अनूठी पहल - 14 Lajpat Rai Garg द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 47

    पिछले भाग में हम ने देखा कि फीलिक्स को एक औरत बार बार दिखती...

  • इश्क दा मारा - 38

    रानी का सवाल सुन कर राधा गुस्से से रानी की तरफ देखने लगती है...

श्रेणी
शेयर करे

अनूठी पहल - 14

- 14 -

पवन के विवाह की बात पार्वती ने आरम्भ की, प्रभुदास और सुशीला ने मन बनाया तो ऐसे काम को सिरे चढ़ने में देर कहाँ लगनी थी? प्रभुदास से फ़ोन पर बात होने के तुरन्त बाद प्रमिला ने अपनी ननद किरण से बात की। किरण ने कहा - ‘भाभी, आप अपनी बहन के बेटे के लिए कृष्णा का हाथ माँग रही हैं, इससे बड़ी ख़ुशी हमारे लिए और क्या होगी? रात को जब ये घर आएँगे तो मैं बात करके आपको सूचित करती हूँ।’

किरण को अपनी भाभी के परिवार की पूरी जानकारी थी। उसे प्रभुदास के कारोबार तथा सामाजिक रुतबे का भी पता था। पारिवारिक समारोहों में किरण सुशीला से कई बार मिल चुकी थी। उसे उसमें किसी तरह के अहम की कभी बू नहीं आई बल्कि प्रेम-भाव ही अनुभव हुआ था। दूसरे जब प्रमिला स्वभाव की इतनी अच्छी है तो उसकी बहन के साथ कृष्णा को घर चलाने में किसी तरह की दिक़्क़त की गुंजाइश नहीं होनी चाहिए। वह पति सूर्यकान्त के साथ अपने मन की बात साझा करने को बेताब थी, इसलिए जब रात को वह घर आया तो किरण ने बताया कि प्रमिला भाभी का फ़ोन आया था। सूर्यकान्त की ऑफिस में अपने सीनियर से कहा-सुनी हो गई थी, तब से उसका मन अशान्त था, इसलिए उसने कहा - ‘फ़ोन-वोन की बात बाद में करना, पहले तू खाना लगा।’

सूर्यकान्त को परेशान देखकर किरण ने पूछा - ‘कोई परेशानी है क्या?’

सूर्यकान्त ने खीजते हुए कहा - ‘तुझे कहा ना, खाना लगा। समझ नहीं आती तुझे?’

जब दो व्यक्तियों की सोच की दिशाएँ भिन्न-भिन्न होती हैं तो अवांछनीय स्थिति से तभी बचा जा सकता है जब उनमें से कोई एक स्वयं को प्रतिक्रिया देने से रोक ले। यहाँ भी किरण ने चुप रह जाना श्रेयस्कर समझा। उसने खाना परोस दिया और मन के उत्साह पर लगाम लगाते हुए रसोई समेटने में लग गई।

सूर्यकान्त ने बेडरूम में जाकर सिगरेट सुलगाई। जब तक किरण बेडरूम में आई, सूर्यकान्त तीन सिगरेटें फूंक चुका था। सिगरेट की गंध से किरण को नफ़रत थी, इसलिए सूर्यकान्त अपनी तलब घर से बाहर ही पूरी किया करता था, किन्तु आज बेडरूम में सिगरेट की गंध तथा घर आने पर उसके व्यवहार से किरण सोच रही थी कि सूर्यकान्त ज़रूर किसी बड़ी परेशानी में है। अत: उसने उसकी परेशानी को जानने या उसे सिगरेट पीने के लिए टोकने की बजाय कहा - ‘आप अपनी परेशानी मुझे नहीं बताना चाहते, ना सही, लेकिन मेरी बात सुन लो। मुझे विश्वास है कि मेरी बात सुनकर आपकी परेशानी दूर हो जाएगी।’

हुआ भी ऐसा ही। किरण से पूरी बात सुनते ही सूर्यकान्त बोला - ‘किरण, यह तो बड़ी अच्छी ख़बर सुनाई है तूने। बहुत दिनों से कृष्णा के लिए अच्छे लड़के की चिंता भी मेरी परेशानी का एक कारण था। प्रमिला के जीजे का इलाक़े में नाम है। ऐसे आदमियों से रिश्ता जुड़ गया तो मैं तो गंगा नहा लूँगा। तू प्रमिला भाभी को फ़ोन कर दे कि इतवार को हम दौलतपुर जाएँगे। ….. कल तू कृष्णा को कहना कि एक अच्छी-सी फ़ोटो खिंचवा लेगी।’

……..

पंजाब में आतंकवाद पैर पसारने लगा था। भिंडरावाले के समर्थक छुट-पुट वारदातों को अंजाम देने लगे थे। इन परिस्थितियों के दृष्टिगत पंजाब में लोग रात के विवाह करने से कतराने लगे थे और दिन में विवाह की सभी रस्में सम्पन्न करने का चलन हो गया था। इतना ही नहीं, विवाह में बारातियों की संख्या भी सीमित होने लगी थी। यह सब प्रभुदास के दृष्टिकोण से मेल खाता था, क्योंकि वह फ़िज़ूलख़र्ची को नापसन्द करता था।

विवाह में जूते चुराने की रस्म में पवन की साली प्रीति और दीपक में खूब हँसी-मज़ाक़ हुआ। प्रीति का साथ देने के लिए और भी कई लड़कियाँ थीं, किन्तु वर-पक्ष की ओर से दीपक और उसकी बुआ के बेटे राजीव ने कमान सँभाली हुई थी। इस रस्म को लम्बी खिंचती देखकर प्रभुदास ने दीपक को कहा - ‘बेटे, अब बस करो। बेटियाँ जो माँगती हैं, मुझे बताओ। हँसी-मज़ाक़ ज़्यादा खिंचने पर कभी-कभी पीछे कड़वाहट छोड़ जाता है।’ और उसने प्रीति को बुलाकर उसकी मुट्ठी में शगुन के रुपए रखकर मुट्ठी बन्द कर दी। रस्म पूरी हो गई।

जब बारात घर लौटी और बहू का गृह-प्रवेश होने लगा तो रौली के थाल में पैर रखकर जैसे ही कृष्णा  दायाँ पैर फ़र्श पर रखने लगी तो प्रभुदास ने कहा - ‘रुको बहू,’ और सुशीला को सम्बोधित करते हुए कहा - ‘बहू के पैरों के निशान फ़र्श पर नहीं, सफ़ेद नये कपड़े पर लगवाएँगे, क्योंकि फ़र्श पर पड़े निशान तो सुबह होते ही पोंछ दिए जाएँगे, किन्तु मैं गृहलक्ष्मी के घर में प्रवेश करने के निशान सँभाल कर रखना चाहता हूँ।’

प्रभुदास के उक्त कथन पर सभी उपस्थित रिश्तेदारों ने खूब सराहना की, तालियाँ बजाईं। कृष्णा मन-ही-मन अपने ससुर के चरणों में नतमस्तक हो गई।

*****