अनूठी पहल - 2 Lajpat Rai Garg द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

अनूठी पहल - 2

- 2 -

गाँव का घर बड़ा तो था, किन्तु आधा कच्चा, आधा पक्का था। लेकिन यहाँ का घर पूर्णतया पक्का था। ड्योढ़ी, रसोई के अलावा तीन कमरे थे। बीच में खुला आँगन। गाँव में आँगन कमरों के सामने था। चाहे दो-ढाई फुट की कच्ची चारदीवारी थी, फिर भी गर्मी के दिनों में रात के समय किसी कुत्ते-बिल्ली अथवा अराजक तत्त्वों का डर बराबर बना रहता था, विशेषकर प्रभुदास के पिता के कत्ल के बाद से। लेकिन दौलतपुर आकर इस तरह की दुश्चिंताओं से निजात मिल गई। चाहे आँगन में सोवो, चाहे खुली छत पर। किसी तरह के ख़तरे की कोई आशंका नहीं थी। यहाँ आते ही एक कमी का सामना करना पड़ा उन्हें। गाँव में घर में ही कुआँ था, जितना चाहते, पानी निकालकर इस्तेमाल कर सकते थे। यहाँ पानी के लिए गली के सार्वजनिक नल तक जाना पड़ता था, उसका पानी भी खारा होने के कारण पीना मुश्किल लगता था। इसलिए पहले ही दिन प्रभुदास ने पनिहारा को बुलाकर सुबह-शाम पीने का पानी डालकर जाने के लिए बोला। नल लगाने वाले मिस्त्री को बुलाया और घर के बाहर नल लगाने के लिए कहा। प्रभुदास ने सोचा था कि नल घर के बाहर होगा तो ज़रूरतमंद बिना संकोच के पानी ले सकेंगे।

गाँव से दौलतपुर आने पर चन्द्रप्रकाश और दमयंती को रोज़ के आठ-नौ मील साइकिल चलाने से  छुटकारा मिल गया। बिना थकावट और अधिक समय मिलने लगा तो चन्द्रप्रकाश और दमयंती का मन पढ़ाई में और अधिक लगने लगा। परिणाम भी सकारात्मक आने लगे। दौलतपुर आने के बाद पहले ही वर्ष दोनों अपनी-अपनी कक्षाओं में प्रथम आए। यह सब देखकर प्रभुदास को अपनी पढ़ाई छूटने का मलाल कम होने लगा। वह सोचने लगा, चन्द्र को खूब पढ़ाऊँगा।

……

अभी साल सवा-साल ही उन्हें दौलतपुर आए हुए हुआ था कि देश के विभाजन की ख़बरें आने लगीं। 15 अगस्त, 1947 को देश स्वतन्त्र हो गया। दो सौ सालों की अंग्रेजों की ग़ुलामी से छुटकारा तो मिला, लेकिन अंग्रेजों की कुचालों तथा नेताओं की महत्त्वाकांक्षाओं के कारण देश के दो टुकड़े भी हो गए। पूर्वी पंजाब और पश्चिमी बंगाल से मुसलमानों का पलायन हुआ तो दुनिया के नक़्शे पर ताज़ा-ताज़ा उभरे पाकिस्तान के पश्चिमी भागों में बड़ी संख्या में हिन्दुओं-सिक्खों तथा पूर्वी पाकिस्तान में बंगाली हिन्दुओं पर मानवता को शर्मसार करने वाले अत्याचार हुए, जिसके फलस्वरूप लाखों लोगों की जानें गईं, करोड़ों को बेघर होना पड़ा। लेकिन इस त्रासदी से दौलतपुर काफ़ी हद तक अछूता रहा, क्योंकि इस क़स्बे में कोई भी मुसलमान नहीं रहता था। फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि इस क़स्बे के जनमानस के जीवन पर विभाजन का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। प्रभाव तो पड़ा, लेकिन दूसरे रूप में। पश्चिमी पाकिस्तान से उजड़कर आए बहुत-से परिवार आश्रय पाने की उम्मीद लेकर यहाँ भी पहुँचे। क़स्बे की धर्मशाला, मन्दिर, गुरुद्वारे तथा सरकारी स्कूलों में जहाँ जिसको जगह मिली, वहीं वह अस्थायी रूप से टिक गया। इस प्रकार क़स्बे में बीस-पच्चीस प्रतिशत आबादी एकाएक बढ़ गई। विस्थापित लोगों में से कुछ के पास थोड़ा-बहुत पैसा-टका था तो अधिकांश अपनी जान बचाकर ख़ाली हाथ ही आ पाए थे। सरकार की ओर से हर सम्भव सहायता देने की कोशिश हो रही थी, लेकिन शरणार्थियों को अधिक सहारा स्थानीय लोगों से ही मिल रहा था। ऐसे कठिन वक़्त में प्रभुदास ने असहाय शरणार्थियों की बढ़चढ़ कर सेवा की। उसने न केवल अपनी लागत पर ज़रूरतमंदों को राशन मुहैया करवाया, बल्कि जिनकी जेबें ख़ाली थीं, उन्हें अपने साथ काम में लगाकर उनकी उदरपूर्ति की। इस संकट के समय में जब प्रभुदास समाज-सेवा में लगा होता था तो दुकान का काम चन्द्रप्रकाश सँभालता था, क्योंकि स्कूल में पढ़ाई तो स्थगित हो गई थी। पार्वती भी घर का काम निपटाकर और दमयंती को साथ लेकर गुरुद्वारे में लंगर सेवा के लिए रोज़ जाती थी। गुरुद्वारे में तो लंगर बनता ही था, गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी ने कुछ सेवकों की हर गली-मुहल्ले से रोटियाँ इकट्ठी करने की ड्यूटी भी लगा रखी थी ताकि अधिक-से-अधिक लोग इस पुनीत कार्य में अपना योगदान दे सकें और किसी भी शरणार्थी को भूखे पेट न सोना पड़े।

क्योंकि दौलतपुर में कोई मुस्लिम परिवार नहीं था, इसलिए यहाँ से पलायन तो हुआ नहीं था। फलतः कोई मकान-दुकान भी ख़ाली नहीं हुए। समस्या थी कि शरणार्थियों के आवास का क्या प्रबन्ध किया जाए? क़स्बे के कुछ प्रमुख समाजसेवियों ने मीटिंग की और प्रशासन से मिलकर शामलात ज़मीन पर एक कॉलोनी बसाने की योजना बनाई। कुछ शरणार्थी तो अपने दूर-नज़दीक के रिश्तेदारों के पास दूसरे क़स्बों-शहरों में चले गए थे, लेकिन अधिकांश इसी कॉलोनी में बस गए। कालान्तर में यह कॉलोनी ‘कच्चे क्वार्टर’ नाम से जानी जाने लगी।

…….

शाम धुँधलाने लगी थी और प्रभुदास दुकान बन्द करने की तैयारी कर रहा था कि एक व्यक्ति, जो उम्र में उससे लगभग दस वर्ष बड़ा था, ने आकर ‘सेठ जी, राम राम’ कहा। प्रभुदास ने भी ‘राम राम’ का जवाब ‘राम राम’ कहकर दिया। उसे लगा जैसे आगन्तुक को पहले देखा है, किन्तु पहचान नहीं बन रही थी। इसलिए उसने पूछा - ‘कहो भाई, कुछ लेना है क्या?’

‘सेठ जी, लेना तो कुछ नहीं इस समय। यदि आपको दुकान बन्द करने की जल्दी ना हो तो आपसे दो-चार बातें करने का मन है।’

विनम्रता के साथ आगन्तुक के चेहरे से आत्मविश्वास झलक रहा था। यह प्रभुदास से छिपा न रहा। उसने उत्तर दिया - ‘आओ बैठो। आप शायद बाहर से आने वालों में से हैं! आपका क्या नाम है?’

‘आपने ठीक पहचाना। मैं तो लगभग हर रोज़ ही आपको मेरे जैसे शरणार्थियों की सेवा करते देखता हूँ। आपके सेवाभाव से हम लोग बहुत प्रभावित हैं। मेरा नाम रामरतन है।’

‘बड़ा सुन्दर नाम है!’

‘आपका नाम भी कुछ कम सुन्दर नहीं, सेठ जी। जैसा आपका नाम है, वैसा आपका काम है। प्रभुदास यानी प्रभु का दास यानी प्रभु के बच्चों का सेवादार।’

‘रामरतन जी, आप उम्र में मेरे से बड़े हैं। आप किन परिस्थितियों से गुजरकर यहाँ इस हालत में हैं, मुझे मालूम नहीं, लेकिन मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि आप ख़ानदानी परिवार से हैं।’

प्रभुदास से अपने परिवार का उल्लेख सुनकर रामरतन कुछ महीने पूर्व हुए हादसे की याद में खो गया। कुछ क्षणों में स्वयं को व्यवस्थित करते हुए उसने कहा - ‘सेठ जी, मैं आपके अनुमान को  झुठलाऊँगा नहीं। उजड़ने से पहले हमारा परिवार भी सियालकोट में ‘लाला हरीचन्द’ के नाम से जाना जाता था। दंगाइयों के निर्मम हाथों सारा परिवार कत्ल कर दिया गया। मैं निरभाग बच गया, क्योंकि मैं उस दिन अपने परिवार के साथ नहीं था, दो दिन पहले ही लाहौर आया था।’

‘बड़ा दु:ख हो रहा है यह सब सुनकर। लेकिन आप खुद को निरभाग ना कहो। परमात्मा का शुक्र है कि आप सही सलामत हैं। आप अपने परिवार का नाम फिर से रोशन करेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है।’

‘शुक्रिया सेठ जी।’

‘रामरतन जी, आप उम्र में ही मेरे से बड़े नहीं, आपका तजुर्बा भी कहीं अधिक है, इसलिए मुझे ‘सेठ जी’ कहकर न बुलाओ। मेरा नाम लोगे तो मुझे अच्छा लगेगा।’

‘आपका बड़प्पन है कि आप ऐसा कह रहे हैं। प्रभुदास जी, आदमी उम्र की सालों में गिनती से ही बड़ा नहीं होता, अपने बर्ताव, अपनी सोच से बड़ा होता है। इस लिहाज़ से आप वाक़ई श्रद्धा के पात्र हैं।’

रात तेज़ी से कदम बढ़ाती आ रही थी। रोज़ाना से काफ़ी लेट होने पर भी प्रभुदास के घर न पहुँचने पर पार्वती ने चन्द्रप्रकाश को भाई का पता करने के लिए दुकान पर भेजा। चन्द्रप्रकाश को यह कहकर कि दस मिनट में आ रहा हूँ, प्रभुदास ने उसे वापस भेज दिया। फिर रामरतन को सम्बोधित करते हुए कहा - ‘भाई साहब, आप मेरे साथ घर चलो। इकट्ठे बैठकर माँ के हाथ का बना खाना खाएँगे और जो बात आप करना चाहते हैं, वह भी इत्मीनान से कर लेंगे।’

‘वैसे तो जबसे यहाँ आया हूँ, रोज़ ही किसी-न-किसी माँ या बहन के हाथ का बना खाना ही खा रहा हूँ, लेकिन आज जबकि आपने भाई कहा है तो माँ के दर्शन ज़रूर करना चाहूँगा।’

प्रभुदास ने गद्दी से उठते हुए सुक्खे को दुकान बन्द करने के लिए कहा और स्वयं रामरतन के साथ सड़क पर आ खड़ा हुआ। सुक्खे से चाबी पकड़कर नए-नए बने दोनों भाई घर की ओर चल पड़े।

जब वे घर पहुँचे तो बैठक में लैम्प जलाकर चन्द्रप्रकाश पढ़ने में तल्लीन था। प्रभुदास ने बैठक में कदम रखते हुए कहा - ‘चन्द्र, किताब से नज़रें हटाकर देखो! आज हमारा बड़ा भाई घर आया है। उठो और इन्हें प्रणाम करो।’

चन्द्रप्रकाश दुकान पर रामरतन को प्रभुदास के साथ बातें करते देख चुका था, किन्तु प्रभुदास की बात का अर्थ उसकी समझ में नहीं आया, फिर भी अन्यमनस्क भाव से उसने बैठे-बैठे ही नमस्ते कर दी। रामरतन ने नमस्ते का उत्तर देते हुए पूछा - ‘क्या पढ़ रहे हो भाई?’

‘छुट्टियों से पहले हमारे सोशल स्टडीज़ के मास्टर जी ने गाँधी जी की ‘आत्मकथा’ दी थी, वही पढ़ रहा हूँ।’

‘इसमें गाँधी जी ने क्या लिखा है?’

चन्द्रप्रकाश को रामरतन की अनभिज्ञता देखकर अच्छा लगा और अपनी पढ़ाई पर गर्व हुआ। अत: उसने बड़े उत्साह के साथ बताया - ‘गाँधी जी ने इस किताब का नाम रखा है ‘सत्य के प्रयोग’। इसमें गाँधी जी ने सत्य, अहिंसा और ईश्वर के प्रति अपने विचार व्यक्त किए हैं।’

‘आपने सारी किताब पढ़ ली है?’

‘अभी तक लगभग आधी पढ़ी है।’

‘यह किताब कब लिखी गई थी?’

‘गाँधी जी ने इसे 1925 में लिखना शुरू किया था और 1929 में पूरा किया था।’

‘फिर तो देश के बँटवारे का इसमें उल्लेख होने का सवाल ही पैदा नहीं होता…।’

‘हाँ, देश का बँटवारा तो अभी कुछ महीने पहले ही हुआ था। लेकिन बँटवारे के साथ गाँधी को क्यों जोड़ना चाहते हैं? हमारे मास्टर जी ने बताया था कि देश को आज़ाद करवाने में गाँधी जी का बहुत बड़ा योगदान है।’

‘योगदान तो रहा होगा, लेकिन बँटवारे में….’ रामरतन की बात पूरी नहीं हुई थी कि पार्वती ने बैठक में प्रवेश किया। रामरतन ने अपनी बात बीच में ही छोड़ दी। आँगन में रखी लालटेन की मद्धम रोशनी की वजह से पार्वती को पता नहीं चला था कि प्रभुदास के साथ कोई और भी घर में आया है। यह तो बातचीत की आवाज़ों में अपरिचित स्वर ने उसे बैठक में आने के लिए विवश कर दिया। उसे आया देखकर रामरतन को समझते देर नहीं लगी कि यही प्रभुदास की माता हैं, सो उसने पार्वती के पाँव छूते हुए ‘पैरी पैना माँ जी’ कहा। पार्वती ने भी उसका परिचय जाने बिना ‘जुग जुग जियो, ख़ुश रहो बेटा’ का आशीर्वाद दिया। तदनन्तर प्रभुदास ने रामरतन का परिचय दिया और कहा - ‘माँ, रामरतन जी आज हमारे साथ ही खाना खाएँगे और रात को यहीं रहेंगे।’

‘बड़ी ख़ुशी की बात है पुत्तर। मैं अभी तुम दोनों के लिए खाना परोसती हूँ।’

सितम्बर के आख़िरी दिन थे, लेकिन अभी ये लोग सोते छत पर ही थे। दमयंती पार्वती के साथ छत की एक ओर सोती थी और लड़कों की चारपाइयाँ छत के दूसरी ओर होती थीं। आज रामरतन के लिए एक और चारपाई लगाई गई। यह चारपाई प्रभुदास ने अपनी तथा चन्द्रप्रकाश की चारपाई के मध्य लगवाई थी ताकि दोनों मित्र बातें कर सकें और रामरतन को अपनापन भी महसूस हो।

देर तक दोनों मित्रों ने खूब बातें कीं। रामरतन ने बताया कि जब वह किसी तरह सियालकोट पहुँचा तो उनकी सारी गली श्मशान में परिवर्तित हो चुकी थी। बाज़ार में गया तो देखा तो अन्य दुकानों के साथ उनकी दुकान भी तहस-नहस हुई पड़ी थी। बदहवास हालत में हाथों में अटैची लिए वह गुरुद्वारे पहुँचा। उस जैसे काफ़ी लोग वहाँ शरण लिए हुए थे। दो-तीन दिन बाद एक मिलिटरी की गाड़ी उन्हें बॉर्डर तक छोड़कर गई। उसने बताया कि परिवार के अन्य सदस्यों के संग उसके दो मासूम बेटे भी निर्दयी दंगाइयों के हाथों मारे गए। उसके ननिहाल तथा ससुराल वालों की भी कोई खोज-खबर नहीं मिली। पता नहीं, उनमें से कोई ज़िन्दा है भी या नहीं। अगर कोई ज़िन्दा है तो कहाँ है, कुछ पता नहीं। उसने इच्छा जताई कि वह प्रभुदास के साथ मिलकर कोई काम-धंधा करना चाहता है तो प्रभुदास ने कहा - ‘मैं तो अकेला दुकान सँभालता हूँ, मैं आपके साथ और काम कैसे शुरू कर सकता हूँ, क्योंकि चन्द्रप्रकाश अभी पढ़ रहा है।’

‘भाई, आप मुझे यह बताओ कि कौन-सा नया काम किया जा सकता है, जिसके लिए अधिक पैसों की ज़रूरत ना हो? काम तो मैं अकेला ही सँभाल लूँगा। क्योंकि इस इलाक़े में लोगों में आपकी बहुत इज़्ज़त है, इसलिए दुकान में आपका नाम होगा, उसके बदले मुनाफ़े में आपका हिस्सा रहेगा।’

प्रभुदास को रामरतन की योजना जँच गई। उसने तुरन्त कहा - ‘कम लागत में तो आढ़त का काम शुरू किया जा सकता है। आसपास के गाँवों के काफ़ी ज़मींदार मेरे वाक़िफ़ हैं। अगर उन्हें जाकर मिलेंगे तो वे अपनी फसल हमारी दुकान पर बेचने के लिए राज़ी हो सकते हैं। दूसरे, यह ऐसा धंधा है जिसे एक आदमी अकेले भी सँभाल सकता है।’

इस प्रकार दोनों में सहमति बन गई कि जल्दी-से-जल्दी एक दुकान किराए पर ली जाए और आढ़त का काम शुरू किया जाए।

सुबह उठकर जब रामरतन जाने लगा तो पार्वती ने कहा - ‘बेटा, जब तक और कोई व्यवस्था नहीं बनती, तुम अपने कपड़े-लत्ते यहीं उठा लाओ।’

प्रभुदास ने भी माँ की बात का समर्थन किया तो रामरतन इनकार नहीं कर पाया।p

॰॰॰॰