चक्र - 8 अशोक असफल द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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चक्र - 8

चक्र भाग 8

माँ बर्दाश्त कर रही है

घर पहुंचा तो, पता चला पत्नी बेटी को लेकर रात में ही लौट आई थी। मुझे देखते ही मुंह फुला लिया, नहीं पूछा कि रात में कहां थे! बेटी ने भी ठीक से बात नहीं की, और मैं भी उन दोनों से नजरें बचाता रहा।

समय से पहले तैयार होकर कॉलेज चला आया। और वह समय पर भी न आई तो बेचैनी होने लगी। मगर उसका क्या इलाज? जैसे-तैसे पीरियड खत्म कर जब दूसरे क्लास रूम का रुख किया, गैलरी में वह आती दिखी। तसल्ली हुई मगर तिरस्कार-सा महसूस कर दिल में शूल उठने लगा। दिन भर किसी भी कक्षा में पढ़ाने में मन न लगा। मन ही मन कह था कि अब कभी जिंदगी में तुमसे बात न करूंगा, तभी वह स्टाफ रूम में हवा के झौंके-सी आई और एक पुर्जा थमा कर चली गई। घर जाकर मैंने अकेले में देखा, लिखा था-

पलट सकूँ ही न आगे ही बढ़ सकूँ जिस पर...। मुझे ये कौन से रस्ते लगा गया इक शख़्स...।

बेचैनी में फिर रात भर नींद नहीं आई। और तमाम लाइनें काटकर मैंने भी दो लाइनें जोड़ लीं-

वो कहते हैं कि उन्हें तुम्हारे लिए फुर्सत ही नहीं है। हां मशरूफ मैं बहुत हूं पर तेरे लिए फुर्सत आज भी है!

अगले दिन पुर्जा मैंने भी उसे पकड़ा दिया।

तीसरे दिन से बहुत कुछ बदला-बदला नजर आने लगा। अब मिलने पर अक्सर ही दोनों उस रात की याद कर मन ही मन हँस लेते।

सप्ताहांत रेसिस में दोनों ने कैंटीन में जाकर साथ चाय पी। और मौका पाकर मैंने हाथ दबा दिया तो जैसे उरोज दबाया हो, वह सिहर गई।

तुमने खूब छकाया, मैंने आंखों आंखों में कहा तो जवाब में उसने भी उलाहना दिया, पूरे छाकटे निकले! सहेलियों से कह देंगे कि इन्हें कोरा 'सर' न समझ लेना।

फिर छुट्टी हुई तो सबसे बाद में गई और निकलने वाले दरवाजे में मुझसे जानबूझकर टकरा गई तो मैंने कान में धीरे से कहा- कभी मन से भी दोगी...!' और वह झटके से कलाई नोंच जैसे जिप नोंची हो, मुस्कुराती आंखों से देख चली गई।

दिल में फिर एक नये सहवास के बुलबुले फूट उठे। घर आकर इतने दिन बाद मैंने बेटी से पूछा तुम्हारा, "टेस्ट कैसा रहा!" उसने बेरुखी से कहा, "दो एक दिन में क्रासलिस्ट डल जाएगी, तब खुद ही देख लेना।"

इसके बाद उन दोनों से सुलह की उम्मीद जाती रही। खाना टेबल पर आ जाता और मैं चुपचाप खा लेता। रात को दूर तक घूम कर आता जिससे कि थकान हो जाए और बेसुध सो जाऊं। सुबह उठकर कॉलेज चला जाता, जहां फिर से सूखी बगिया हरी हो जाती।

टूर लौट आया था पर लता को अब खुद के न जा पाने का कोई गम ना था। शहनाज ने उससे कहा और उसने मुझे अगले दिन बताया तो हमलोग बदनामी के वाबजूद प्रमुदित हो गए!

शहनाज ने कहा था, "टूर पर जाकर हमने जो नहीं पाया, वो तुमने यहां घर बैठे पा लिया।"

"सो ऐसा क्या पा लिया?" उसने अचरज से पूछा।

तब शहनाज ने कहा, "अब ज्यादा न बनो, तुम्हारे और सर के बीच जो खिचड़ी पक गई है ना, वो सबको पता चल गई!"

"कौनसी खिचड़ी, तुझे कैसे पता!" वह आशंका से घिर गई।

"वही जो आबू में नहीं पक पाई... हींग की बास छुपती है-क्या!?"

तब मैंने लता से कहा कि- तुम उससे कल पूछना, वो जो खिचड़ी पक गई है उसे तू भी चखेगी क्या?' यह सुन वह इतनी गहरी मुस्कुराई जैसे पकी हुई खिचड़ी का स्वाद मुंह में घुल गया हो...।

और यह मैंने उसी दिन तय कर लिया कि अब फिर कोई मौका निकालना होगा! घर में नहीं तो बाहर। पर फिर एक बार खिचड़ी पकाना होगी, और इस बार तो कैसे भी खाना-खिलाना होगी।

क्रॉस लिस्ट आ गई तो मैंने बिटिया से कहा, "तुम्हें पासिंग मार्क्स तो मिल गए!"

बोली, "हां! अब देखो काउंसलिंग में कौनसा कॉलेज मिले।"

"जाना पड़ेगा, चलो मैं चलूंगा छुट्टी ले लूंगा।" मैंने कहा।

वह बोली, "उसकी जरूरत नहीं पड़ेगी...वह सब ऑनलाइन हो जाएगा।"

"तो फिर उसके बाद एडमिशन!"

"हां, एडमिशन कराने जाना पड़ेगा! पर मम्मी चली आएंगी, आप अपना काम कीजिए ना!"

और मैं कट कर रह गया लेकिन फिर सोचा कि- चलो अच्छा हुआ, अब तो मौका अपने ही घर में मिल जाएगा।

चार दिन बाद जब मां-बेटी के जाने की तारीख निकल आई, मैंने मुस्कराते हुए लता से कहा, "कल मैं छुट्टी पर रहूंगा।"

"हम समझे नहीं, सर!" उसने विकलता का अनुभव करते कहा।

शहनाज बोली, "हम समझ गए!"

"तो तुम आ जाना!" मैंने चुटकी ली, "क्योंकि वे भी आ जाएंगे..."

सुनते ही वह ऐसे सशंकित हो गई, जैसे मुझे पता चल गया हो!

शाम को चलते समय मैंने मौका लगाकर लता के कान में कहा, "कल कॉलेज नहीं, घर आ जाना, पीरियड वहीं लूंगा!" तो जैसे झक्की खुल गई और वह मुस्कुरा कर मुड़ गई। मैं उसकी लंबी चोटी और हिलते हिप्स देर तक देखता रहा। और घर आकर रात मैं भी उनमें खोया रहा, जैसे कल तो वे मेरे ही बेड पर आकर फुदकेंगे!

अगले दिन मां-बेटी सुबह आठ बजे ही निकल गईं। मैं खुद उन्हें स्टेशन तक छोड़ आया ताकि कोई शंका न रहे। हालांकि उन्होंने बहुत मना किया कि नहीं-नहीं हम लोग तो चले जाएंगे। लेकिन मैं अपनी ही पुष्टि के लिए जिद करके चला गया था।

लौटकर घर आया तो क्लीन शेव्ड हो अच्छे से नहाया धोया, खुशबूदार तेल क्रीम और पाउडर मला। और उसके बाद बेसब्री से लता की प्रतीक्षा कर उठा। सोचा, वह आ जाये तब मिलकर बनाएंगे, खाएंगे। उससे पहले छिटपुट नाश्ता कर लेंगे जो पत्नी बनाकर रख गई है। मैंने कहा भी, "आप लोग अपने लिये बना लेना, मैं तो केंटीन में खा लूंगा।"

सुनकर चुपचाप रह गई, जैसे उसे अब कोई विशेष मतलब नहीं रह गया था...। जब घड़ी ने साढ़े दस बजे बजा दिए और वह नहीं आई तो फिर बेचैनी होने लगी। मैंने सोचा क्यों न उसके घर जाकर देख लूँ या फिर कॉलेज का चक्कर लगा आऊं! लेकिन ऐसा करना एक नई विपत्ति को जन्म देना था। इसी मारे फोन नहीं किया कि उसे कोई भी उठा सकता था और पता चल सकता था कि वह कॉलेज नहीं गई तो आखिर गई कहां! यहां, यानी मेरे घर! और आज नहीं पर आगे-पीछे यह बात पत्नी या बेटी को पता लगती तो पता नहीं क्या तूफान उठ खड़ा होता।

बस एक ही उपाय था, मैं जब-जब हारता, पूजा घर में जाकर खड़ा हो जाता। और ईश्वर हर बार मदद कर देता। उस दिन भी यही हुआ कि मैं दीन-हीन बन पूजा घर में जाकर खड़ा हो गया और प्रार्थना करने लगा। और फिर प्रार्थना करते-करते रोने लगा। तब अचानक द्वार पर स्कूटर रुकने की आवाज आई और मैंने खिड़की से देखा तो एकदम प्रफुल्लित हो गया। सर-मुंह पर कैसा भी स्कार्फ-दुपट्टा बंधा हो, लता को मैं पीछे से, उसकी चाल से पहचान लेता।

उसने पैसे चुकाए और मैंने दरवाजा खोल फुरती से अंदर ले ली। ड्रेस पर नजर पड़ते ही मानो लट्टू ही गई, "वाह! आज तो आज तो आप वाकई गुड बॉय लग रहे हो!"

उस दम मैं एक शर्ट बॉक्सर पेयर जो पहने था, जिसमें श्वेत ग्राउंड पर मानो लकड़ी की पेंसिल से जगह-जगह सूरज बने थे। गेट लगा मैंने आवेग में बाहों में भर ली, "मैं तो आज ही, तुम तो सदा ब्यूटी लगती हो..."

फिर देखते ही देखते ओठ ओठों से लग गए और दोनों ने एक-दूसरे को कस कर चूम लिया!

फिर मैं उसे वहीं से बाहों में उठा कर बेडरूम में लाया और आलिंगनबद्ध कर धैर्य छोड़ पूछने लगा, "इतनी देर क्यों लगा दी, मेरी तो जान ही निकल गई..."

उसने मुस्कुराते-मुस्कराते बताया कि आपके लिए बाईपास वाले ढाबे से गर्मागर्म खाना बनवा के लाये हैं..."

"तुम कितना ख्याल रखती हो!" मैं न्योछावर होने लगा। वह दामन छुड़ा हँसती हुई किचेन में चली गई और वहां से बर्तन ले डाइनिंग टेबल पर खाना लगा दिया। खाते और एक-दूसरे को खिलाते अचानक उसने पूछा, "ऐई- उस दिन तुमने शहनाज की कौनसी नस पकड़ ली जो उसका मुंह लाल हो गया!"

सुनकर मैं हँसने लगा, "बताऊंगा बताऊंगा"

खाना खत्म कर उसने अपनी ड्रेस की ओर संकेत कर कहा, इसमें बड़ा अनकंफर्ट फील हो रहा है... खासकर आपको देखकर।" मैंने मुस्कराते हुए कहा, "देख लो, उधर अंदर... पत्नी का कुछ हल्का-सा वस्त्र अंग में डाल लो, फिर आराम से बैठेंगे।"

थोड़ी देर में वह पत्नी का आसमानी रंग का स्लीवलैस गाउन अंग में डालकर आ गई जिसमें जगह-जगह चौदहवी के उजले चाँद छपे थे...।

और मैं मुस्कुराया कि आखिर मैच मिला ही लिया!

"बताइए शहनाज की कौनसी नस पकड़ ली आपने!"

"तसल्ली रखो," मैंने कहा और कमर में हाथ डाल बेडरूम में ले आया, "तुम्हें शायद ही पता हो, शौकत सर उससे आबू यात्रा से ही खफा थे और नेपाल टूर के लिए तो उसे लिस्टेड भी नहीं किया। जब उन्हें धौंस देने वह उनके घर ही पहुंच गई और संयोग से उस दिन वे अकेले थे, उसने आते ही गुस्से में पूछा, 'तो हमें नहीं ले चल रहे, आप?' और उन्होंने दृढ़ता से कहा, 'कतई नहीं!' तो वह ताव खा बरसाती में चढ़ गई और गेट लगा लिया।... बेचारे डर गए कि कहीं कुछ कर न ले! पसीना-पसीना होते आधे घंटे तक निहोरा करते रहे तब उसने ले चलने की शर्त पर गेट खोला। मगर जैसे ही खोला, मन ही मन दंड तय कर चुके शौकत ने उसे अपने साथ ही अंदर बंद कर लिया और बैंड बजा दी! ये बात अलग कि फिर टूर पर भी ले गए। मगर वहां भी जहां मौका मिला, छोड़ा नहीं..."

"अच्छा..." वह हँसने लगी, "तभी वह उनके आगे भीगी बिल्ली बन जाती है! मगर आपको किसने बताया?"

"मैंने तो यों ही फेंक दिया- 'सुनते हैं टूर के लिए बड़ी भारी फीस भर दी शौकत सर को!' और उसके मुंह से निकल गया, 'आपको किसने बताया!' 'बताएगा कौन, जिसे नेग मिला, वही तो गायेगा!' तब उसने शौकत से जाकर शिकायत की कि- एक तो आपने हमारी इतनी कीमती चीज ले ली, ऊपर से बदनामी करते फिर रहे..."

कहते मैं जोर से हँसने लगा..."जनाब रात में ही घर आ गए मुंह सुखाये, बोले- 'सर आपको किसने बताया?' मैंने कहा- 'मुझे काले चोर ने बताया, सर! पर आप यह बताइये, यह बात सच है कि नहीं?'

'सवाल सच और झूठ का नहीं, लीक होने का है!'

'तो सुनो शौकत सर! मुझे उसकी बेस्ट फ्रेंड ने ही बताया!"

"वा-वा,' वह ताली बजाने लगी, 'आपने मियां की जूती मियां की ही चाँद पर रख दी..."

"पर ये हुनर पाया तुम्हीं से!"

"हमसे कैसे?"

प्रश्न के उत्तर में मैं उसे जननेन्द्रियों के क्रियाककाप समझा उठा कि- जब संसर्ग होता है तो गुण एक दूसरे में संचरण कर जाते हैं!'

सुनकर वह सिंरिज प्रसंग याद कर शरमा गई और मैंने बाँहों में भर स्तन दांतों में दबा जिद्दी बच्चे से कुचल दिए तो वह चेहरा इतना नजदीक ले आयी कि उसकी दायीं आंख मेरी बायीं आंख देख उठी और बायीं आंख दायीं! ऐसा कौतुक मैंने पहली बार देखा! समझ नहीं पा रहा था कि यह एक शख्स के दो रूप देखने जैसा था या फिर एक शख्स को दो नजरों से देखने जैसा उपक्रम! नजर झुकाई तो पता चला, वह मंद-मंद मुस्करा रही थी, "अब तो आपमें भी हमारे पापा के लक्षण आते जा रहे हैं!’’

‘‘कैसे लक्षण?’’ सहसा मैं चौंक गया।

‘‘उनका भी एक लड़की से नाजायज सम्बंध है।’’

‘‘अरे!’’ मुझे झटका लगा।

‘‘बरसों से...’’ उसकी आवाज भीगने लगी, ‘‘मां जानते हुए बर्दाश्त कर रही है...!’’

सुनकर उसमें अपनी बेटी और उसकी माँ में मुझे अपनी पत्नी का चेहरा दिखने लगा।

प्यार का नशा हिरन हो गया।

तब थोड़ी देर बाद उसने बाँहों से निकल अंदर जाकर अपने कपड़े बदल लिए। फिर मेरे पास आ मुस्कराती हुई बोली, "जाऊं अब!"

मैं कुछ कहने की स्थिति में नहीं था।