२४ मार्च २०२१ पहली मुलाकात सखी से बिट्टू श्री दार्शनिक द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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२४ मार्च २०२१ पहली मुलाकात सखी से

दुनियां में हर किसी का कोई न कोई दोस्त होता ही है।
अगर ना हो तो बनानेे पड़ते है। खुशनसीब लोगों को सामने से मिल जाते है।
में भी उनमें से एक हुं, जिसे एक अच्छी दोस्त मिली। हां दोस्त बनाने के लिए शुरुआत मैने ही करी थी, पर वो हर किसी की इतनी अच्छी दोस्त नहीं है।
बेस्टफ्रेंड कभी नए नहीं होते। वो अक्सर कुछ साल या ज्यादा पुराने होते है। पर मेरी ये नई दोस्त शायद शुरू से ही बेस्टफ्रेंड मटीरियल है। वो ये कहानी पढ़ेगी या देखेगी तो पक्का जान जायेगी की उसीके बारे में बात करी है। लोग इसे दोस्त पाकर प्रार्थना करते है की, " ऐसा दोस्त सबको मिले !"। में ऐसी प्रार्थना करके अपनी इतनी अच्छी दोस्त खोना नहीं चाहता।
चलो छोड़ो ये बाते हमारी पहली मुलाकात के बारे में बताता हूं।
तकरीबन एक साल होने को ही है हमारी दोस्ती को। शायद वो नहीं जानती। २४ मार्च को पहली बार मिले थे हम। कहां ?! वहीं ! आज के जमाने का कॉमन मीटिंग पॉइंट! सोसियल मीडिया। उसने एक पोस्ट करी थी, इंसानी फितरत के बारे में। तो मेंने भी ज्ञान बांटती हुई एक लंबी चौड़ी कॉमेंट कर दी। फिर क्या, सब वाह वाई करते थे और मेरी कमेन्ट का छोर खुला था। तो उसने भी ज्ञान देती हुई और मुझे सुधारती हुई रिप्लाई करी। दूसरे दिन साम तक हम दोनो कॉमेंट में ज्ञान की लेन - देन ही करते रहे।
वहां थोड़ा ज्यादा हो रहा था ऐसा लगा तो उसने पर्सनल मैसेज भेजा और वहां हमारी बहस शुरू।
उसका मुद्दा था की, कोई इंसान जूठ बोल रहा है ये कैसे पता करे ? और मेरा मुद्दा था की इंसान जूठ बोल रहा है ऐसा लगे तो बिना ठोस सबूत के उसे जूठा मान लेना ठीक नहीं। तकरीबन दो दिन की लगातार बहस के बाद मैने पूछा, "फ्रैंड्स ?!" रिप्लाई आया "यस फ्रैंड्स"। हां एक बात तो बताना ही भूल गया की ये बहस तीन भाषाओं में हो रही थी। गुजराती, हिंदी और अंग्रेजी। हिंदी का उपयोग कम ही हो रहा था। उस दो दिन में तो एक दूसरे की इतनी सारी अच्छी बातों को ढूंढा की, हम दोनो को आज भी यकीन ना हों। मुझे तो आज भी यकीन नहीं हो रहा की मुझ में सच में इतनी अच्छाई और खूबियां भरी है।
अगले दिन २६ को उसका मेसेज आया, "Nice to argue with you". मैं हैरान था। में अभी तक उसे "डिस्कशन" या "चर्चा विचारणा" समझ रहा था। हा हा हा हा हा हा ! फिर हमारी बहस शुरू हुई "आर्गुमेंट और चर्चा - विचारणा" के भेद पर।
फिर क्या हमारी दोस्ती गहरी होती गई। यही तो होता है। वो मेरे लिए "मेरी फ्रेंड" से "मेरी सखी" हो गई। फिर कुछ यहां वहां की बाते और खुद क्या करते है ये सब बातें। पर मेरी उस पक्की सखी ने आज तक मुझे ये नहीं पूछा की, "क्या काम करते हो ?" २७ या २८ तारीख तक तो ऐसे ही बातें चली। वो अपने बारे में कुछ नहीं बताती थी। में सारी बातें बताता। मेरी सखी जो थी। उस दो दिन में उसन मुझे पूछा "आपकी शादी हो गई ?" इतने दिनो तक तो हमें एक दुसरे के बारे में ये तक नहीं पता था की सामने वाला बच्चा है या बड़ा है या बुजुर्ग है या कुछ और ! शायद फ्रॉड भी हो सकता था। मेरी नहीं हुई थी तो मना कर दिया। फिर उसने आगे कुछ ना पूछा। उसका बात करने का सलीका, बतों की मासूमियत, बातों में भरोसा और उसके बात करने के मुद्दे देख कर लगा की उसकी शादी नहीं हुई होगी। अगले दिन जैसे तैसे मैने पूछा तो उसने सामने पूछा,
"आपको क्या लगता है ?! मेरी शादी हो गई है या नहीं ?"
मेंने कहा, "नही हुई होगी।"
"हो गई है, तीन साल हुए।" एक और झटका देते हुए कहा।
तब लगा शायद कोई आंटी होगी जिनका स्वभाव अच्छा है, जिन्होने अपनी मासुमियत और खुद पर भरोसा बनाए रखा है। भले ही अब वो मुझसे काफ़ी बड़ी हो पर ये सखी मेरी चहीती होती जा रही थी। अगले एक दो दिन में उसे मुझ पर और भरोसा हुआ, तब मैने सीधे से उसकी जन्म की तारीख पूछी। हां यह सच है की किसी भी स्त्री को उसकी उम्र नहीं पूछते, पर मैने उसे जन्मदिन की शुभकामनाए कब देनी है उस इरादे से पूछा। तब मुझे एक और जटका लगा। वो कहते है ना कुछ भी हो सकता है। मुझे पता लगा की, वो मुझसे महज कुछ हफ्ते से छोटी है। तब जा कर मैने सीखा की, दोस्ती को शादी से कोई वास्ता नहीं होता। अच्छा स्वभाव, किसी पे भरोसा करना अच्छी बात है। मेरी ये सखी उन लोगों में से है जो शादी के बाद किसी को अपनी जायदात या प्रॉपर्टी नहीं समझते। ना ही किसी की प्रॉपर्टी बनते है। मेरी ये सखी ने बिना कुछ बोले या बताए मुझे सीखा दिया की अच्छाई कैसी होती है। मुझे ये भी सीखा दिया की किसी के बारे मैं कभी कोई पूर्वधारणा नहीं बनानी चाहिए। और ना ही उनकी परवरिश संकुचित मानसिकता से होती है।
हां हम दोनो को छोटी मोटी कहानी और कविताएं लिखने का अच्छा शौक था। हां आज भी है। एक बात मजे की ये थी की, हम दोनो एक दूसरे की कविता का इंतजार करते थे। और बातों बातों में कविता के जरिए भी बात करते थे। हा हा हा हा हा हा हा ! पूरी पागलपंती थी। पर जुगलबंदी ठीकठाक कर लेते थे। उन कविताओं को हम हिंदी से गुजराती और गुजराती से हिंदी में अनुवाद भी किया करते थे। बहोत सारी ऐसी कविताएं है जो हमने साथ लिखी थी। एक बात तो "सखा - सखी टोक्स" के नाम से संभाल कर के रखी है। आज भी कभी याद करते है की कितनी कविताएं लिखी थी। अक्सर हम जघड़े भी किया करते थे की तुम्हारी कहानी बेकार है। उसमे ये सुधारो, वो सुधारो, ऐसे करो, वैसे करो और दूसरा मानने को तैयार नहीं। पर एक दूसरे का खयाल भी काफी रखा। जूठ नहीं बोलूंगा पर मेरी सखी ने मेरा खयाल ज्यादा रखा था। मतलब आज भी रखती ही है। बेस्ट फ्रेंड जो ठहरी। अगर ना रखे तो, उसका तो कोई प्रश्न ही नहीं।
वो तो मेरे लिए जैसे मेरी मां ही थी। आज मैं उसे "सखी मां" ही पुकारता हूं। मेरी हर शिकायत सुनी, उसका हल भी बताती, प्यार से समझाती।
मैने उसके लिए भी कविताएं लिखी थी। उसे बताई थी। हमारा रिश्ता उतना गहरा और अच्छा हो गया की
मेरी ये सखी सिर्फ फ़ोन में मेसेज तक होने के बावजूद भी जैसे ठीक मेरे महोल्ले की बचपन की सहेली हो।
हां वैसी ही सहेली जिसका किसी भी मौके पे होना हमारे लिए सबसे जरूरी होता है।
पर शायद कोई नजर लग गई मेरी सखी और हमारी दोस्ती को या फिर शायद मुझे।

वो आगे के भाग में।

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