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अछूत कन्या - भाग २२

विवेक और गंगा के गाँव जाने के बाद से ही उधर नर्मदा और सागर बेचैनी से उनके फ़ोन का इंतज़ार कर रहे थे। क्या हुआ होगा? बार-बार बेचैनी में इधर से उधर घूम रहे थे। विवेक और गंगा जब वापस आए तो उनका उतरा हुआ चेहरा देखकर वे समझ गए कि उनकी बेटी को सरपंच ने नहीं अपनाया।

विवेक की तरफ़ उदास चेहरे से वह कुछ पूछते उससे पहले ही विवेक ने कहा, “बाबूजी चिंता मत कीजिए। सब ठीक हो जाएगा, कुछ दिनों की बात है। मेरे बाबूजी के लिए यह बहुत बड़ा सदमा था। उन्हें ठीक होने में, संभलने में थोड़ा समय तो लगेगा पर हाँ वह मानेंगे ज़रूर। गंगा को अपनी बहू के रूप में स्वीकारेंगे ज़रूर। आप बिल्कुल चिंता मत कीजिए।”

उधर भाग्यवंती ने गजेंद्र को मनाना शुरू कर दिया। साम, दाम, दंड भेद सब लगा दिए थे उन्होंने। वह माँ थीं और दूसरी माँ के दिल का दर्द समझती थी। वह जानती थीं कि इस समय नर्मदा के ऊपर क्या गुजर रही होगी। वैसे भी यमुना की मृत्यु के बाद से ही उनका मन तो पूरी तरह बदल ही चुका था।

विवेक अक्सर अपनी माँ को फ़ोन लगाता रहता था। एक दिन उसने भाग्यवंती से कहा, “माँ, गंगा अब माँ बनने वाली है।”

इतनी जल्दी माँ बनने का फ़ैसला भी गंगा ने इसीलिए लिया था कि बच्चे का मुँह देखकर शायद बाबूजी का मन पिघल जाए। गंगा के गर्भवती होने की बात सुनते ही भाग्यवंती बहुत ख़ुश हो गई।

यह ख़ुशख़बरी उन्होंने गजेंद्र को भी सुना दी। यह ख़बर सुनते ही वह दूसरी तरफ़ देखने लगे मानो उन्होंने कुछ सुना ही ना हो।

भाग्यवंती उनके सामने आकर खड़ी हो गई आँखों में आँखें डाल कर बोली, “सुना नहीं तुमने गंगा गर्भवती है। ऐसे में मुझे वहाँ जाना चाहिए।”

“ठीक है भाग्यवंती जाओ लेकिन फिर वापस मत आना, वहीं शहर में उनके साथ ही बस जाना।”

अपने पति के मुँह से ऐसी कड़वी बातें सुनकर भाग्यवंती आज अपने आपे से बाहर चली गई। बरसों से जिस जीभ को उन्होंने शांत रखा था आज मानो किसी खिलौने की तरह उसमें चाबी भर दी गई थी और वह ऐसी चली कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। आज भाग्यवंती ने गजेंद्र के कान के सारे कीड़े झाड़ दिए, उनके कान के पर्दे खोल दिए। जो अब तक भाग्यवंती की आवाज़ सुन ना पाते थे आज अचरज के साथ खामोश खड़े सुन रहे थे।

भाग्यवंती ने कहा, “कातिल हैं आप। आपकी वज़ह से एक लड़की ने इस कुएँ में कूद कर अपनी जान दे दी। आपकी इस झूठी और ग़लत मान्यता के कारण गाँव की महिलाएँ दूर दराज से सर पर मटकी भर-भर लाती हैं। अरे नौ-नौ महीने का बड़ा पेट लेकर भी…! यह सब देखकर भी आपका दिल नहीं पिघलता। कैसे इंसान हैं आप? यदि आपकी मानसिकता ज़ुर्म करना सिखाती है, पानी के लिए मना करना… अरे प्यासे को पानी पिलाना तो बहुत ही पुण्य का काम होता है; तो फिर आपके साथ रहने के बजाय मैं गंगा के साथ रहना ज़्यादा पसंद करूंगी। इतने वर्षों से मैं चुप थी, काश तभी बोल दी होती, अपनी ज़ुबान खोल दी होती। अरे विवेक तो तब बच्चा था तब भी वह चिल्ला कर बोल रहा था। बाबूजी ले लेने दो ना उसे पानी। बचा लो बाबूजी उसे। उसकी मानसिकता तो बचपन से ही आपकी तरह नहीं थी। उसने जो भी किया सही किया। आपने जो पाप किया उसे सुधारने की कोशिश ही तो कर रहा है। आप उसमें भी अड़ंगा लगा रहे हो। अरे सरपंच जी शायद भगवान भी यही चाहता है, तभी तो इस तरह विवेक और गंगा को मिलाया। वह भी कहाँ जानते थे कि वे एक ही नाव के सवार हैं--- पर तुम यह नहीं समझोगे। मैं जा रही हूँ और बच्चे को लेकर एक बार वापस ज़रूर आऊंगी। उस बच्चे को देखकर भी तुम्हारा लोहे के सामान कड़क दिल यदि तब भी नहीं पिघला तो मैं समझ जाऊंगी कि तुम इंसान नहीं पत्थर के बुत हो, चलती फिरती एक मशीन हो।”

आज भाग्यवंती की कही यह सारी बातें गजेंद्र के हृदय को भेद गईं। कहीं अंदर तक हलचल होने लगी, शरीर कांपने लगा लेकिन जीभ अब भी चुप ही थी।

 

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात) 

स्वरचित और मौलिक  

क्रमशः

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