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दीपक जब घर आया तो सभी को बड़ी ख़ुशी हुई। सुशीला और कृष्णा ने कई तरह के पकवान तैयार कर रखे थे। प्रभुदास ने सरकार द्वारा प्रदत्त सम्मान पत्र देखकर कहा - ‘दीपक बेटे, इतनी छोटी उम्र में तेरी यह बहुत बड़ी उपलब्धि है। इस पत्र को फ़्रेम करवा लेना।’
‘जी पापा, मैं कल ही फ़्रेम करवा लूँगा।’
कृष्णा ने भी उसे बधाई दी, किन्तु दीपक को उसके चेहरे पर ख़ुशी की कोई झलक दिखाई नहीं दी। उसने पूछा - ‘भाभी, क्या बात है, आपकी तबियत ठीक नहीं है क्या?’
‘नहीं दीपक, ऐसी तो कोई बात नहीं।’
‘फिर यह उदासी क्यों है?’ कृष्णा ने अपने मनोभावों को प्रकट न करते हुए इतना ही कहा - ‘अभी तुम खाना-वाना खाओ। फिर मेरे कमरे में बैठकर बातें करेंगे।’
कृष्णा की इस बात ने दीपक को सोच में डाल दिया। दादी, माँ या पापा ने तो ऐसा कोई संकेत नहीं दिया जिससे भाभी की उदासी के कारण का आभास होता। ज़रूर कोई व्यक्तिगत बात है जो भाभी मुझसे अकेले में साझा करना चाहती है। उसने खाना बड़ी अन्यमनस्कता से खाया जबकि सुशीला ने उसकी पसन्द की सब्ज़ियाँ और दूध काढ़कर खीर बनाई थी। वह बैठक में बैठा इंतज़ार कर रहा था कि कब भाभी रसोई से फ़ारिग होकर अपने चौबारे में जाए और वह उसकी उदासी का कारण जान सके।
अन्ततः कृष्णा ने चौबारे की ओर जाते हुए उसे ऊपर आने को कहा। दीपक तुरन्त भाभी के पीछे सीढ़ियाँ चढ़ गया।
कमरे में प्रवेश करते ही दीपक ने कहा - ‘देवर के इतने समय बाद आने पर भी भाभी उदास क्यों हैं आप?’
कृष्णा ने दीपक के प्रश्न का उत्तर न देकर कहा - ‘दीपक, ठंड बहुत है, रज़ाई में ही आ जा।’
दीपक भाभी के साथ ही रज़ाई में बैठ गया और बोला - ‘अब बताओ, क्या कष्ट है आपको?’
कृष्णा कुछ पलों के लिए विगत में खो गई। फिर कहने लगी - ‘काश कि उस समय तेरी बात मान ली होती हमने!’
दीपक की समझ में नहीं आया कि भाभी किस बात की ओर संकेत कर रही हैं? इसलिए उसने सीधे-सीधे पूछा - ‘भाभी, किस बात का ज़िक्र कर रही हैं आप, खुलकर बताओ।’
कृष्णा ने लम्बी साँस लेते हुए कहना आरम्भ किया - ‘दीपक, तुम प्रीति को चाहते थे और उससे विवाह करने के लिए एक बार मुझे कहा भी था…..’
‘हाँ, लेकिन भाभी, अब यह बात क्यों कर रही हो, प्रीति का तो विवाह हो चुका है और वह ऐसे घर में गई है, जैसा मासड़ जी चाहते थे?’
‘यहीं तो नियति अपना खेल खेल गई, दीपक! हमें क्या पता था कि जिस घर और वर को हम प्रीति के लिए आदर्श मान रहे थे, वे इतने घटिया, इतने नीच, इतने दुष्ट निकलेंगे …..’, कृष्णा रुकी, किन्तु दीपक चुप रहा तो आगे कहने लगी - ‘विवाह के कुछ ही दिनों बाद प्रीति के ससुराल वालों ने पहले उसे ताने मारने शुरू किए, फिर गाली-गलौज और आख़िर उसे मारने-पीटने लगे। एक दिन उसका ससुरा लात-घूँसों से उसपर टूट पड़ा था …..’
यहाँ दीपक ने पूछ ही लिया - ‘और प्रीति का हस्बैंड….?’
‘वो ठीक होता तो रोना किस बात का था! वो नासपीटा भी अपने माँ-बाप का पिच्छलग्गू निकला।…. वो भी प्रीति पर हाथ उठाने लगा था।’
‘ ‘था’ मतलब, अब प्रीति अपनी ससुराल में नहीं है?’
‘दीपक, तुम्हें क्या लगता है कि ऐसे हालात में प्रीति वहाँ रह सकती थी! जब पति भी मारने-पीटने पर आ जाता है तो स्त्री के लिए उसके साथ रहना असम्भव हो जाता है। प्रीति तो पिछले छह महीने से घर पर है। यदि पापा उसे न लेकर आते तो पता नहीं उन कंजरों ने उस बेचारी का अब तक क्या हाल कर दिया होता! पापा जब उसे लेने गए तो उन राक्षसों ने चार कपड़ों के सिवा कुछ भी नहीं लाने दिया। कहते थे कि यह सारे गहने तो पहले ही तुम लोगों के हवाले कर आई है। भगवान जानता है, प्रीति का एक गहना भी हमारे पास नहीं है!’’
‘बहुत कमीने निकले वे लोग! तो अब प्रीति के ससुराल लौटने के तो कोई चांस नहीं?’
‘यही समझ लो। बस क़ानूनी कार्रवाई बाक़ी है। …. पापा ने उनके ख़िलाफ़ दहेज के लिए मारपीट करने का केस दर्ज करवाया है, लेकिन अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हुई। सुना है कि उन्होंने पुलिस की मुट्ठी मोटी रक़म से बंद कर दी है और ऊपर से दबाव भी डलवाया है।’
‘भाभी, यह तो बहुत बुरी बात बताई आपने। प्रीति जैसी सुन्दर, समझदार लड़की के साथ ऐसा बर्ताव! भगवान् उनको उनके किए की सजा ज़रूर देगा।’
‘भगवान् तो पता नहीं, कब सजा देगा! प्रीति और हमारा जीवन तो उन ज़ालिमों ने नरक बना दिया है।… प्रीति बेचारी की आँखों का पानी भी रो-रोकर सूख गया है,’ इतना कहते-कहते कृष्णा की स्वयं की आँखों से आँसू झरने लगे।
दीपक भाभी के आँसू पोंछने के लिए आगे बढ़ा तो वह उसके गले लगकर फफक-फफककर रो पड़ी।
कुछ देर बाद दीपक ने कृष्णा को अपने से अलग करते हुए कहा - ‘भाभी, आदमी सोचता कुछ है, होता कुछ और है। आख़िर मानना पड़ेगा कि प्रीति को इन दु:खों से गुजरना था। आप लोगों को उसके पुनर्विवाह के बारे में जल्दी-से-जल्दी सोचना चाहिए, नहीं तो वह इस दु:ख में घुलती रहेगी।’
‘दीपक, बात तो तुम्हारी ठीक है, लेकिन जब तक तलाक़ नहीं हो जाता, तब तक यह कैसे सम्भव होगा?’
‘मासड़ जी सरकारी नौकरी में हैं, उनके अच्छे तालुक़ात हैं। किसी-न-किसी से अवश्य मदद मिल सकती है।’
बातें करते हुए काफ़ी समय हो गया था। इसलिए दीपक की बात का जवाब न देकर कृष्णा ने उठते हुए कहा - ‘मैं चाय बनाकर लाती हूँ, तुम यहीं बैठो।’
कृष्णा के जाने के बाद दीपक सोचने लगा, जब मैंने भाभी को अपनी इच्छा से अवगत कराया था तो उसने अपने पापा से बात करने से पहले प्रीति का मन भी टटोला था। उसे लगा था कि प्रीति के मन में मेरे लिए सॉफ़्ट कॉर्नर था, किन्तु मासड़ जी ने यह कहकर बात को वहीं ख़त्म कर दिया था कि एक तो दोनों बहनों का एक घर में जाना ठीक नहीं, दूसरे उनके मन में प्रीति के लिए बड़े सपने थे। क्या प्रीति के मन का मेरे लिए सॉफ़्ट कॉर्नर अब भी उसी तरह क़ायम होगा? दीपक विचारों में मग्न था कि कृष्णा ने चाय की ट्रे बेड पर रखते हुए उसकी बंद आँखों के आगे चुटकी बजाते हुए कहा - ‘लो, चाय पिओ। मुझे पता है कि प्रीति के दु:ख से तुम दु:खी हो, लेकिन कोई चारा नहीं भइया।’
दीपक ने चुपचाप चाय पी और कहा - ‘भाभी, मैं थोड़ी देर के लिए दुकान पर जाकर आता हूँ।’
दीपक दुकान की ओर चला गया और कृष्णा नीचे आकर घर के कामों में व्यस्त हो गई।
…….
जब रात को सुशीला पार्वती के पास बैठी उसकी टांगें दबा रही थी तो दीपक भी वहीं पहुँच गया। उसने पूछा - ‘दादी, टांगों में दर्द ज़्यादा है क्या?’
‘बेटा, यह तो उम्र का तक़ाज़ा है। अब तो भगवान अपने पास बुला ले, बस यही दुआ करती हूँ।’
सुशीला - ‘माँ जी, आप ऐसा क्यों सोचती हैं? अभी तो दीपक और विद्या के विवाह भी आपके आशीर्वाद से करने है।’
‘बहू, जब तक इन मोह-बन्धनों में बँधी रहूँगी, ज़्यादा कष्ट झेलने पड़ेंगे। …. दीपक बेटा, मुझे ख़ुशी है कि तू भी अपने पापा की तरह बहुत लगन और मेहनत से अपने काम में जुटा हुआ है और नाम भी कमा रहा है।’
सुशीला - ‘माँ जी, मान लें, विद्या तो अभी पढ़ रही है, लेकिन दीपक का विवाह तो अब हम कर लें तो ठीक रहेगा।’
‘हाँ बहू, इस बात पर तो मैं सहमत हूँ। काम-धंधे में लग गया है। प्रभु से कहती हूँ, अच्छी लड़की देखकर इसका तो विवाह कर ही देना चाहिए।’
अपने विवाह की बात चली देखकर दीपक ने प्रीति के प्रति उनके रुख़ को भाँपने के इरादे से कहा - ‘दादी, भाभी ने अपनी बहन के बारे में बताया। सुनकर बड़ा बुरा लगा। कैसे कुछ लोग घर की लक्ष्मी माने जाने वाली बहू पर इतने ज़ुल्म करने की हिमाक़त कर लेते हैं? ऐसे लोगों का सामाजिक बहिष्कार तो होना ही चाहिए, इन्हें सार्वजनिक रूप से कठोर दंड भी दिया जाना चाहिए।’
सुशीला - ‘हाँ बेटा, प्रीति के साथ उसकी ससुराल वालों ने बहुत बुरा किया है। इसीलिए तेरी भाभी भी बुझी-बुझी रहती है।’
दीपक ने देखा कि माँ और दादी भी मन से प्रीति के प्रति संवेदनशील हैं। उसने सोचा, यह सही समय है अपने मन के भाव माँ और दादी के सामने रखने का। उसने हिचकते-हिचकते कहा - ‘माँ, अभी आप और दादी मेरे विवाह की बात कर रही थीं …. भाभी प्रीति और अपने पापा से पूछ ले, मैं प्रीति को अपना जीवन-साथी बनाने को तैयार हूँ।’
पार्वती और सुशीला एक साथ बोल उठीं - ‘बेटा, यह तू क्या कह रहा है? तेरे लिए रिश्तों की कमी है क्या?’
‘लेकिन माँ, प्रीति में क्या कमी है? उसके ससुराल वालों ने दुर्व्यवहार किया तो क्या उसे अपने पापा के ग़लत फ़ैसले की सजा सारी उम्र भुगतनी पड़ेगी? नहीं, ऐसा नहीं होना चाहिए।…’
कृष्णा दूध सँभालने के लिए बरामदे में से रसोई की ओर जा रही थी कि उसके कानों में दीपक के आख़िरी शब्द पड़े। सुनकर वह भी भीतर आ गई और बोली - ‘भइया, कोई भी व्यक्ति परफ़ेक्ट नहीं होता। मेरे पापा ने तो अच्छा सोचकर ही प्रीति का रिश्ता किया था। अब वो लोग ऐसे निकलेंगे, उनके माथे पर तो लिखा नहीं था। पापा को दोष देना ठीक नहीं, हमारी क़िस्मत ही ख़राब थी।’
‘भाभी, मेरे कहने का मतलब यह नहीं था। मैं तो यह कहना चाहता था कि यदि मासड़ जी ने ज़िद ना की होती और आपकी बात मान ली होती तो यह नौबत ही ना आती।’
कृष्णा ने दीपक के प्रस्ताव को नहीं सुना था, वह तो अनुमान लगा रही थी कि शायद दीपक अब भी प्रीति को चाहता है, इसलिए उसने कहा - ‘दीपक, यदि तुम्हारे दिल में प्रीति के लिए अब भी कोई स्थान है तो हम तो तर जाएँगे भइया!’
सुशीला - ‘बहू, यह तुम क्या कह रही हो? दीपक ने कभी तुमसे प्रीति से विवाह करने की बात कही थी?’
‘हाँ, माँ जी। प्रीति के विवाह से पहले भइया ने ऐसा चाहा था, किन्तु मेरे पापा एक घर में दो बहनें देने के हक़ में नहीं थे।’
‘तो क्या अब वे राज़ी हो जाएँगे?’
‘माँ जी, बुरा वक़्त आदमी को बहुत कुछ सिखा जाता है। इस समय पापा पूरी तरह से टूटे हुए हैं।’
‘तूने अपने पापा से बात की है?’
‘नहीं, मैं कैसे बात करती? यह तो अब पता चला है कि भइया अब भी प्रीति को चाहते हैं।’
‘बहू, मान लो, हम तैयार हो जाएँ और तेरे पापा अपनी पुरानी ज़िद पर अड़े रहे तो?’
‘माँ जी, पापा की ज़िद का अब कोई अर्थ नहीं रहा। मुझे पूरा यक़ीन है कि जो हालात हैं, उनमें पापा मेरी बात को खुले मन से स्वीकार करेंगे।’
सुशीला अभी अपनी ओर से ही कृष्णा से बात किए जा रही थी। उसे लगा, पार्वती घर की मुखिया है, इनसे तो पूछा ही नहीं। इसलिए उसने पार्वती को सम्बोधित करते हुए कहा - ‘माँ जी, आपने सारी बातें सुन ली हैं। दीपक पहले ही कह चुका है कि वह प्रीति को अपनाने को तैयार है, आप क्या कहती हैं, क्या करना चाहिए?’
‘बहू, प्रीति का तो कोई क़सूर नहीं। दीपक उसे चाहता है। बात आगे बढ़ाने से पहले प्रभु से बात करना भी ज़रूरी है। सुशीला, तुम प्रभु से बात करो। जैसा वह कहे, वैसा करना। मैं तो चाहती हूँ कि एक सुशील लड़की को जीने का हक़ है।’
…….
उपरोक्त प्रसंग पर रात को एक ही घर में तीन जगह मंथन हुआ। कृष्णा ने दीपक की प्रशंसा करते हुए पवन के समक्ष दीपक के मन की बात रखी और बताया कि दादी जी को भी इसमें कोई एतराज़ नहीं है।
पवन - ‘कृष्णा, तूने दादी को एतराज़ ना होने का तो बता दिया, लेकिन माँ क्या सोचती है, यह नहीं बताया?’
‘माँ की बातों से तो ऐसा नहीं लगा कि वे इसके विरुद्ध हों। …. दादी जी ने माँ जी को कहा है कि वे पापा से बात करें, उसके बाद ही कोई कदम उठाया जाए। मुझे तो लगता है कि माँ जी ने पापा से ज़रूर बात कर ली होगी!’
‘कृष्णा, यह तो अब सुबह ही पता चलेगा। वैसे मैं भी चाहता हूँ कि प्रीति का जीवन जितना जल्दी पटरी पर आ जाए, उतना ही अच्छा होगा।’
जब सुशीला ने सारा घटनाक्रम प्रभुदास से साझा किया तो उसकी राय भी पार्वती की राय से मेल खाती थी।
दीपक बिस्तर पर लेटा सोच रहा था - भाभी तो अपनी बहन के जीवन में आए तूफ़ान से उसे बचाने के लिए तत्पर है, किन्तु क्या प्रीति भी शहर की सुविधाओं से भरपूर ज़िन्दगी का मोह त्याग कर देहात और वह भी एक किसान के साथ खेत में रहने को तैयार होगी! यह बहुत बड़ा प्रश्न है जिसपर शायद दादी, माँ, भाभी किसी ने भी विचार नहीं किया है। इसका जब तक उत्तर नहीं मिल जाता और वह भी स्वयं प्रीति के मुख से, प्रीति को लेकर मैं सपने बुनने लगूँ, इसका कोई औचित्य नहीं है। भाई के विवाह के बाद तो दीपक को प्रीति से मिलने का कभी मौक़ा ही नहीं मिला, इसलिए उसे याद आती रही विवाह के समय की चुहल और प्रीति की आँखों में उसके लिए प्यार की चमक। वह इन्हीं यादों में खोया नींद की आग़ोश में समा गया।
घर की गृह-लक्ष्मी मानी जाने वाली तीन पीढ़ियों में से अक्सर तो सबसे युवा यानी कृष्णा सबसे बाद में उठती थी, किन्तु आज वही सबसे पहले अपने कमरे से बाहर निकली थी। उसने ब्रश वग़ैरह करके चाय के दो कप चाय बनाकर केतली में डाले, टिकोजी से ढककर पहुँच गई दीपक और विद्या के कमरे में। दोनों अभी तक सोये हुए थे। विद्या तो देर रात तक पढ़ती है, इसलिए वह तो सूर्योदय के काफ़ी बाद ही उठती है। दीपक रात को विचारों के मंथन में काफ़ी देर तक जागता रहा था, इसलिए अभी सोया हुआ था। कृष्णा ने आवाज़ देने की बजाय दीपक के पैरों में गुदगुदी की। दीपक तुरन्त उठ बैठा और बोला - ‘भाभी, इतनी सुबह कैसे?’
‘तुम बाथरूम जा आओ, मैं तुम्हारे लिए चाय बनाकर लाई हूँ।’
दीपक ने कृष्णा द्वारा लाया पानी पिया और बाथरूम चला गया। दस मिनट लगे उसे वापस आने में। केतली टिकोजी से ढकी होने के कारण अच्छी ठंड होने पर भी चाय गर्म थी। चाय का कप पकड़ते हुए दीपक ने कहा - ‘भाभी, यह एकस्ट्रा मेहरबानी किसलिए?’
कृष्णा ने मज़ाक़ करते हुए कहा - ‘क्योंकि तुम देवर के साथ बहनोई भी बनने वाले हो।’
‘भाभी, इतनी जल्दी अच्छी नहीं। पहले मासड़ जी और प्रीति से पूछो। जैसा आपने रात कहा था, बदले हालात में मासड़ जी आपकी बात मान लेंगे, किन्तु प्रीति का बिना किसी दबाव के सहमत होना बहुत ज़रूरी है। जब तक मैं स्वयं प्रीति से उसके विचार नहीं जान लेता, मैं नहीं चाहूँगा कि आप किसी नतीजे पर पहुँचें।’
‘दीपक, मैं तुम्हारी सोच की कद्र करती हूँ। ….. हो सकता है कि माँ जी ने पापा से बात कर ली हो! यदि उनकी सहमति हुई तो मैं आज ही अपने पापा को कह दूँगी कि प्रीति को लेकर आ जाएँ।’ कृष्णा मन-ही-मन बहुत उत्साहित थी। उसने फिर छेड़खानी करते हुए कहा - ‘अब मैं तुम्हें ‘भाभी’ नहीं कहने दूँगी।’
‘वक़्त तो आने दो भाभी, जैसा तुम चाहोगी, वैसे ही बुला लिया करूँगा।’
कृष्णा ने नोट किया कि दीपक ने पहली बार उसके लिए ‘आप’ नहीं, ‘तुम’ का इस्तेमाल किया है, उसका मन-मयूर नाच उठा।
……..
दो दिन बाद सूर्यकान्त प्रीति को लेकर दौलतपुर पहुँच गया। चाय-नाश्ते पर दीपक भी उपस्थित था। प्रीति के कांति-विहीन मुख-मंडल को देखकर उसे बहुत कष्ट हुआ। दोनों के बीच औपचारिक नमस्ते के आदान-प्रदान के सिवा कोई बात नहीं हुई। कृष्णा ने सुशीला से पहले ही बात कर रखी थी। चाय समाप्ति पर उसने दीपक को कहा - ‘जाओ, प्रीति को फ़िल्म दिखा लाओ। इसका मन बहल जाएगा।’
‘भाभी, आप भी चलो।’
‘नहीं, मुझे पापा से कुछ बातें करनी हैं और खाने में भी माँ जी की मदद करनी हैं।’
सूर्यकान्त या प्रीति ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। शायद कृष्णा ने फ़ोन पर अपनी योजना से सूर्यकान्त को पहले से ही अवगत करवा रखा था।
सूर्य अस्त हो चुका था। अँधेरे की परछाइयाँ फैलने लगी थीं। सड़कों पर सार्वजनिक लाइटें जल गई थीं। जब वे घर से निकलकर सड़क पर आए तो दीपक ने पूछा - ‘प्रीति, तुम्हारा मन फ़िल्म देखने का है या बाग में थोड़ी देर घूमें?’
‘जैसा आपको ठीक लगे। …. मेरा मन तो कहीं भी नहीं लगता, लेकिन दीदी का कहा मैं उलट नहीं सकती थी।’
‘मेरे साथ आना तुम्हें अच्छा नहीं लगा?’
‘नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं।’
प्रीति के इस कथन में दीपक को किसी प्रकार के भाव का अनुभव नहीं हुआ। उसने कहा - ‘फिर हम बाग में चलते हैं। कुछ देर घूमेंगे, कुछ बातें करेंगे।’
प्रीति ने कोई उत्तर नहीं दिया। वे बाग में आ गए। कंक्रीट के बने सर्किल पर पाँच-छह चक्कर लगाए। आधा-एक घंटा निकल गया। न दीपक ने कुछ कहा, न प्रीति कुछ बोली। आख़िर दीपक ने पूछा - ‘प्रीति, कैसा लग रहा है? अगर ठंड न लग रही हो तो थोड़ी देर बेंच पर बैठें?
‘दीपक, सच कहूँ तो लगभग एक साल बाद खुली हवा में साँस ली है, इसलिए अच्छा लग रहा है। ….. इतना घूमने के बाद ठंड तो बिल्कुल भी नहीं लग रही बल्कि यहाँ की भीनी-भीनी सुगन्ध से तन और मन तरोताज़ा हो गया है। आपका मन कहीं बैठने का है तो बैठ जाते हैं। ….. दीदी ने तो आपको सब कुछ बताया ही होगा?’
लाइट वाले खम्बे के पास वाले बेंच पर वे बैठे तो प्रीति दीपक से थोड़ा हटकर बैठी। उसके प्रश्न का उत्तर देने से पूर्व दीपक सोचने लगा कि विवाह के समय चुहल करती इसी प्रीति ने अपना शरीर मेरे साथ जानबूझकर दो-तीन बार स्पर्श किया था और अब एकान्त में भी संकोच से परे हटकर बैठी है। क्या इसकी भावनाएँ मर गई हैं? इसके मन में जो लगाव या आकर्षण मेरे प्रति उस समय जगा था, क्या उसका कोई अंश अब भी विद्यमान है या यह घरवालों के दबाव में मेरे साथ बैठी है? वह इन विचारों में खोया हुआ था। जब दीपक ने कोई जवाब नहीं दिया तो प्रीति ने अपना प्रश्न दुहराया, जिसके उत्तर में दीपक ने कहा - ‘हाँ, भाभी ने मुझे सब कुछ बता दिया है। सुनकर मुझे बहुत धक्का लगा, दु:ख हुआ। लेकिन जो बीत गया, जो रीत गया, उसे भुलाने में ही भलाई है। ….. प्रीति, तुम इस समय मेरे साथ हो, इसका प्रयोजन तो तुम्हें भी बताया होगा भाभी ने?’
‘हाँ दीपक, दीदी ने बताया था कि आप मुझे अपनाने को इच्छुक हैं।’
‘प्रीति, फिर तो भाभी ने मेरे रहने-सहने के बारे में भी तुम्हें बता दिया होगा! लेकिन मैं चाहता हूँ कि सारी बातें तुम्हें पता होनी चाहिए ताकि भविष्य में ग़लतफ़हमी की कोई गुंजाइश न रहे। …. मैं खेतीबाड़ी को ही अपने जीवन का ध्येय बना चुका हूँ। उसी के अनुसार खेत में दो कमरे रहने के लिए बनवाए हैं। ज़रूरत पड़ने पर उसमें वृद्धि की जा सकती है। क्या तुम्हें ऐसे माहौल में रहना अच्छा लगेगा?’
‘दीपक, मैं जो कहूँगी, दिल से कहूँगी। इसे मेरी कोरी भावुकता मत समझना। ….. मन के मीत का साथ हो तो अन्य सुख-सुविधाओं की मुझे तनिक भी चाह नहीं, परवाह नहीं। कैसे भी हालात हों, मैं आनन्द से रह सकती हूँ। एक बात यहाँ स्पष्ट करना चाहूँगी कि औरत के मन में किसी के प्यार का बीज तो एक ही बार अंकुरित होता है। पारिवारिक तथा सामाजिक परिस्थितियों के कारण समझौते न जाने उसे ज़िन्दगी में कितनी बार करने पड़ते हैं! ….. वैसे जैसा मुझे पता है, आप तो निरन्तर प्रकृति की गोद में प्राकृतिक ढंग से जीवन बसर कर रहे हैं। इससे बढ़कर व्यक्ति को और क्या चाहिए?’
प्रीति ने अपनी बात ‘मन के मीत’ से आरम्भ की। सुनकर दीपक का मन तरंगित हो उठा। वह सोचने लगा कि प्रीति के इतने स्पष्ट विचारों के पश्चात् कहने-सुनने को क्या रह जाता है? अतः उसने कुछ न कहा, चुप बैठा रहा।
थोड़ी देर इंतज़ार करने के बाद प्रीति ने कहा - ‘दीपक, मैंने अपनी बात कह दी है। एक बात जानना चाहती हूँ, क्या आप मुझे सहानुभूतिवश अपनाने को तैयार हुए हो? यदि ऐसा है तो अभी बता दो, मैं ज़िन्दगी भर सहानुभूति या अहसान का बोझ नहीं ढो पाऊँगी।’
दीपक प्रीति के इतने सुलझे हुए विचारों को सुनकर अभिभूत हो गया। उसने प्रीति के प्रश्न का उत्तर देने की बजाय उसका हाथ पकड़ा और चूम लिया। प्रीति द्रवीभूत हो गई। बिना शब्दों को माध्यम बनाए दोनों ने एक-दूसरे के अन्तर्मन में झांक लिया। कुछ क्षण निस्तब्धता में बीते। अन्ततः प्रीति ने कहा - ‘घर चलते हैं। ठंड बढ़ने लगी है।’
दीपक उठा और वे घर की ओर चल दिए।
जब वे डेढ़-एक घंटे बाद घर लौट आए तो कृष्णा के मन में शंका उत्पन्न हुई। क्या इनमें किसी बात पर सहमति नहीं बनी, जो ये फ़िल्म बीच में ही छोड़कर लौट आए हैं। दीपक बिना कुछ कहे ऊपर अपने कमरे में चला गया। प्रीति को सूर्यकान्त ने बैठक में बुला लिया जहाँ वह प्रभुदास के साथ बैठा था। कृष्णा की बेचैनी बढ़ गई। रसोई में सासु-माँ का हाथ बंटा रही वह न तो काम बीच में छोड़कर बैठक में जा सकती थी और न ही दीपक के पास। खाना तैयार होने पर कृष्णा दो थालियाँ लगाकर बैठक में ले गई। तब प्रीति उठी और बोली - ‘दीदी, मैं मदद करूँ?’
‘तू देख ले। इन्हें जो चाहिए हो, ले आना। मैं दीपक को बुला लाऊँ।’
प्रीति सोचने लगी कि दीदी हमारे बारे में जानने को उत्सुक है। मुझसे पूछ नहीं पाई तो दीपक के पास चली गई है।
दीपक आँखें मूँदे कम्बल ओढ़े पड़ा था। कृष्णा ने प्रीति के चेहरे के भावों से अनुमान तो लगा लिया था कि सब ठीक होगा, लेकिन वह किसी एक के मुख से सुनने को उतावली थी। उसने पूछा - ‘दीपक, फ़िल्म अच्छी नहीं लगी जो बीच में छोड़ आए?’
दीपक ने उठकर बैठते हुए उत्तर दिया - ‘भाभी, हम फ़िल्म देखने नहीं गए, हम तो बाग में घूम-फिरकर आ गए।’
‘जिस काम के लिए तुम्हें इकट्ठे भेजा था, उसके बारे में बताओ, तुम लोगों ने आपस में बातें कीं?’
‘हाँ, हम एक-दूसरे को चाहते हैं,’ दीपक ने संक्षिप्त लेकिन पूर्ण उत्तर दिया।
इतना सुनते ही कृष्णा ख़ुशी से झूम उठी। कृतज्ञता ज्ञापन के लिए उसने दीपक के दोनों हाथों को पकड़कर अपने होंठों से लगा लिया।
‘भाभी, ….’ उसके मुँह पर हाथ रखते हुए कृष्णा ने कहा - ‘अब भाभी नहीं।’
‘लेकिन भाभी, जब तक रस्म पूरी नहीं होती, सबके सामने भाभी नहीं तो क्या कहूँ आपको?’
‘सबके सामने नहीं, अकेले में मेरा नाम ही लेना होगा।’
‘आपका हुक्म सिर-माथे।’
‘चलो नीचे। तुम्हारे भइया भी आ गए होंगे। चारों इकट्ठे खाना खाएँगे।’
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