चक्र - 6 अशोक असफल द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • My Passionate Hubby - 5

    ॐ गं गणपतये सर्व कार्य सिद्धि कुरु कुरु स्वाहा॥अब आगे –लेकिन...

  • इंटरनेट वाला लव - 91

    हा हा अब जाओ और थोड़ा अच्छे से वक्त बिता लो क्यू की फिर तो त...

  • अपराध ही अपराध - भाग 6

    अध्याय 6   “ ब्रदर फिर भी 3 लाख रुपए ‘टू मच...

  • आखेट महल - 7

    छ:शंभूसिंह के साथ गौरांबर उस दिन उसके गाँव में क्या आया, उसक...

  • Nafrat e Ishq - Part 7

    तीन दिन बीत चुके थे, लेकिन मनोज और आदित्य की चोटों की कसक अब...

श्रेणी
शेयर करे

चक्र - 6

चक्र (भाग 6)

हर मुलाकात का अंजाम जुदाई क्यों है

वैराग्य के चक्कर में परीक्षा में न बैठ पाने के कारण ही लता इस वर्ष फिर फाइनल ईयर में थी। कालेज का टूर इस बार नेपाल के लिए प्रस्तावित था। मैंने नौकरी ज्वाइन कर ली थी।

लता उत्साहित थी। मगर मैं निरुत्साहित।

मैं उसके कारण ही इस टूर पर नहीं जाना चाहता था। मुझे भारी व्यवहारिक कठिनाई आ रही थी। निकट रहता तो सीमा टूटती। नहीं रहने पर मन टूटता। काश कोई ओझा, तांत्रिक या सिद्ध मिल जाता तो मैं इलाज करा लेता। पिछली बार एक साइकियाट्रिक को दिखाया तो उसने अव्वल उपचार तो मुलाकात ही बताया। दूसरा कुछ दवाइयां लिख दीं, जिनके सेवन से अस्थाई तौर पर दिमाग वहां से हट जाता। डिप्रेशन कम हो जाता और कुछ राहत मिल जाती। किंतु बाद में मैंने जाना कि वे दवाइयां दिमाग को अपना आदी बनाती जा रही है...।

मेरी बिगड़ती मानसिक दशा के कारण पत्नी और बेटी सदा चिंतित रहने लगी थीं।

मगर मैं चल नहीं रहा, यह जान कर लता मन ही मन दुःखी थी। जरूरत घुमक्कड़ी की नहीं, साथ की थी। क्योंकि- वह भी मेरी ही तरह बेचैन प्रायः रहती थी। अव्वल तो यह एक बीमारी थी। हम लोगों ने कई बार सोचा। ...मगर इलाज समझ में नहीं आ रहा था।

टूर से कुछ दिन पहले मैंने बीमारी दर्शाकर छुट्टी की अरजी भेज दी तो वह पगलाई-सी घर चली आई और मुझे फिर एक लिफाफा थमाकर चली गई जिसे पढ़कर मैं सुबकने लगाः

“ऐसे नहीं फैलाऊंगी मैं अपनी लाज का आंचल तुम्हारे निष्ठुर कदमों तले! जब जिन्दगी से मुझे कोई सौगात नहीं मिली/जब तेरा साथ ही नहीं मिला राह दिखाने मुझे/तो यह आस का तोहफा आखिर किसलिए? थाम लिया था हाथ जब तुमने किसी का/उम्रभर निबाहने के लिए! तो मेरे मन में यह तृष्णा जगाई क्यों? जब जिन्दगी की कश्ती फंसी लहरों में/तो हँस कर दामन छुड़ा जाने लगे! जब साथ ही नही देना था मंजिले-राह में मुझे तो यह तकल्लुफ का इकरार किसलिए? जख्म खाकर जिन्दगी-भर का/यूं बिछड़ना मुश्किल हुआ मुझसे/जब साथ नहीं था राहगुजर में/तो इश्क की इब्तिदा क्यों हुई! आंखों में अश्क ही देना था निर्मोही/तो यह हार-श्रृंगार किसलिए! यह हसरतों की बारात किसलिए! यह सांसों की सौगात किसलिए! यह प्यार का एहसास किसलिए! तुझे पाने की चाह किसलिए!”

जाहिर है, यह कविता नहीं थी, न वह कवयित्री! दिल खून के आंसू रो रहा था...। निम्मी कहने लगी, ‘‘चलो, आपको कहीं दिखा लें!’’

‘‘तुम लोग अपना काम करो, मुझे कोई बीमारी नहीं है,’’ मैं चिढ़ गया, ‘‘क्या कोई अपने मन से बीमार नहीं हो सकता, क्या आदमी कोल्हू का बैल है, जो मन हो तो भी, न हो तो भी लगातार चक्कर काटता रहे। उसकी कोई पर्सनल लाइफ होना चाहिये कि नहीं! जिंदगी तो हो गई गुलामी करते...।’’

वह अवाक् रह गई। बेटी का भी मुंह सूख गया। उन लोगों ने मुझे कभी इतनी ऊंची आवाज में बोलते नहीं सुना था। रात्रि जागरण के कारण मेरे सिर में दर्द, दिल पर बोझ, आंखों में लाल डोरे और आवाज भर्रा रही थी।

उन्हें लगा कि कोई प्रेतबाधा है या किसी ने मुझे कुछ दे दिया! दोनों रोने लगीं। घर में मातम-सा छा गया। दिनभर चूल्हा नहीं जला...।

कितनी बुरी बात है! मुझे शर्म आने लगी। जब्र करता हुआ धीरे-धीरे फिर से सामान्य होने का प्रयास करने लगा। बेटी पहले से अधिक ख्याल रखने लगी। निम्मी भी रोज रात मेरे बिस्तर पर सोने आ जाती। मगर लता से प्रेम-डोर में बंध जाने के कारण पत्नी के साथ संगति की इच्छा समाप्त हो गई थी।

मैंने जाना कि सेक्स पहले मानसिक है, फिर शारीरिक। जानवर एक-दूसरे को जन्म से निर्वसन देखने के आदी होते हैं। वहां कोई प्रतिबंध ही कहां, इसलिए हरदम इच्छा नहीं होती संभोग की। न लालसा बनती है किसी विशिष्ट चयन की। मंसूबे नहीं बंधते...। वह तो प्रकृतिजन्या शारीरिक मांग होती है। इंद्रियजनित मांग। बिल्कुल पेट की भूख की तरह। ...तब दौड़ते हैं एक दूसरे की ओर। और पूर्ति के साथ ही उस वासना से कतई मुक्त हो जाते हैं। जबकि मनुष्य उसके बाद भी बंधा रहता है।

आठ-दस दिन बाद जब जान लिया कि टूर चला गया, फिर से कालेज पहुंचा। दिन भर आयंबायंसायं न जाने क्या पढ़ाता रहा...। शाम को पता चला कि- लता भी टूर पर गई नहीं। और वह इतने दिनों से कालेज भी नहीं आ रही...।’ मन आशंकाओं से भर गया। पत्नी, बेटी को एक व्यवसायिक कोर्स के सिलसिले में उसका टेस्ट दिलाने दिल्ली लिवा गई थी। मौका पाकर मैं टोह लेने लगभग रुआंसा-सा उसके घर जा पहुंचा।

‘‘कौन है?’’ घंटी बजते ही भीतर से उसकी बीमार-सी आवाज आई।

‘‘मैं आर.पी.सर!’’ गला चिपक गया था।

उसने धीरे-से दरवाजा खोल दिया, ‘‘ओह-सर! आइये-आइये, प्लीज!’’ उंगलियां मोड़ कर बाल कान से हटाती हुई वह इतनी प्रफुल्लित कि लगा अभी गले से लग जायेगी...।

और में डर से साइड होकर हॉल में आ गया। वह शायद, स्नान घर से आई थी, दुबारा वहीं चली गई। तब मैं उद्विग्न-सा सोफे पर बैठ अपनी विक्षिप्तता छुपाने टेबिल पर पड़ा अखबार पलटने लगा...।

घर में कोई और नहीं दिख रहा था, रसोई और बेडरूम की ओर से भी कोई आहट नहीं मिल पा रही थी। ...शायद, जॉनी भी नहीं, वरना टीवी तो चलता होता! और बागले साब होते तो यहीं अपने कागजी काम में भिड़े मिलते। मिसेज बागले रसोई या आंगन में कुछ न कुछ करती-धरतीं! बात क्या है?

‘‘लताऽ सुनो-तोऽ! मुझे देर हो रही हैऽ...’’ मैंने जानबूझ कर जोर से आवाज दी ताकि कोई हो तो सुन ले और मैं चोरों की तरह नहीं पकड़ा जाऊं! मां उसकी, कई बार अपने कमरे में खामोश बैठी स्वेटर वगैरह बुनती रहती है। भाई भी चुपचाप स्टोर में खेल-खिलौने बिगाड़ता-सुधारता रहता है। और पापा- कहो गुमसुम छत पर टहल रहे हों, लगातार सिगरेट फूंकते हुए...।

पर मेरी आवाज पर वही आई, लता! खुद से अनजान-सी, शानों पर भीगी जुल्फें बिखराए, नहाकर जिसका रूप और निखर गया था... मगर आई न आई बराबर, जाती-मुस्कराती-सी बोली, "दो कपड़े मशीन से निकाल अभी आई..."

"सुनो तो," मैंने हाथ पकड़ लिया, "दो पल बैठो तो... मैं भी जल्दी में हूँ, कालेज से सीधा चला आया, और लोग कहाँ हैं?"

‘‘मम्मी जॉनी को लेकर मामाजी के यहां...आज पापा भी नहीं हैं घर में।’’ हाथ खींचा तो बगल में ही सोफे में धँसती लाचार-सी बोली।

‘‘अरे!’’ मुझे चिंता हो आई। फिर आत्मीयता से सिर पर हाथ रख लिया, ‘‘तुम गई नहीं?’’

आंखें भर उठीं। जैसे, सदियों से वीरान पड़े मंदिर में प्रतिमा जाग रही हो!

दिल में घंटियां-सी बज उठीं, ‘‘आज तो तुमने मेरा दम ही निकाल दिया...’’ मैंने आपबीती सुनाई। मन घुमड़ रहा था, कंधे पर सिर रख सुबक लूँ, 'इस तरह गुम मत हुआ करो, किसी दिन मर जाऊंगा...।'

‘‘कुछ खाने के लिए लाऊं...?’’ चमकते आंसुओं के साथ वह हौले से मुस्कराई।

-रहने दो!' मैंने नाजुकी से गर्दन हिलाई, ‘‘बैठी रहो, ये पल फिर नहीं मिलेंगे। इस साल कालेज तुम्हें फेयरवेल दे देगा...अगले साल तक क्या पता...!’’ गला रुंध गया।

यह एक तथ्य था, जो मेरे मुंह से अचानक निकल गया था। क्योंकि- उसके लिए बहुत तेजी से घर-वर देखा जा रहा था। बिछुड़ने के ख्याल से ही दिल में दर्द की लहर उठ खड़ी हुई और मैं... धीरे-धीरे सुबकने लगा।

चुप कराते वह ऐन सट गई। फिर सीने में चेहरा दे खुद भी सुबकने लगी।

माहौल ग़मग़ीन हो गया, पर अच्छा लग रहा था। विरह-जनित मिलन के सुख में सराबोर विह्वल होते-होते मैंने उसे गोद में ले लिया। ठीक वैसे ही जब झीलों की नगरी उदयपुर से बस चली, रात की चादर धरती पे उतर आई, दो-दो सीटों के कूपे बन गए, ड्राइवर ने भीतर की लाइट बन्द कर दी, दिनभर के थके-हारे सैलानी जमुहाइयाँ लेते-लेते सोने लगे।

लता खिड़की की ओर थी, मैं गैलरी की ओर... दौड़ती बस के इंजन की ध्वनि के साथ सड़क पर तेजी से घूमते घर्षण करते टायरों की 'सूंऽसननऽ...' लोरी-गीत-सी गूँज रही थी जिससे सभी को बड़ी मीठी नींद आ रही थी। लता मेरे कंधे से सिर टिकाये ऊँघ रही थी सो आनन्द का पारावार न था और उसी में गोते लगाते उनींदा मैं स्वप्नलोक में विचरने को था कि वह मुझसे पहले सो गई और सोते-सोते उसने करवट-सी लेते अपना बायां पाँव उठाकर मेरी गोद में रखा तो जाँघ जाँघों पर आ गई, फिर सहारे के लिए बायाँ हाथ दायें कंधे पर रखा तो सीना सीने से सट गया।

नींद को सुर्खाब के पर लग गए... धमनियों में उबाल जो आ गया था। बाल तो कभी पीठ सहलाते-सहलाते अनुपम समय भाग्य को सराहने में बीत रहा था। हालांकि इससे पहले भी बस पर भीलों के हमले के समय वह डर कर सीने से लग चुकी, पर वह मात्र मिनट भर का एक एक्सीडेंट था, जिसमें उत्तेजना ने जनम नहीं लिया था। यह तो घण्टों का चिपकना हो गया! उत्तेजना इतनी बढ़ गई कि मैंने दोनों बाँहों में भर उसे गोद में समेट लिया, आवेग में बहते कई बार उसके चिकने कपोल चूम लिये। अगर वह स्लीपर रहा होता तो मैं उस रात ही इस रमणी का सेवन कर लेता! मगर तब न सही, आज वह संयोग फिर बन पड़ा। आज तो सामने दीवान भी है...।

पल-पल बड़ी तेजी से पंख लगाकर उड़ रहा था।

विकलता के श्रम और मिलन के सुख से संतोष में आंखें झुकने लगीं तो जमुहाई लेती हुई बोली, "कुछ खाना हो तो बोलो, हमें नींद आ रही!"

"सो जाओ।" मैंने हुलसते हृदय से कहा।

"यहाँ!"

"यहाँ नहीं, वहाँ..." दीवान की ओर इशारा किया।

पीली फ्रॉक में इस वक्त वह तितली के चमकीले पंखों-सी मनमोहक लग रही थी, जिसे जी भर भोग लेने की इच्छा जाने कितने जनमों से मेरे भीतर सिर पटकती हुई! मिलन के आवेग में गोद में उठाये पलांश में दीवान पर ले आया। मगर ऊपर आते ओठ ओठों में भर जितने तीव्र आकर्षण में चूमे, वह उससे दोगुने विकर्षण में दूर छिटक दीवान से उतर गई, "नईंनईंनईं..."

"अरे, ऐसी भी क्या मुसीबत!!" मैं खिसिया गया।

"कुछ खाओगे?" वह मासूमियत से पूछने लगी।

ऐसा गुस्सा छूटा कि कच्चा चबा जाऊँ, "नहीं, जाऊँगा अब।" मैंने रुखाई से कहा और झटके से उठकर चला आया। और वह पकड़ती-सी दरवाजे तक आई पर मैं पकड़ में न आकर निकल भागा तो गेट से टिक पथरा गई।