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अछूत कन्या - भाग २४

नर्मदा और सागर वापस अपने गाँव की धरती पर क़दम रख कर; यदि पुरानी यादों के कारण दुःख के आँसू बहा रहे थे तो अपनी दोनों बेटियों और विवेक की सफलता पर ख़ुश भी हो रहे थे।

नर्मदा ने सागर से कहा, “देर से ही सही आख़िर यमुना के बलिदान को इंसाफ़ तो मिल ही गया।”

“हाँ नर्मदा लेकिन उसे इंसाफ़ दिलाने में विवेक का बहुत बड़ा सहयोग है। हमारी गंगा अब सच में अपना आगे का जीवन ख़ुशी के साथ जिएगी।”

धीरे-धीरे रास्ता तय होता गया और वे सब हवेली पहुँच गए। पूरी हवेली जगमगा रही थी, मानो मुस्कुरा रही हो। स्वागत में तैयार खड़ी हो। रंग बिरंगे ना जाने कितने फुग्गे यह जता रहे थे कि कोई नन्हा मेहमान आने वाला है। सब जानते थे विवेक ने गंगा से विवाह कर लिया है। भाग्यवंती सरपंच से रूठ कर शहर चली गई है लेकिन आज हवेली की रौनक देखकर गाँव के लोगों को लग रहा था कि कुछ अच्छा होने वाला है। यह संकेत तो ऐसे ही लग रहे हैं।

कार के रुकते ही अंदर से गजेंद्र हाथ में आरती की थाली लेकर अपने कुछ रिश्तेदारों के साथ बाहर निकले। भाग्यवंती जल्दी से कार के नीचे उतरीं और गजेंद्र की तरफ़ देख कर मुस्कुराते हुए उनके पास आकर खड़ी हो गई ताकि वह भी गजेंद्र के साथ मिलकर गंगा और छोटी गुड़िया की आरती उतार सकें। गंगा और विवेक नीचे उतरे। गंगा की गोद में उनकी बेटी थी। जैसे ही वह गेट के पास आए भाग्यवंती और गजेंद्र ने मिलकर उनकी आरती उतारी। गाँव वासी देखकर दंग थे। एक बड़ी-सी परात में पानी में अल्ता घोल कर रखा हुआ था।

भाग्यवंती ने बच्ची को गंगा की गोद से लेकर गजेंद्र को देते हुए कहा, “ये लो तुम्हारी पोती, हमारे घर की रौनक और ख़ुशियाँ अपने साथ लेकर आई है।”

गजेंद्र ने बच्ची को गोद में लेकर अपने सीने से लगाते हुए एक गहरी साँस ली। ऐसा लग रहा था मानो इस पल में उन्हें जीवन की सारी ख़ुशियाँ मिल गई हों।

भाग्यवंती ने गंगा से कहा, “गंगा इस परात में अपने दोनों पाँव रखकर फिर आगे आओ।”

दरवाज़े पर पहुँच कर भाग्यवंती ने कहा, “अब अपने दोनों हाथों में यह हल्दी लगाकर दरवाज़े के दोनों तरफ़ अपने हाथों की छाप लगा दो । गंगा तुम इस घर की कुलवधू हो बेटा, अपने घर की इज़्जत मान मर्यादा का हमेशा ख़्याल रखना।”

गंगा ने उनकी तरफ़ मुस्कुराते हुए देखा और कहा, “हाँ माँ आप बिल्कुल फ़िक्र मत करना। मैं हमेशा इन सब बातों का ख़्याल रखूंगी।”

नर्मदा और सागर यह दृश्य देखकर अपनी ख़ुशी को आँसुओं में छलका रहे थे। सागर सरपंच की तरफ़ दोनों हाथ जोड़कर देख रहे थे कि तभी सरपंच ख़ुद चल कर उनके पास आए और सागर के दोनों हाथों को पकड़कर नीचे करते हुए उन्हें अपने सीने से लगा लिया। आज यह मिलन हो रहा था केवल दो समधियों का नहीं, केवल दो परिवारों का नहीं, यह मिलन था आज भेद-भाव को त्याग कर एकता का। ऊँच-नीच की भावना को ख़त्म करके प्यार और सद्भावना का। गंगा ने मुड़कर देखा तो अपने पिता को सरपंच के गले लगता देखकर उसकी आँखें वहीं अटक गईं।

तब भाग्यवंती ने कहा, गंगा चलो अंदर, यह दृश्य तो अब तुम्हें कई बार देखने को मिलेगा। भगवान के दर्शन करना है।

बरहों के दिन पूरे गाँव का खाना-पीना हवेली में था। सरपंच ने खाना-पीना समाप्त होने के बाद गाँव के सभी लोगों के बीच कहा, “आज मैं आप सभी से माफ़ी मांगना चाहता हूँ। मैं अपनी ग़लती स्वीकार करता हूँ। मैं ख़ुश हूँ कि मेरे बेटे और गंगा ने वह काम करके दिखा दिया; जिसके कारण हमारा ऊँच-नीच का भेद-भाव समाप्त हो गया। आज मुझे यमुना का त्याग भी याद आ रहा है। काश उसी समय मैंने उसकी बात मान ली होती। मैं समझ ही नहीं पाया कि धरती माँ गंगा-अमृत को लबालब भर कर क्यों रखती थीं। जो बीत गया वह समय तो मैं वापस नहीं कर सकता लेकिन हाँ अब हमारे गाँव की कोई भी महिला सर पर मटकी रखकर कहीं नहीं जाएगी। गंगा-अमृत अब हम सभी के लिए है।”

इस आवाज़ के लोगों के कान में जाते ही तालियों की गड़गड़ाहट से पूरा वातावरण गूँज गया।

 

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात) 

स्वरचित और मौलिक  

क्रमशः 

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