अमर की बात सुनकर बिरजू पल भर कुछ सोचता रहा। ऐसा लगा जैसे कुछ याद करने की कोशिश कर रहा हो और फिर निराशा भरे स्वर में बोला, "नहीं भैया ! ये तो हम नहीं जान पाए कि पुलिस बसंती का शव लेकर कहाँ गई थी, लेकिन इतना याद है कि दूसरे दिन सुबह ही पुलिस की जीप उसे जैसे ले गई थी वैसे ही वापस ले आई थी। जिस्म पे कई जगहों पर पट्टियाँ बँधी हुई थीं। शव हमारे हवाले करके दरोगा विजय और उसके साथी सिपाही लौट गए थे। गम और गुस्से की ज्यादती की वजह से हम कुछ सोच नहीं पाए और आनन फानन बसंती की अंत्येष्टि कर दी गई थी।" कहने के साथ ही बिरजू पुनः सिसकने लगा।
"हूं ....क्या नाम बताया था तुमने उस दरोगा का ? दरोगा विजय ?" अमर ने कुछ सोचते हुए बिरजू से पूछा।
सिसकते हुए बिरजू ने सहमति में अपना सिर हिलाया।
चौधरी रामलाल खटिये पर बिछी दरी को सही करके लेटने का प्रयास करते हुए बोले, "रात बहुत अधिक हो गई है। ज्यादा जागने से तबियत खराब हो जाएगी और फिर तुम तो दिन भर ऑफिस में काम करके वैसे ही थक गए होंगे अमर। बेहतर होगा अब सो जाओ।" और फिर बिरजू से मुखातिब होते हुए बोले, "जा तू भी सो जा बिरजू ! अमर को अब आराम करने दे। रात आधी बीत गई लगती है।"
अमर मुस्कुराकर अपने लिए बिछी खटिये पर लेटते हुए मोबाइल में समय देखते हुए बोला, "काका ! अभी तो बारह भी नहीं बजे हैं, और फिर शहर में तो इस समय तक अक्सर सभी लोग आपको जागते हुए मिल जाएंगे। फिर भी आप सही कह रहे हैं। अब हमें सो जाना चाहिए, ताकि कल अपनी गुड़िया के लिये हम कुछ दौड़धूप कर सकें।"
सुबह तड़के उठकर बिरजू खेतों में जाने के लिए तैयार हो ही रहा था कि तभी उसकी नजर बरामदे में खूँटी से टंगे अमर की पतलून पर पड़ी। उसके नीचे जमीन पर गिरा हुआ उसका पर्स उठाकर वह पतलून की जेब में रखने ही जा रहा था कि तभी पर्स के ऊपर के हिस्से में ही एक तस्वीर पर उसकी नजर पड़ी।
उसने ध्यान से वह तस्वीर देखी और फिर उसे सब कुछ याद आता गया। यह तो उसी लड़की की तस्वीर थी जिसे उसने अभी परसों ही अपने दोस्तों के चंगुल से बचाया था। वह तस्वीर रजनी की ही थी। होठों पर गहरी मुस्कान लिए हुए उसने अमर का पर्स उसके पतलून की जेब के हवाले करने के बाद खेतों की तरफ प्रस्थान कर दिया।
सुबह जब अमर की नींद खुली सूरज काफी ऊपर तक चढ़ आया था। जल्दी जल्दी उसने मोबाइल में समय देखा। सुबह के आठ बजने वाले थे। खटिये पर उठकर बैठते हुए उसने बगल में पड़ी खटियों पर नजर डाली। दोनों ही खाली पड़ी थीं।
तभी घर में से निकलते हुए बिरजू की माँ ने अमर को जगा हुआ देखकर पूछा, "जाग गए ? रात देर से सोये थे न ? थोड़ी देर और सो लिए होते। नींद पूरी हो जाती।"
लेकिन अमर ने उठकर नजदीक ही पड़ा अपना हवाई चप्पल पहनते हुए पूछा ,"कोई बात नहीं काकी ! मुझे आदत है कम सोने की। मैं इतना ही सोता हूँ, लेकिन ये सबेरे सबेरे बिरजू कहाँ चला गया है ? और काका भी नहीं दिख रहे ?"
" सुबह दस बजे तक ही बिजली रहनेवाली है और खेतों की सिंचाई बड़ी जरूरी है, इसलिए दोनों बाप बेटे तड़के उठकर खेतों में चले गए हैं। बिरजू को इन्होंने मना किया था कि वह अपनी पढ़ाई कर ले लेकिन वही नहीं माना। कहने लगा, "बाबूजी अकेले खेतों में मेहनत करेंगे और मैं बैठकर बाबूगिरी करूँगा। ये मुझसे ना होगा। मैं जाऊँगा तो कुछ न कुछ उनका हाथ ही बँटाऊँगा।" बिरजू की माँ ने अमर को बताया।
अमर खोजी निगाहों से बाहर कुछ देख रहा था। उसके निगाहों को ताड़ते हुए बिरजू की माँ बोली, "शायद तुम बाहर जानेवाला लोटा खोज रहे हो ?"
मुस्कुराते हुए अमर बोला, "हाँ काकी, लेकिन दिख नहीं रहा कहीं लोटा ? कहाँ गया ? यहीं तो पड़ा रहता था पहले ? कोई ले गया है क्या ?"
"नहीं बेटा !" कहने के साथ ही उन्होंने एक गहरी साँस ली और फिर बरामदे से लगे हुए बाहर की तरफ बने एक छोटे से कमरे की तरफ इशारा करते हुए बोलीं ," बेटा ! बसंती के साथ हुए हादसे के बाद हम लोग बहुत दिनों तक असहज रहे और जब थोड़ा संयत हुए तो हमने सभी तथ्यों पर विचार किया। बेशक उन दरिंदों का अपराध क्षमा करने योग्य नहीं है, लेकिन इस पूरे वाकये में कहीं न कहीं गलती हमारी भी है। समय समय पर बदलाव होते रहते हैं। बदलाव को स्वीकार करके हमें भी अपने आपको बदलना चाहिए। आज प्रदूषण चारों तरफ फैला है। न सिर्फ प्रकृति में बल्कि लोगों के दूषित दिमाग से होते हुए यह प्रदूषण हमारे समाज में भी गहरी पैठ बना चुका है और आये दिन होनेवाले नित नए अपराध, बलात्कार और लड़कियों से छेड़छाड़ में होनेवाली वृद्धि इसी मानसिक प्रदूषण के नतीजे हैं। अन्य सभी तरह के प्रदूषणों से बचने के लिए हम जिस तरह सजग रहते हैं हमें इस मानसिक प्रदूषण से भी बचने का प्रयास करना चाहिए। अच्छे विचारों व संस्कारों के जरिये हम इस प्रदूषण को फैलने से रोक सकते हैं, इसपर कुछ मात्रा में अंकुश लगा सकते हैं, लेकिन इससे बच नहीं सकते। सावधान व सजग रहना ही इससे बचने का एकमात्र उपाय है।"
अमर कुछ देर उनकी बात सुनता रहा लेकिन जैसे उसे कुछ समझ नहीं आ रहा हो, पलकें झपकाते हुए उसने बीच में ही टोका, "लेकिन काकी ! तुम कहना क्या चाहती हो ? मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है। बसंती के साथ हुए हादसे ने हम सबके दिलोदिमाग को झकझोर दिया है। इसमें हमारी गलती कहाँ से आ गई ?"
"सुनो तो पहले ! वही तो तुमको समझाने जा रही थी। जरा सोचो, बसंती के साथ ये हादसा क्यों हुआ था ? इसीलिए न कि वो शौच के लिए खेतों में गई थी ? खेतों में ही क्यों गई थी ? इसलिए क्योंकि घर में शौचालय नहीं बनवाया गया था, और यह विचार मन में आते ही हमें यह अफसोस होने लगा था कि काश ! गाँव के कुछ लोगों की ही तरह हमने भी घर में शौचालय बनवा लिया होता तो शायद हमारी बिटिया हमारे साथ होती।" कहते हुए उन्होंने अपनी भीगी हुई पलकों को साड़ी के पल्लू से पोंछते हुए भर्राए हुए स्वर में कहा, "और फिर हमने और देर न करते हुए तुरंत ही घर के बाहर यह शौचालय बनवा लिया।"
कुछ देर बाद अमर नित्यक्रिया से फारिग होकर , दातुन वगैरह करके बाल्टी और लोटा ले कुएँ की जगत पर बैठकर नहाने लगा। ऐसा लग रहा था जैसे हमेशा से ही वह इसी दिनचर्या का आदि हो। उसके क्रियाकलापों से बिल्कुल भी नहीं लग रहा था कि वह इतने साल शहर में रह चुका है। ग्रामीण जीवन जैसे उसकी आत्मा में रची बसी हो ,उसका अंग प्रत्यंग खुशी से लबरेज लग रहा था।
नहाते हुए ही अमर ने आज दिनभर की अपनी योजना बना ली थी और अब वह अपनी योजना को ठोंक बजाकर देखकर तसल्ली कर लेना चाहता था। बसंती को न्याय दिलाने की बड़ी चुनौती उसके सामने मुँह बाए खड़ी थी।
नहाधोकर अमर तैयार हो चुका था। बिरजू की माँ ने आग्रह करके उसे भरपेट नाश्ता करवा दिया था। योजना के मुताबिक वह सबसे पहले सुजानपुर की उस चौकी में जाना चाहता था जहाँ उन आरोपियों को पकड़ कर रखा गया था। उसका मकसद दरोगा विजय से मुलाकात करना था।
अभी वह निकलने ही वाला था कि तभी बिरजू उसे आता हुआ दिखा। उसे देखकर वह थोड़ी देर के लिए रुक गया।
क्रमशः