राजा पुरू ने कहा था कि दूसरे के साथ वैसा ही व्यवहार करो जैसे एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है |यह वाक्य स्त्री पुरुष सम्बन्धों को सुधारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है |स्त्री सदियों से असमानता के खिलाफ संघर्ष कर रही है पर जब तक पुरूष आगे बढ़कर उसका सहयोग नहीं करेगा ,न संघर्ष समाप्त होगा न अपेक्षित सफलता मिलेगी |
आज की स्त्री एक नयी स्त्री है जो ऐसे पुरूष से प्रेम करना चाहती है ,जो उसके प्रति संवेदनशील हो |क्या संवेदनशील पुरूष सिर्फ कल्पना की वस्तु है ?क्या इस दुनिया में उसका कहीं वजूद नहीं ?स्त्री को ऐसे पुरूष की आकांक्षा नहीं जो मुग्ध भाव से उसकी देह को निहारे,सराहे और भोगे, बल्कि उसे एक ऐसे पुरूष की आकांक्षा है ,जिसके सामने वह अपना मन खोल सके |सारे दुख-सुख बाँट सके ,वह भी बिना इस डर के कि वह इसे अपने हिसाब से विसंरचित नहीं करेगा ?वह उसको उसी की भावना के अनुसार समझेगा |अक्सर तो पुरूष स्त्री के खुलेपन को आमंत्रण समझ लेता है |
बहुत कम पुरूष होते हैं जिनके साथ स्त्री निश्चिंत बैठ-बतिया सके |पुरूष के लिए स्त्री हमेशा देह रूप में रहती है |बहुत हुआ तो मन या बुद्धि या आत्मा हो गयी |एक जीती-जागती स्त्री को सिर्फ देह या सिर्फ मन या सिर्फ बुद्धि या सिर्फ आत्मा मानना कहाँ का न्याय है?यह कैसी विडम्बना है कि पुरूष स्त्री को उसकी संपूर्णता में नहीं समझ पाता |
क्या किसी पुरूष के पास इन जरूरी प्रश्नों का उत्तर है ?
आज की स्त्री एक नयी स्त्री है ,जो पुराने साँचे को तोड़ कर पुरूषों के समानान्तर जगह बनाने में कामयाब हो रही है |ऐसी स्त्री से पुरूष तादात्मय स्थापित नहीं कर पा रहा है |उसे पुरानी स्त्री का रूप ही पसंद है |बंदिनी स्त्री ,मुखापेक्षी स्त्री ,गूंगी स्त्री देवी ,दासी या फिर वेश्या |नयी स्त्री पुरूष को मित्र रूप में देख रही है देवता या मालिक रूप में नहीं ,जिससे वह बौखला उठा है |इस बौखलाहट ने उसे हिंसक बना दिया है |आज जो चारों तरफ स्त्री –हिंसा का वातावरण व्याप्त है |इसकी एक वजह यह भी है|
क्यों पुरूष में नयी स्त्री का दोस्त बनने का माद्दा नहीं है ?क्यों वह स्त्रीत्व का उत्सव नहीं मना सकता ?स्त्री की दुविधाओं ,अंतर्विरोधों और तकलीफ़ों को संवेदनशीलता के साथ नहीं समझ सकता ?उसका स्त्री नजरिया दोस्ताना क्यों नहीं हो सकता है ?वह एक हंसमुख दोस्त क्यों नहीं बन सकता ?उसकी दृष्टि-संवेदनशील और परिमार्जित क्यों नहीं हो सकती ? क्यों वह स्त्री के साथ उसी तरह का व्यवहार नहीं कर सकता जैसा अपने लिए चाहता है|
क्या कोई पुरूष ऐसा है ‘जो मार खा रोई नहीं’ की व्यथा और विडम्बना समझ सके ?जो स्त्री के संरक्षक की जगह सहानुभूतिशील सहभोक्ता बन सके ?स्त्री को छूछी हमदर्दी नहीं चाहिए उसे पुरूष की की सक्रिय समझदारी और आपसदारी चाहिए |जब पुरूष स्त्री की देह,मन और मनीषा को सूक्ष्मता के साथ समझ लेगा तो सारा विमर्श यूं ही समाप्त हो जाएगा|
नयी स्त्री उसी से ताल-छंद बना सकती है जो एक साथ शालीन और मजबूत दोनों हो |उदण्ड ,दंभी और हिंसक पुरूष स्त्री के सपनों का धीरोदात्त्त \धीरललित\धीरप्रशांत नायक कैसे हो सकता है ?किसी पुरूष की मनोवैज्ञानिक कुंठाओं,कमजोरियों ,कापुरूषकलावाजियों पर स्त्री तरस तो खा सकती है,उससे प्रेम नहीं कर सकती |
नयी स्त्री पारंपरिक स्त्री की तरह परम पावन,कर्तव्य-भाव समझकर अपात्र से प्रेम नहीं कर सकती |