एक था ठुनठुनिया - 26 - अंतिम भाग Prakash Manu द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

एक था ठुनठुनिया - 26 - अंतिम भाग

26

हाँ, रे ठुनठुनिया...!

ठुनठुनिया बारहवीं की परीक्ष देकर कुमार साहब के पास पहुँचा तो उसका दिन धुक-धुक कर रहा था। उसके मन में अजब-सा संकोच था। वह सोच रहा था, ‘फंक्शन की बात कुछ और है। पता नहीं, कुमार साहब अब मुझे पहचानेंगे भी कि नहीं?’

पर कुमार साहब तो जैसे उसी का इंतजार कर रहे थे। उसे पास बैठाकर चाय पिलाई और फिर अपने साथ ले जाकर पूरी फैक्टरी में घुमाया। फैक्टरी की एक-एक मशीन और उनके काम के बारे में बड़े विस्तार से बताया। आज की दुनिया में डिजाइनिंग के नए-नए तरीकों के बारे में बताया, जिसमें बहुत कुछ नया था तो साथ ही सदियों पुरानी सीधी-सरल लोककला का रंग-ढंग भी शामिल था।

ठुनठुनिया चुपचाप गौर से सुनता जा रहा था। कुमार साहब की बातें उसे किसी जादू-मंतर जैसी लग रही थीं। कुछ समय बाद उसने कुमार साहब से चलने की इजाजत माँगी। पर उन्होंने हाथ के इशारे से उन्हें रोका और अपने पी.ए. अशोक राज को आवाज लगाई।

थोड़ी ही देर में अशोक राज एक टाइप्ड कागज लेकर आया, तो ठुनठुनिया अचरज में पड़ गया—‘क्या नियुक्ति-पत्र...? वाकई!’

हाँ, वह नियुक्ति-पत्र ही था।

कुमार साहब ने झट से उसके हाथ में नियुक्ति-पत्र थमाया और कंपनी के डिजाइनिंग डिपार्टमेंट में उसे असिस्टेंट प्रोड्यूसर बना दिया।

ठुनठुनिया शुरू में थोड़ा हड़बड़ाया हुआ-सा रहा। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि फैक्टरी में कैसे काम करना है? कैसे लोगें से मिलना और बात करनी है? हाँ, उसके दिमाग में कपड़ों के एक से एक नए और आकर्षक डिजाइन आते। जब वह कुमार साहब को उनके बारे में बताता तो वे मुसकराकर उसकी पीठ थपथपाने लगते।

जल्दी ही ठुनठुनिया काम करने का तरीका समझ गया। उसके मन में जो नक्शे और डिजाइन बनते थे, वे जब असलियत में कपड़ों पर उभरकर सामने आते, तो कभी-कभी कुछ भूल-गलतियाँ भी होतीं। पर ठुनठुनिया जल्दी ही उन्हें सुधार लेता। वह सोचता था कि उसके मन में जो नए-नए, रंग-बिरंगे और खूबसूरत डिजाइन आते हैं, वे कपड़ों पर भी ज्यों-के-त्यों उभर आएँ। कुछ समय बाद वह इस काम की बारीकियाँ और गुर सीख गया तो जैसा डिजाइन वह चाहता था, हू-ब-हू वैसा ही कपड़े पर उतारकर दिखा देता।

यह उसकी नई जिंदगी का पहला सफल मंत्र था। और अब रास्ते खुलने लगे थे।

फैक्टरी में ठुनठुनिया से जलने और टाँग खींचने वाले भी कुछ लोग थे। पर हर ओर ठुनठुनिया की इतनी तारीफ हो रही थी कि उनकी कुछ चलती नहीं थी। फिर कुमार साहब का तो पूरा साथ और विश्वास था ही। कोई डेढ़-दो साल ही गुजरे होंगे कि ठुनठुनिया तरक्की करता-करता ‘कुमार डिजाइनर्स’ का सहायक मैनेजर बन गया।

एक दिन ठुनठुनिया ने कुमार साहब को रग्घू चाचा और गंगू के बारे में बताया। फिर कहा, “वे लोग मिलकर बेजोड़ खिलौने बनाते हैं। रग्घू चाचा की उँगलियों में तो अनोखा हुनर है। अब गंगू को भी उन्होंने सिखा दिया है।...क्या उन्हें हम साथ नहीं ले सकते?”

“क्यों नहीं, हम एक नया विंग शुरू करते हैं, ‘अवर हैरिटेज’। इसमें रग्घू चाचा के बनाए भारतीय खिलौने भी होंगे। उन्हें हम देश-विदेश में बेचेंगे, ताकि रग्घू चाचा और गंगू की गरीबी दूर हो सके!” कुमार साहब ने मुसकराते हुए कहा, तो ठुनठुनिया खुशी के मारे उछल पड़ा।

और सचमुच कुमार साहब ने जो कहा, उसे कर दिखाया। फैक्टरी का नया विंग ‘अवर हैरिटेज’ शुरू हो चुका था। उसके संचालन का पूरा जिम्मा ठुनठुनिया पर था। और उसी को यह तरीका निकालना था कि कैसे कामयाबी से उसे दुनिया-भर में फैलाया जाए? वह रात-दिन इसी काम में जुटा था।

अब फैक्टरी में ठुनठुनिया की इज्जत बढ़ गई थी। कुमार साहब तो हर बात में उसकी तारीफ करते थे। कभी-कभी वे हँसकर कहते, “ठुनठुनिया, मुझे खुशी होगी, अगर तुम यों ही तरक्की करते-करते मेरी जगह आते, मेरी कुर्सी पर बैठते!”

ठुनठुनिया सिर झुकाकर कहता, “बस, कुमार साहब, बस...मुझे अब और शर्मिंदा न करें।”

अब ठुनठुनिया को फैक्टरी में ही रहने के लिए एक अलग क्वार्टर मिल गया। माँ भी ठुनठुनिया के साथ ही रहती थी। वह कभी-कभी खीजकर ठुनठुनिया से कहा करती, “जल्दी से तू अपने लिए बहू ला, तो मुझे काम-काज से छुट्टी मिले।...अब मैं भी तो बूढ़ी हो रही हूँ।”

और ठुनठुनिया कहता, “माँ, मैं तो बस इतना ही चाहता हूँ, जो भी लड़की आए, वह तेरी खूब सेवा करे। तुझे खुश देखकर ही मुझे खुशी मिलेगी।”

फैक्टरी में भी कभी-कभी फंक्शन और नाटक होते, तो ठुनठुनिया के अंदर का वही पुराना ठुनठुनिया फिर से जाग जाता। कभी देशभक्ति का नाटक ‘आहुति’ खेला जाता, तो कभी हँसी-मजाक से भरपूर ‘हँसोड़ हाथीराम गए बारात में’ जैसी अलबेली नाटिकाएँ। कभी-कभी गीत-संगीत से भरपूर ‘वसंत बहार’ जैसी नाटिकाएँ भी होतीं जिनमें ठुनठुनिया के अभिनय के साथ-साथ सुरीले गले का कमाल भी देखने को मिलता।

और एक बार तो ठुनठुनिया ने कुमार साहब से पूछकर मानिकलाल को भी फैक्टरी में कठपुतलियों का खेल दिखाने के लिए बुला लिया था। मजे की बात यह थी कि खेल खाली मानिकलाल ने नहीं, बल्कि मानिकलाल और ठुनठुनिया दोनों ने मिलकर दिखाया। मानिकलाल ने ठुनठुनिया को भी अपने जैसी ही गुलाबी पगड़ी पहना दी थी और दोनों गुरु-चेले ऐसे जँच रहे थे कि जो भी देखता तो बस देखता ही रह जाता।

आखिर खेल शुरू हुआ और उसमें नाचती हुई कठपुतलियों की लय-ताल ही नहीं, कथाएँ और नाटक भी ऐसे कमाल के थे कि जिस-जिसने भी देखा, उसने यही कहा, “जीवन में पहली बार कठपुतलियों का ऐसा खेल देखा और उसे इस जीवन में तो मैं भूलने से रहा।”

और ठुनठुनिया का रंग नायाब ही था! बहुत दिनों बाद लोगों ने ठुनठुनिया के चेहरे पर वही मस्ती, वही ठुनकती हँसी और उसकी आवाज में सुर-लय का वही तरन्नुम देखा कि दूर-दूर तक हवाओं में उसकी गूँजें फैलती जा रही थीं, “ठुनठुनिया जी, ठुनठुनिया...! ठुन-ठुन, ठुन-ठुन ठुनठुनिया...ठिन-ठिन, ठिन-ठिन ठुनठुनिया...साधो, मैं हूँ ठुनठुनिया!!”

सुनकर लोग इतने मुग्ध थे कि सभी के मुँह खुले के खुले रह गए।

ठुनठुनिया का नाम दिनोदिन चमक रहा था और उसे प्यार करने वाले लोग सब तरफ थे। कोई छोटे-से-छोटा मजदूर हो या बड़े-से-बड़ा अफसर, सब ठुनठुनिया के आगे अपना मन खोलकर रख देते और ठुनठुनिया सबके सुख-दु:ख में ऐसे दौड़-दौड़कर मदद करता था, जैसे वह दूसरों का नहीं, खुद उसका काम हो।

रग्घू चाचा और गंगू ही नहीं, मनमोहन, सुबोध, मीतू सबके सब ठुनठुनिया के कहने पर ‘अवर हैरिटेज’ में आ गए। उसका नया नाम अब ‘भारतीय कला परंपरा’ रख दिया गया है। ठुनठुनिया ने सभी के लिए उनकी पसंद का काम ढूँढ़ निकाला। दिन भर काम और शाम को सभी मिलकर कभी बैडमिंटन, कभी वालीबॉल, कभी कबड्डी खेलते। या फिर मौसम अच्छा हो तो खूब मजे में नाचते और गाने गाते। ठुनठुनिया का सबसे प्यारा गाना था, “ये दोस्ती, हम नहीं छोड़ेंगे...!”

गोमती ने रजुली नाम की लड़की ठुनठुनिया के लिए देख ली थी और जल्दी ही उनकी शादी होने वाली थी।

कभी-कभी कुमार साहब हँसकर कहा करते, “अरे, शादी से पहले अपना नाम तो बदल ले रे ठुनठुनिया!...वरना हमारी बहू क्या कहेगी?”

इस पर ठुनठुनिया घर आए कुमार साहब के आगे चाय का कप रखकर, पुरानी यादों में खो जाता। फिर बताने लगता, “इस नाम के साथ मेरी जिंदगी की लंबी कहानी जुड़ी है कुमार साहब! सुख-दु:ख की एक लंबी कहानी...और वैसे भी यह नाम मुझे भी पसंद है, मेरी माँ को भी। तो फिर भला रजुली को क्यों न पसंद होगा?”

फिर वह एकाएक माँ की ओर देखकर पूछ लेता, “क्यों माँ, तुझे पसंद है न मेरा नाम? मतलब...मतलब, ठुनठुनिया!”

“हाँ-हाँ, रे ठुनठुनिया...!” माँ हँसकर कहती तो साथ ही ठुनठुनिया भी ठिनठिनाकर हँस देता।

*****

 

प्रकाश मनु, 545 सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008,

मो. 09810602327,

ईमेल – prakashmanu333@gmail.com