारा कर पिता के बारे में पूछा, उसने बुरा सा भाव चेहरे पर ला माथे पर हाथ मार गुसलखाने की ओर इशारा किया। राधे बाबू ने गुसलखाने से बाहर आ तौलिया आंगन में बंधी तनी पर डालना चाहा, पर वहां पहले से ही मीनाक्षी अपने कपड़े फैला गई थी। इधर-उधर देख दीवार पर लटका दिया। अंदर आ दीवार पर टंगे कैलेण्डर के आगे खड़े हो नित्यनेम का पाठ करने लगे।

“खुद की तो पाठ-पूजा ही दोपहर को होती है“ कमरे से मीनाक्षी की फुसफसाहट के बाद दोनों भाई-बहन की दबी हंसी सुनाई दी। “हां, होती है दोपहर को पूजा-आरती क्यांेकि तुम्हारे जैसा निठल्ला जवान बेटा दोपहर तक सोया रहता है और मुझे दूध, सब्जी सब लाना पड़ता है।“ पाठ बीच में ही छूट गया राधे बाबू का।

“बस, बस!“ सुनील एकदम से उछल पड़ा “अब फिर से शुरू हो जायेंगे, तुम्हारी उम्र में हम यह करते थे, वह करते थे। अगर सब्जी ले आओ तो पसन्द नहीं आयेगी। बाहर निकलेंगे तो किसी से दुआ-सलाम हो जाती है, दस मिनट भी ऊपर हो जाये तो आते ही दीवार घड़ी की तरफ देख कर अपराधी बना देते हैं“ सुनील बिना रूके बोलता गया “और पता है मीनाक्षी कल कहते है कि इतनी मंहगी बेमोंसम की सब्जी क्यों लाये अब तीन दिन सिर्फ आलू बनेंगे राधे बाबू दीवार की तरफ मुंह कर अपने आप को जब्त करते रहे। उन्हें पता है कि अगला हमला उनकी अखबार पर होगा सुनील को उनका अखबार मंगाना फिजूल खर्ची लगता है, जब भी वे कुछ संभलकर खर्च करने की सलाह देते है तो सबसे पहले उन्हें अखबार बंद करने की सलाह दी जाती है। जिन्दगी भर अखबार नहीं खरीदी, कारखाने में लंच के समय कैन्टीन में आई गुजराती भाषा की अखबार पड़ते रहे। अब दुकान पर इत्मीनान से पढ़ते हैं तो वो भी इन्हें अच्छा नहीं लगता। खुद पता नहीं क्या करते हैं, सारा दिन उस लफंगे राकेश के साथ घूमते रहते है, एक वो मीनाक्षी है, दो-चार ट्यूशन पढ़ाती है और सारा अपने कपड़े-जूतों पर खर्च कर लेती है, एक बार सावित्री से पूछा था कि उसे भी कुछ देती है या नहीं, तो वह फट पड़ी “तुमही पूछ लो“, अभी खुद पढ़ रही है और पढ़ा भी रही है हमसे तो कुछ नहीं मांगती “सावित्री ने आंखेां पर पल्लू रख पुत्री पर दया दिखाई। उसके बाद राधे बाबू ने फिर नहीं पूछा। इस तकरार के बाद उनका मन खट्टा हो गया, उन्हें सावित्री पर गुस्सा आया कि वह तो बच्चों को पिता का डर दिखाए, उन्हें याद आया कैसे बचपन में दोनों भाई बहिन उनसे डरते थे और सावित्री उन्हें हमेशा कहती थी,

“शैतानी मत करो, बाबा को गुस्सा आ जायेगा“ और खुद भी डरने का अभिनय करती, तब वे हंस कर सावित्री के पीछे छुपे सुनील-मीनक्षी को खींच कर गले से लगा लेते थे। राधे बाबू बिना खाये-पिये दुकान पर आ कर बैठ गये। यह भी सच है कि उनकी दुकान पर कभी कोई खरीददार नहीं आया पर उनके लिये यह एक छुपने का ठौर था, जहां बैठकर वे दीवार के पीछे वाले संसार से पीछा छुड़ा लेते थे। राधे बाबू के परिवार में हमेशा ऐसी झड़प नहीं होती थी।

राधे-बाू यानि राधेश्याम शर्मा जब ग्यारहवीं पार कर काॅलेज में प्रवेश के लिये सोच रहे थे, तब एक दिन उनके बाऊजी के परममित्र जगदीश चाचा ने, जो उन दिनांे गुजरात से आने पर उनसे मिलने आये थे, चाय पीते-पीते पूछा,

“यार तुमने राधेश्याम के बारे में क्या सोचा है ? आगे पढ़ाओगे ?“

“अब सारा दिन घर भी तो नहीं बैठा सकते, पढ़ना चाहते हैं तो पढ़ें।“ बाऊजी नेपुत्र की ओर देखा।

“मैं जहां काम करता हूँ, उस कारखाने में जरूरत है, मेरे साथ भेज दें।“ तब घर के हालात भी कुछ ठीक नहीं थे “तुम इसका ख्याल रखोगे, यह सोचकर निश्चिंत हूँ। इसकी मां से सलाह कर लूं।“

फिर चार दिन बाद मां के हाथ के बने बेसन के लड्डू पीतल के कटोरदान में ले जगदीश चाचा के साथ गुजरात के छोटे शहर सुन्दर नगर आ गये। शाह भरत लाल केशु भाई मिल में उन्हें स्टोर का काम सीखने के लिये एक वरिष्ठ कर्मचारी के साथ रख लिया गया। शुरू-शुरू में बाऊजी-मां की बहुत याद आती थी, फिर धीरे-धीरे मन रम गया। गुजराती समुदाय आधुनिकता के साथ अपनी जड़ों से भी जुड़ा था। संध्या समय महिलाएं-बच्चे सब बगीचों में सैर करने जाते। महिलाएं बालों में गजरा अवश्य लगाती थीं। दाल-भाजी सब में मीठे का स्वाद होता था। तीन साल बाद जब उन्हें कारखाने के कर्मचारियों के लिये बनी काॅलोनी में दो कमरों का छोटा सा क्वार्टर मिल गया और उन्होंने कुछ पैसे भी जोड़ लिये तो बाऊजी-मां चार दिन उनके पास रहकर तसल्ली कर गये। मां ने जाते ही उनकी भांजी की ननद से राधेबाबू का रिश्ता तय कर दिया और महीने बाद उनका विवाह सावित्री से हो गया। चार माह मां से घर के काम-काज सीख सावित्री उनके साथ सुन्दर नगर आ गई। सावित्री आठवीं पढ़ी थी पर कुछ-कुछ शक्की स्वभाव की थी। यहां आने पर उसने जो पहला काम किया वह राधे बाबू का खाना बनाने वाली होली बेन को काम से छुट्टी दे दी।

“सारी दाल-सब्जी में शक्कर डाल देती है।“ जबकि उसे होली बेन का राधे बाबू के संग हंसकर बात करना पसन्द नहीं था।

“नाम के साथ बहिन लगा लेने से क्या रिश्ते बन जाते है?“ राधे बाबू का मन किया कि उसे कोई कड़ा जवाब दें, पर रूक गये, “देखते नहीं कैसे गजरा लगा कर आती है।“ नयी गृहस्थी में कोई बदमजगी न हो इसलिये “सावित्री को घर का काम करना अच्छा लगता है“ कह कर होली बेन की तीन साल की सेवाएं समाप्त कर दीं। सालभर बाद सुनील का जन्म हुआ तो सेठ ने उनकी पगार में बढ़ौतरी कर दी थी। अब तक सावित्री ढोकला, छुंदा, उंधियूं बनाना सीख गई थी और जिस गजरे के कारण होली बेन को काम से हटा दिया था, वही अब उसके दैनिक श्रंृगार का हिस्सा था। इसके दो साल बाद मीनाक्षी भी उनके परिवार में सम्मिलित हो गई थी। अब वे दोनों भी राधे भाई और सावित्री बेन के नाम से जाने जाते थे।

सुन्दर नगर में यूं तो राधे बाबू का परिवार रच-बस गया था पर वहां बच्चों की पढ़ाई में मुश्किले आ रही थी। वहां सब विद्यालयों में गुजराती माध्यम से पढ़ाया जाता था। राधे बाबू चाहते थे कि उनके बच्चे हिन्दी पढ़ें। तब बहुत दुःखी मन से उन्होंने बच्चों और सावित्री को मां के पास छोड़ने का फैसला किया, एक कारण बाऊजी के निधन के बाद का अकेलापन भी था। पर सावित्री उन्हें अकेला नहीं छोड़ना चाहती थी।

“रह लोगे तुम बच्चों के बिना ?“ रो पड़ी थी सावित्री उसे सांत्वना देते राधे बाबू भी भावुक हो गये थे,

“यह सच है सावित्री, तुम्हारे और बच्चों के बिना रहना बहुत मुश्किल होगा, पर इनके भविष्य के लिये हमें दूर रहना होगा।“ कह कर मुंह फेर आंसू पोंछ लिये थे। स्टेशन पर तो सुनील-मीनाक्षी ने रो-रो कर विदा करने आये सहकर्मियों की पत्नीयों को भी रूला दिया था। राधे बाबू को सीने से लगा रोते रहे। तब कारखाने में सफाई करने वाला अठारह बरस का गुड्डन उनका सहारा बना। वह उनका खाना बनाता, कपड़े धोता और छुट्टी के दिन बदन पर तेल की मालिश भी कर देता। बच्चों के स्कूल में छुट्टीयां होने पर सावित्री बच्चों को ले कर सुन्दर नगर आ जाती। वे चाॅकलेट, बिस्कुट, नमकीन डिब्बों में रख छुपा देते और शाम को कारखाने से लौट उन्हें खाते हुए देखते तो निहाल हो जाते। देखते ही देखते छुट्टियां खत्म हो जातीं और राधे बाबू फिर कुछ दिन तक उदा रहते।

अब बच्चों की कक्षाएं ऊंची हो गई थी। सुनील खेलकूद में भी अच्छा था, इसलिये विद्यालयी प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने के लिये छुट्टियों में अभ्यास कराया जाता था। दूसरे अब उनका टिकट भी पूरा लगता था। केवल राधे बाबू की तनख्वाह से दो शहरों में दो घरों का खर्च चलाने के लिये बहुत से खर्चों में कटौती की जाने लगी थी। इसलिये सावित्री ने ही सुझाया कि वार-त्यौहार राधे बाबू ही घर आ जाया करें।

अक्सर वे दीवाली की शाम ही घर पहुंचते थे। सारे मौहल्ले के घरों में दिये जल जाते पर राधे बाबू के घर पहुंचने पर ही दीवारें रोशन होती थी। सुनील के लिये कमीज, मीनाक्षी की फ्राॅक, पटाखें, पेठे की मिठाई और गुजराती नमकीन जब तक मेज पर न रख देते, तब तक दोनों भाई बहिन उनके बक्से से दूर नहीं जाते थे। जब वे दोनों उछलते कूदते अपनी मित्र मंडली को अपने उपहार दिखाने बाहर भाग जाते तब राधे बाबू अपने कपड़ों की तह से सावित्री के लिये रेशमी साड़ी निकाल मुस्कुराते उसे देखते और वह जला कर “इसकी क्या जरूरत थी, पहले ही बहुत रखी है“, कहती

“तुम पर यह रंग बहुत खिलता है, लक्ष्मी पूजन के समय पहन लेना“ और सावित्री झुक कर पैर छू लेती। जब तक राधे बाबू घर रहते वह रोज उनकी पसन्द का खाना बनाती मां छोटे बेटे दिनेश के पास चली गई थी। मीनाक्षी, सुनील पिता के आस-पास ही रहते, सोते भी उनके साथ ही, और ढेर सारी बातें करते। सावित्री उनके भेजे गये पैसो का हिसाब बताती जो वह सुनील की पुरानी काॅपी पर लिखा करती थी“

उनके जाने के दिन सवेरे से सावित्री सफर के लिये आलू-पूरी बनाती और बार-बार पल्लू से आंखें पोंछती। वे भी बक्से में कपड़े रखते-रखते अचानक सुनील, मीनाक्षी को गले लगा लेते।

“जाने की बिल्कुल इच्छा नहीं है, सूना घर काटने को आता है सावित्री“ भर्रायी आवाज में कहते, फिर संयत हो कर समझाते, “बस दो-चार साल बद आ जाता हूँ, यहीं कुछ काम देख लूंगा।“ स्टेशन पर चारों उदास से खड़े रहते। ट्रेनचलने पर दोनों भाई बहिन उसके साथ-साथ दौड़ते, बड़ी मुश्किल से संभालती सावित्री। गाड़ी ओझल होने तक राधे बाबू का हाथ हिलता दिखाई देता रहता। घर जाते समय जो रास्ता बहुत लम्बा लगता था वापस लौटते समय बहुत छोटा हो जाता था। जब भी लौटते, रास्ते भर योजना बनाते, दो-तीन दिन उदासी में कटते, फिर जिन्दगी दर्रे पर चलती रहती। सुनील, मीनाक्षी बड़ी कक्षाओं में आ गये थे, और सावित्री के रहन-सहन में भी एक लापरवाही सी आ गई थी। मां भी अब दुनिया में नहीं थी। अब घर जाने पर वह प्यार व महत्व नहीं मिलता था। पर राधे बाबू यह सोचते थे कि यही समय है जब बच्चों को मां के दुलार के साथ-साथ पिता का अनुशासन भी मिले। खर्चों का क्या है, सूझबूझ से सब सुगम हो जायेगा, कुछ पैसे जमा कर लिये हैं, छोटा-मोटा काम शुरू किया जा सकता है। सुनील उनके साथ होगा। आंगन इतना बड़ा है, जहां कुछ जगह छोड़कर एक दुकान बनाई जा सकती है। ऊपर की मंजिल पर दो कमरे खाली ही रहते है वह भी किसी छोटे परिवार को किराये पर दिये जा सकते हैं।

अगले ही दिन सेठ भरत भाई के सामने हाथ जोड़ कर खड़े हो गये,

“क्या बात है राधेश्याम, छुट्टी चाहिये ? घर जाना है ?“

“हां सेठ साहब, छुट्टी ही चाहिये, पर हमेशा के लिये“ पास बैठे रोकड़िये जयंति भाई ने पैन रोक, चश्मा नाक पर चढ़ा आश्चर्य से राधे बाबू को देखा।

“वो क्या है न सेठ साहब, बच्चे और उनकी मां चाहते है कि मैं अब उनके साथ रहूँ, उन्हें मेरी फिक्र रहती है।“ कुछ गर्वमिश्रित निवेदन था।

“हम तो नहीं चाहेंगे कि आप जैसा ईमानदार और दक्ष कर्मचारी यहां से जाये, कारखाने को बहुत नुकसान होगा। भरत भाई बहुत व्यावहारिक व्यवसायी थे,“ फिर भी अगर आप परिवार के साथ रहना चाहते हैं तो रोकूंगा नहीं, हम भी परिवार वाले है,“ साथ ही आश्वासन दिया कि यदि वे वापस लौटना चाहें तो बेझिझक आ जायें उनका पद सुरक्षित है। इसके बाद सेठ साहब ने जयंति भाई को उनका हिसाब बनाने के आदेश दे दिये। जिसने सुना वही उनसे मिलने पहंुच गया। राधे बाबू प्रवासी होते हुए भी इस समुदाय में घुलमिल गये थे।

“अच्छा नहीं किया बाबूजी आपने“ गुड्डन ने दीवार से घड़ी उतारते हुए कहा “मुझे किस के भरोसे छोड़ के जा रहे हो ?“ सच में गुड्डन से उनका एक रिश्ता बन गया था, उनके सारे काम गुड्डन ने संभाल रखे थे।

“इसके भरोसे“ मुस्कुराते हुए राधेबाबू ने अपना प्राणप्रिय ट्रांजिस्टर गुड्डन को पकड़ा दिया। गुड्डन की तरह इस ट्रांजिस्टर ने भी उनका अकेलापन बांटा था। सवेरे बंदे मातरम से शुरू होता था और रात को कई बार बंद करना ही भूल जाते, जब उसमें से खटर-पटर की आवाज आती तब बंद होता था। सारा सामान गुड्डन के सुपुर्द कर अपना बक्सा उठाये स्टेशन पर पहुंचे, बहुत से सहकर्मी विदा करने आये थे, “फेर आवजो राधे भाई“ के जवाब में हाथ जोउ़ अपनी जगह बैठ गये। ट्रेन चलते ही गहरी सांस ली और आजादी का अनुभव किया।

दरवाजा हल्के से धक्के से ही खुल गया। पिछले कमरे से स्पीकर से तेजी से गाने की आवाज आ रही थी। देखा, सुनील पलंग पर औंधा पड़ा था। सावित्री, मीनाक्षी का कहीं पता नहीं था। कैसे लापरवाह हैं ? सब खुला है कोई आसानी से कुछ उठा ले जा सकता था। राधे बाबू के माथे पर बल पड़ गये।

“अरे, आप कब आये ?“ सावित्री ने अंदर आते हुए पूछा।

“अभी-अभी“ कहते हुए स्पीकर का बटन बंद कर दिया, सुनील झटके से उठ गया।

उसके चेहने पर पिता को देख खुशी के बदले संगीत बंद होने से बुरा लगने के भाव थे। अनिच्छा से पैर छुए।

“अचानक ? सब ठीक तो है ?“ सावित्री ने सामान पर नजरी डाली

“छोड़ आया हूँ गुजरात“ मुस्करा कर रहस्योद्घाटन किया। मीनाक्षी नमस्ते कर पानी लेने चली गई। फिर सावित्री को अपनी योजना बताई कि घर की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये क्या करना है। सावित्री अनिच्छा के भाव से सुनती रही,

“अच्छा भला काम था आपका, अभी सेहत भी ठीक है, बंधी रकम आती थी, एकदम फैसला करना बुद्धिमानी नहीं थी, उसने देखा राधे बाबू पर उम्र का असर दिखाई दे रहा था आंगन में दुकान बनवा दोगे तो छोटा नहीं हो जायेगा ?“ सावित्री की सखिया वहां बैठ परनिन्दा में समय बिताती थीं क्योंकि उनके घर के पुरुषों को यह पसन्द नहीं था। ऊपर वाले कमरे किराये पर देने के फैसले पर मीनाक्षी भड़क उठी थी,

“अब हमें अलग से एक कमरा भी नहीं मिलेगा ?“ पिछली बार राधे बाबू सामने वाले सहाय साहब के आवारा पुत्र को छत से मीनाक्षी को कमरे की खिड़की की ओर इशारा करते देख चुके थे।

“नीचे हैं न कमरे“ राधे बाबू ने उसकी आपत्ति सिरे से खारिज कर दी। कुछ दिनों में ऊपर वाली मंजिल के कमरों में एक छोटी उम्र के पति-पत्नी व उनका दो साल का पुत्र आकर रहने लगे और आंगन में दो दीवारें उठा गली की तरफ शटर लगा दुकान बना दी गई जिसमें राधे बाबू ने रबर-पेंसिल और कुछ काॅपियां रख लीं। पर वह महसूस कर रहे थे कि उनकी उपस्थिति सावित्री और बच्चों को असहज बना देती है, वर्षों से वे जो स्वच्छन्द जीवन जी रहे थे उसमें राधे बाबू के आने से व्यवधान पड़ गया है।

“तुम बाल क्यांे नहीं कटवाते हो ? कन्धे तक आ रहे हैं“

“मैं क्या चैथी कक्षा में पढ़ता हूँ जो भगौना कट करवा लूं और बालों को झटकते हुए बाहर निकल जाता सुनील।

“तुम्हें चाय बनानी भी नहीं आती मीनाक्षी ?“ राधे बाबू को गुड्डन की अदरक काली मिर्च वाली चाय याद आ जाती।

“तो आप खुद क्यों नहीं बना लेते ?“ पैर पटकती जाती हुई मीनाक्षी में उनकी प्यारी ‘मीनू’ खो चुकी थी।

“अम्मा, ये बाबूजी अब यहीं रहेंगे क्या ?“ अंदर के कमरे से मीनाक्षी का गुस्से से भरा स्वर सुनाई दिया, जो दबाने की कोशिश में तेज हो गया था।

“मैं क्या बताऊं, मैं तो खुद परेशान हूँ।“ राधे बाबू को पत्नी से यह उम्मीद नहीं थी।

“उस दिन राकेश मुझे बुलाने आया तो उसकी भी क्लास लगा दी“ सुनील अपना दुख बताने लगा “क्या करते हो ? पढ़ाई क्यों नहीं करते ?“

“अम्मा को भी तो कल सन्तो ताई के घर से बुलवा लिया था“ सावित्री देख रहा हूँ “आजकल तुम्हें घर से बाहर रहना ज्यादा अच्छा लगता है“, पिता की नकल पर तीनों बहुत देर तक हंसते रहे। राधे बाबू परिवार के व्यवहार में इस परिवर्तन से बहुत आहत होते थे और इस अप्रिय स्थिति से बचने के लिये वे अपने आप को दुकान में व्यस्त कर लेते थे। जिस घर को वे शिद्दत से याद करते थे वह घर न जाने कहां छूट गया था। उन्हें लगा कि कारखाने की नौकरी उन्होंने जल्दबाजी में छोड़ दी। जहां पहले सावित्री की सहेलियां उनके आंगन में बैठी रहती थीं, वही अब राधे बाबू की उपस्थिति के कारण उनका आना बंद हो गया पर सावित्री अब दिन भर मौहल्ले में घूमती रहती है। मीनाक्षी पर कोई नियन्त्रण नहीं है। कल ही राधे बाबू ने देखा कि किरायेदार युवक ने मीनाक्षी  से अपना पुत्र लेने के बहाने उसका हाथ दबा दिया था।

भरत भाई ने कहा था कि उन्हें जरूरत हो तो बेझिझक लौट आयें। और राधे बाबू ने एक फैसला कर लिया।

“अम्मा खाना लिये बैठी हैं“ सुनील की आवाज से तन्द्रा टूटी। थाली देख कर मन खराब हो गया, कितनी बार कहा है कि अरहर की दाल मत बनाया करो, गैस बनती है। एक कौर तोड़ा पर खाने का मन नहीं किया, थाली सरका दी,

“क्या हुआ ? खाना पसन्द नहीं आया ? अब बुढ़ापे में तो चटखारे लेना छोड़ दो“, सावित्री ने थाली उठा ली थी।

“नहीं सावित्री, मन भर गया है।“

अगले रविवार किरायेदारों का सामान जब घर से जा रहा था तब राधे बाबू ने दुकान का सामान बक्से में रखा और उसमें ऊपर लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियां और अगरबत्ती स्टेण्ड भी रख ताला जड़ दिया। अन्दर मीनाक्षी अपना सामान ऊपर वाले कमरे में ले जा रही थी। सावित्री ने खोखले स्वर में उन्हें रूकने का इसरार किया।

अगले दिन घर के बाहर रिक्शा पर बैठते समय सावित्री ने आलू पूरी का टिफिन पकड़ा कर प्रमाण किया। सुनील अपने दोस्त राकेश के स्कूटर पर आगे हो लिया। मीनाक्षी ने आंखें मिचमिचाते हुए रोने का अभिनय किया। गली के मोड़ पर राधे बाबू ने मुड़कर देखा, सावित्री हंसते हुए सन्तो ताई को बुलाने का इशारा कर रही थी।

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