इश्क बचपन का ही क्यों ? दार्शनिक दृष्टि बिट्टू श्री दार्शनिक द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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इश्क बचपन का ही क्यों ? दार्शनिक दृष्टि

अक्सर ऐसा देखा है या सुना है या अनुभव किया है ना की शादी के बाद इश्क या प्रेम या प्यार कम हो जाता है!
प्यार पहले जैसा नहीं रहता...!
दरअसल होता कुछ यूं है की,
इश्क / प्रेम / प्यार ऐसी भावना है जो केवल संपूर्ण स्वतंत्रता के वातावरण में ही जन्म लेती है। सम्मान, सफलता, सकारात्मकता, नि:दोषता, स्वीकार, प्रयास, त्याग, प्रयास, विश्वास, दीर्घदृष्टिता, संतोष, अन्य की मदद के लिए हमेशा आगे रहना आदि सकारात्मक भावों से पोषण पा कर वृद्धि को प्राप्त होता है।
जब भी इन में से एक अथवा अधिक की हानी होती है तो प्रेम / इश्क के भाव को हानी होती ही है। या तो कमी आती है या फिर उसका जन्म ही संभव नहीं हो पाता।
पहले के वक्त में अधिकांश परिवारों में इन भावों की कोई कमी नहीं होती थी। वे कितनी भी खराब परिस्थिती में संतुष्ट रहते थे, अनावश्यक चिंता को एक दूसरे के साथ - सहयोग से नष्ट करने का सदैव प्रयास करते थे।

अभी के वक्त का हाल कुछ यूं है की,
शादी के बाद अपना और अपनी स्त्री के सुखी जीवन के लिए सारा जिम्मा केवल पुरुष पे आ पड़ता है।
ऐसे में पुरुष अधिकांश समय और ऊर्जा अकेले ही अपनी आय बढ़ाने के प्रयास में लगा देता है। जहां स्वार्थी रिश्तेदार और परिवार के लोग उस पर विश्वास नहीं दिखाते है। ऐसे में वह पुरुष सक्षम होते हुए भी केवल अविश्वास के कारण चिंतित हो कर दुःख में समाहित होने लगता है। इस वजह से उसकी आय भी कम होने की वजह से उस पुरुष की स्त्री भी खुश नहीं रहती है और वैवाहिक जीवन में क्लेश आने लगते है। यह पुरुष चाह कर के भी अपनी पत्नी को ना ही मना पाता है और ना ही स्वयं से प्रेम व्यक्त करने का तरीका सोच पाता है। यह स्थिति इश्क / प्रेम का अंत अत्यंत ही शीघ्र ला देती है।

किंतु बात जब बचपन (बाल आयु) के प्रेम / इश्क की हो जहां आय का कोई बोझ किसी के लिए नहीं होता है तब वे एक दूसरे के मन और चरित्र को समझने का अधिक अच्छा प्रयास करते है और चिंतित न होने के कारण एक दूसरे का स्वीकार भी करते है।
बालकों की आयु में उन्हे न तो सम्मान की चिंता होती है, न तो भविष्य की कोई चिंता न ही उन्हे अपने परिवार का पोषण करना होता है। वे केवल अपने वर्तमान के समय में जीते है और एक दूजे का स्वीकार करते हैं। ऐसे में वे अपना ध्यान अपने प्रेम और कार्य पर लगाते है। जहां कोई भय / डर नहीं होता। जहां एक दूजे में कोई दोष नहीं ढूंढा जाता।

मैने यह बात लगभग हर स्थान पर देखी है की, आज के समय में बालकों की आयु के बाद किसी अन्य में दोष ढूंढने का तरीका अच्छे से सीखा दिया जाता है। जिससे विश्वास का उत्पन्न होना ही संभव नहीं। ऐसे में प्रेम / इश्क संभव ही नहीं हो पाता।
बाल्यावस्था में अथवा बाल सहज प्रवृत्ति में व्यक्ति अपने वर्तमान समय में अन्य किसी व्यक्ति के साथ केवल आनंद करता है। यहीं आनंद प्रेम / इश्क / प्यार का उद्गम बनता है।

शादी / विवाह के पश्चात अधिकतर युगलों में यह आनंद कोई निजी / पारिवारिक / सामाजिक / धार्मिक / वैवाहिक / आर्थिक / नैतिक / स्वास्थ्य समस्या आदि एक अथवा अधिक कारणों की वजह से कम अथवा खत्म हो जाता है। इन्ही ज़िम्मेदारी को संभालने में असमर्थ बनने के कारण विवाह की आयु अथवा विवाह के पश्चात एक आयु के बाद उस प्रेम / इश्क की अनुभूति का आनंद नहीं हो पाता है।

अधिकांश धनाढ्य लोगो में एक मुख्य आर्थिक परिस्थिती का कम दबाव होने के कारण तथा अन्य लोगो से सरलता से सहायता मिलने के कारण वे अपने निजी जीवन का आनंद अधिक सरलता से ले पाते है तथा अपने साथी के साथ निजी समय व्यतीत कर पाते है।

यही परिस्थिती बालको में भी होती है जब वह शिक्षा ग्रहण करने की आयु में होते है। उन पर किसी खर्चे तथा आय का कोई दबाव नहीं होता, ना ही उन पर किसी के भरण पोषण की जिम्मेदारी ना ही किसी परिस्थिती का उत्तरदायित्व। यह बोझ मुक्त समय और आयु, बालको में प्रेम / इश्क उत्पन्न करता ही है और उस भाव का बढ़ावा देता है। शादी / ब्याह के बाद दोनो पर जिम्मेदारियां आने की वजह से दोनो में प्रेम के भाव में कटौती आती है अथवा उत्पन्न होना बंद हो जाता है।

- आचार्य जिज्ञासु चौहान (बिट्टू श्री दार्शनिक)
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