अपंग - 59 Pranava Bharti द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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अपंग - 59

59

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राजेश जिस मूड में अपार्टमेंट्स से बाहर निकला था, उसके बारे में सोचकर भानु के पसीने छूटने लगे | उसके दिलोदिमाग़ पर जैसे दहशत छाने लगी | रिचार्ड के लिए भी परेशानी की स्थिति तो थी ही | माँ को याद करते हुए वह अपनी कंपनी में अधिकतर भारतीय कर्मचारियों की भर्ती करता था | उसका अधिक स्टाफ़ 'एशियन' था | उसका वैसे कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता था लेकिन यह एक ज़बरदस्त कमज़ोर कड़ी थी कि वह बिना तलाक के अपने कर्मचारी की पत्नी के साथ लोगों की निगाह में संबंध बनाए हुए था जबकि वह भानुमति को बहुत पहले से चाहता था लेकिन एक-दूसरे की और आकर्षित होने के बावजूद भी आज तक उनकी भावनाओं ने कभी बाँध नहीं तोड़ा था | रिचार्ड को उसका व अपना अकेलापन महसूस होता और वह केवल अपनी भावनाओं, संवेदनाओं के वशीभूत होकर एक-दूसरे के साथ समय बिताना चाहते थे, बस एक सहज स्नेह, प्रेम, करुणा, सहानुभूति की छुअन उन दोनों के बीच उछाल भरती |

" अब क्या होगा रिचार्ड ?" भानु परेशान हो रही थी " कुछ नहीं होगा, होश में आओ भानुमति, पढ़ी-लिखी हो, अपना अच्छा-बुरा समझ सकती हो | तुम ख़ुद को क्यों इतना जलील करवा रही हो ? अगर थोड़ी समझदारी से काम लेतीं तो इसकी हिम्मत नहीं थी कि वह तुमसे इतना खराब

बिहेवियर कर सकता |" एक बात तो पक्की थी, रिचार्ड भानु के लिए बहुत दुखी था |वैसे तो बड़ा स्वाभाविक सी बात है कि कोई भी तहज़ीबदार इंसान किसी के साथ ऐसे व्यवहार से परेशान होने ही वाला होता है| यहाँ तो रिचार्ड के एक ओर उसका एम्प्लॉई था और दूसरी ओर उसका प्यार ! जब से रिचार्ड की ज़िंदगी में भानु आई तब से वह 'प्यार' की छुअन को महसूस कर सका था | इससे पहले उसने शरीर -सुख को तो खूब भोगा था किन्तु मन का सुख भानु को महसूसने के बाद ही जाना था | सच तो यह था कि पहले जो वह शरीर के लिए भानु की ओर आकर्षित हुआ था, वह शायद शरीर के लिए था ही नहीं, वह उसके मन में स्थान चाहता था जो समय के अनुसार अवसरों ने उसे धीरे-धीरे दे दिया था |

भानु को भी यही महसूस होता कि वह राजेश के होते हुए रिचार्ड की ओर कैसे झुक गई?क्या वह राजेश से प्यार नहीं करती थी ? यहाँ तो वह अपने माँ-बाबा को अकेला छोड़कर राजेश के प्यार की डोर में बँधी चली आई थी लेकिन यह डोर बड़ी कच्ची निकली |इस डोर से बँधकर दोनों में से कोई न रह सका |

आँखों से शुरू होता हुआ प्यार दिल की दहलीज़ ठकठकाते हुए शरीर पर जा तो पहुँचता है लेकिन यदि मन की कुंडी खोले बिना वह शरीर छूता हुआ आगे बढ़ जाता है तब कहाँ महसूसने की दहलीज़ पर अटकता है | वह सर्र से एक झौंके की भाँति आता है और सब कुछ तबाह करके निकल जाता है और दूर कहीं से मज़ाक के क्षण परोसता रहता है |

'प्यार --मज़ाक ही हो गया जैसे ---' भानु सोचती है, सोचती ही रह जाती है |

"यह किसी भी भाषा -भाषी, किसी भी गाँव-शहर, किसी भी देश-विदेश के बंदे से जाकर पूछें, दरसल, क्या है प्यार ? सच तो यह है कि कोई उस प्यार की फीलिंग को पूरी तरह जी सके, तब भी उसे एक्सप्लेन करना संभव ही नहीं है | इस छुअन की कोई परिभाषा तो होती नहीं न !

"आख़िर, कुछ तो सोचना पड़ेगा, इस सब के बारे में --इतना डरने से कैसे काम चलेगा ?"रिचार्ड सच में ही असमंजस में था |

"नहीं, मैं किसी से डरती नहीं, मैं चिंता करती हूँ माँ-बाबा की और इस बच्चे पुनीत की | डरना क्यों और किससे रिचार्ड ? मैं जानती हूँ मैंने कुछ गलत नहीं किया | जब कोई आदमी गलत नहीं होता, उसे डर कैसा ?" भानु ने कह तो दिया लेकिन उसकी आँखों में लज्जा के आँसू थे | जो स्वाभाविक भी था |

यहीं तो रिचार्ड अटक गया था, कैसे भानु की इंसल्ट होते हुए देखता रहा, क्यों कुछ कर नहीं पाया ? मन में कहीं न कहीं क्षोभ के साथ उसे अपने ऊपर भी गुस्सा आ रहा था | इतनी ऊँची हैसियत का आदमी होकर वह अपने इस अदना से कर्मचारी को कुछ नहीं कह पाया ? मन से बंधा रिश्ता जकड़न में था |

"मैं तुम्हारे विचारों की रेस्पेक्ट करता हूँ भानुमति लेकिन आख़िर कब तक माँ-बाबा से छिपा सकोगी ? देखो, पुनीत के मन में भी प्रश्न पैदा होने लगे हैं | कब तक उसे आंसर नहीं दोगी ? वह तुमसे ही दूर हो जाएगा | " रिचार्ड ने बिलकुल सही कहा था | भानुमति भी ऐसा ही कुछ सोचती थी | वह चुप हो जाती है, सब कुछ वह अपने मन में पी लेना चाहती है | घूँट घूँट पीड़ा को अपने मन की संकरी गली में उतार लेना चाहती है | काँप जाती है यह सोचकर कि पुनीत को कैसे समझा सकेगी ?

यह तो बहुत अच्छा था कि किसी भी ऎसी स्थिति को भाँपते हुए जैनी बच्चे को लेकर वहाँ से चली जाती थी | वह बच्चे के सामने खुद को अधिक अपमानित महसूस करती जबकि वह अभी इतना छोटा था | अचानक उसकी आँखों से आँसुओं की धारा फूट पड़ी | रिचार्ड वहाँ से जा ही

रहा था, रुक गया और उसने भानु का चेहरा अपने हाथों में भर लिया | लगभग पाँचेक मिनट तक दोनों चुप बैठे रहे | वे दोनों एक दूसरे के आलिंगन में बंधे रहे | कुछ देर में दोनों चैतन्य हुए और एक-दूसरे की बाहों से अलग हुए |

" आइ मस्ट मेक ए मूव ---" रिचार्ड ने भानु के दोनों कंधे पकड़कर उसकी नम आँखों में झाँका, एक बार सहमा फिर एक पैशनेट चुंबन लेकर वह एकदम अलग हो गया और भानु जैसे उसके चुंबन की गरमाई को छूकर रह गई | रिचार्ड के संस्पर्श के लिए उसका शरीर काँप रहा था और वह अजीब सी स्थिति में रिचार्ड को जाते हुए झेंपती हुई सी देखती रह गई थी |

कितनी अजीब सी हो गई थी वह ! रिचार्ड के लिए अपने प्यार को कैसे, कब तक छिपा सकेगी वह ? अब जब भी अकेले बैठेगी, तभी उसकी याद आएगी, वैसे भी कहाँ वह उसकी यादों से मुक्त होकर रह पाती है ?| कोई तो उसका संबंध है ही जिसका अभी कुछ नाम नहीं है, शायद हो भी नहीं पाएगा |आख़िर प्यार को क्या नाम दिया जाए ?दिया तो गया था उसके और राजेश के प्यार को नाम जो कलंकित कर गया था | वह उलझी हुई तो रहती ही थी और अधिक उलझ गई |

जब मन भर जाता है तब एक ही सहारा रहता है ---कलम का !!

 

ये कौन सा जहाँन है

ये कौनसा मुकाम है ा

ये कौनसी है सरज़मीं

या फिर ये ही वीरान है

हमने भटक के देख लिया

यूँ ही हर तरफ़

मंज़िल मगर दिखी नहीं

ख़ाली सा आसमान है-----!!