Achhut Kanya - Last Part   books and stories free download online pdf in Hindi

अछूत कन्या - अंतिम भाग 

गंगा-अमृत अब सब के लिए है, यह वह लम्हा था जिसका सबको इंतज़ार था लेकिन यह कभी आएगा ऐसा किसी ने भी नहीं सोचा था। लोग आज बहुत ख़ुश थे। आपस में कई तरह की बातें हो रही थीं। अधिकतर लोगों की ज़ुबान पर यही बात थी कि गंगा और यमुना, गाँव की इन दो बेटियों ने सचमुच बदलाव ला दिया। आज सभी यमुना को याद कर रहे थे।

लोगों का मानना था कि गंगा की कोख से वापस यमुना ने ही जन्म ले लिया है। वह अपना अधूरा काम पूरा करके ही मानी। इसीलिए तो गंगा की गोद में बच्ची के आते ही सरपंच का मन पिघल गया और अंततः यमुना को उसके त्याग का इंसाफ मिल ही गया।

आज से ही गंगा-अमृत सब के लिए खोल दिया गया था। विवेक और गंगा ने इतने वर्षों के बाद ही सही यमुना का एक बड़ा-सा पोस्टर गाँव के चौराहे पर और एक पोस्टर गंगा-अमृत के बिल्कुल पास में लगवा दिया।

गजेंद्र ने सागर से कहा, “सागर जी अब वापस लौट आइए। यह गाँव हम सभी का तो है।”

सागर ने कहा, “नहीं समधी जी मैं और मेरा पूरा परिवार उस परिवार के ऋणी हैं जिसने हमें उनके दिल में स्थान दिया। उनकी ज़मीन पर रहने के लिए मकान दिया। मेरी गंगा को उनके कारण ही डॉक्टर बनने को मिला। गंगा चाहे इतने बड़े परिवार की बहू बन गई हो, कितनी भी बड़ी डॉक्टर बन गई हो लेकिन वह कभी नहीं चाहेगी कि हम उस परिवार को छोड़ कर आ जाएँ, जिसने हमारी ज़िंदगी ही बदल दी।”

“ठीक है सागर जी आप जैसा ठीक समझें।”

गंगा ने सरपंच से पूछा, “बाबूजी आप की पोती का नाम क्या रखना चाहिए? मुझे कुछ सूझ ही नहीं रहा है। आप बड़े हैं आप ही बताइए?”

“गंगा मैं अपनी पोती का नाम यमुना रखना चाहता हूँ।”

गजेंद्र के मुँह से यह सुनकर गंगा की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा। सागर और नर्मदा को तो अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था। गजेंद्र के मुँह से यह सुनकर उन्हें यह विश्वास हो गया था कि वह पूरे बदल चुके हैं। केवल ऊपर से ही नहीं वह उनके मन की गहराई से हमारे हो चुके हैं।  

उसके बाद कुछ दिन रहकर गंगा, विवेक, सागर और नर्मदा अपने साथ ढेर सारी ख़ुशियाँ लेकर शहर वापस लौट गए। अब तो आने-जाने का सिलसिला हमेशा-हमेशा के लिए शुरू हो गया। गजेंद्र और भाग्यवंती को जब भी यमुना की याद सताती वे शहर पहुँच जाते और हर दीपावली वह सब मिलकर गाँव की अपनी भूमि पर मनाते।

अरुणा और सौरभ कितनी ही बार कहते, “नर्मदा तुम लोग चाहो तो और कहीं भी रहने जा सकते हो। कोई बंधन या मजबूरी नहीं है।”

नर्मदा कहती, “मैडम जी प्यार और इंसानियत का जो बंधन आपने बाँधा है उसे मैं कैसे तोड़ दूँ। हम दोनों यहाँ आपके पास बहुत ख़ुश हैं। यदि आप गंगा को डॉक्टर बनने ना भेजते तो उसे विवेक कहाँ मिलता? और यदि विवेक ही नहीं मिलता तो यह जो भी कुछ इतना अच्छा हुआ है, वह भी कैसे होता? आप भी एक तरह से माध्यम बने हैं।”

इतना सुनते ही अरुणा ने नर्मदा को सीने से लगा लिया। उधर पूरे गाँव की महिलाएँ बहुत ख़ुश थीं और अब गंगा-अमृत पर पूरे दिन हलचल मची रहती थी। गंगा-अमृत भी लबालब भरा हुआ मुस्कुरा रहा था कि धरती माता जो चाहती थी अब पूरा हुआ।

 

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात) 

स्वरचित और मौलिक  

समाप्त 

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