चक्र - 9 अशोक असफल द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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चक्र - 9

चक्र (भाग 9)

ऐसे प्यार को भूल जाओ

लता के एक वाक्य ने ही मुझे बेटी के प्रति सजग कर दिया था। पत्नी दो दिन बाद लौटी तो मैंने सब कुछ जानना चाहा। लेकिन उसने औपचारिक हाँ-हूँ के सिवा विस्तार से ऐसा कुछ न बताया जिससे मुझे संतुष्टि हो जाती। तब मैंने फैसला कर लिया, खुद जाऊंगा! और जब टिकट करा लिया, जाने लगा तो उसने रोक लिया, कहा- 'आप जाकर क्या करेंगे? वह तो हॉस्टल में रह रही है।'

मैंने कहा- 'क्यों नहीं करूंगा, मैं एक बार जाकर देखता हूं, प्रबंधन से बात करता हूं...'

इस पर उसने सख्ती से कहा, 'नहीं, उसकी कोई जरूरत नहीं, वह खुद कर लेगी।'

उसकी ऐसी बातें सुन मैं कट कर रह गया।

इधर लता से मैं दिनों दिन दूर होता जा रहा था। एक कारण यह भी था कि एग्जाम आने वाले थे और परीक्षा तैयारी की छुट्टी हो चुकी थी। स्टाफ तो जाता था मगर छात्र नहीं आते थे। दिन गुजरते गए। परीक्षा हो गई और उसके बाद रिजल्ट भी आ गया। पास आउट होकर लता को पीएचडी सूझने लगी। कारण यह कि वह शादी के झमेले में नहीं पड़ना चाहती थी। और इसका मुख्य कारण मैं था। शादी होते ही मुझसे हमेशा के लिए किनारा हो जाना था। मगर हम ऐसी पक्की डोर में बंध गए थे के वियोग झेलते हुए भी अब और किसी के नहीं हो सकते थे।

पीएचडी का सिलसिला शुरू हो जाने पर यह शादी कम से कम 3-4 साल के लिए मुल्तवी हो सकती थी। फिर उसके बाद उसे जॉब मिल जाता और वह खुदमुख्तार हो जाती। पापा की जिद न चल पाती। यही सोच वह पीएचडी पर आमादा थी। और पीएचडी वह मेरे ही सब्जेक्ट में करना चाहती थी। लेकिन मुझे गाइड बनने की पात्रता न थी।

शहर से सौ-सवा सौ किलोमीटर दूर एक ऑटोनॉमस कॉलेज था। उसके प्रोफेसर डॉक्टर शर्मा मेरे परिचित थे। लता से मैंने कहा, "तुम उनके पास चली जाओ।" उसने कहा, "आप भी चलते!" तो मैंने बहाना बना दिया कि मेरी तबीयत ठीक नहीं है। और वह कट कर रह गई। जानती थी, मैं क्यों नहीं जा रहा! बात यह थी कि पास रहने पर सीमा टूटती थी।

चूंकि अब रोज-रोज का मिलना भी न रहा था, इसलिए वह मुझ पर अधिक दबाव भी नहीं डाल पाई। अकेली चली गई। पर बेहद निराश लौटी। लौटकर उसने बताया :

"सर! उन्होंने तो छूटते ही कह दिया कि ’हम न तुम्हें थीसिस लिख कर दे पाएँगे, चाहे तुम लाख रुपये दो... और न बोलकर लिखा पाएंगे। हमारा खुद डी. लिट. का काम अधूरा पड़ा है!’

और उनका लिफाफा-सा मुंह देखकर हम अपनी हँसी नहीं रोक पाए तो इस पर वे और भी चिढ़ गये। तब हमने दूसरे दिन जाकर माफी मांगते हुए कहा था, ’सर! आप बेकार में बुरा मान गए हैं... हम खुद मेहनत करना चाहते हैं। तभी तो आप के पास आए हैं। नहीं तो कितने ही गाइड और थीसिस रेडीमेड रखे हैं... हमें पी-एच.डी. शादी के लिए नहीं नौकरी के लिए चाहिए, मेहनत तो करना ही पड़ेगी, हम जानते नहीं क्या!’

’ठीक है- हम विचार करके बता देंगे।’ कहकर आखिर तीसरे दिन हमें लौटा ही दिया।"

"कोई बात नहीं मैं चलूंगा!" मैं पिघल गया। क्योंकि लता के प्रति भी तो अब मेरी जिम्मेदारी थी! आखिर मैंने उसे प्यार किया है और उसके होने से ही मुझे इतना आधार मिला हुआ है कि पत्नी की घोर अपेक्षा के बाद भी जिंदा हूँ। रात को उसी को सिरहाने रखकर सो जाता हूँ और सुबह उसी का नाम लेकर जागता हूँ। दिन भर उसी का तो चेहरा आंखों में छाया रहता है। रात के सपने में वही तो बाँहों में मचलती है।

चार दिन बाद हमने चलने का प्रोग्राम बना लिया। वहां के लिए नैरोगेज ट्रेन जाती थी। सुबह 5 बजे जाकर उसमें बैठ गए।

यात्रा फिर एक बार साथ-साथ शुरू हो गई थी। राह पर पुराने दिनों के बर्क पलटते रहे। महीनों बाद फिर ऐसा लग रहा था कि मेरे और उसके बीच कोई दूरी नहीं है। भले दोनों की उम्र में 10-11 वर्ष का फ़ासला था।

गंतव्य पर पहुंच कर विचार किया कि अब शाम को 5-6 बजे उनके घर जाना तो ठीक नहीं, कल 10-11 बजे कॉलेज में जाकर ही मिलना ठीक रहेगा। यही सोच रहने के लिए एक लॉज तलाश लिया। दिन भर के भूखे थे, शाम को एक ढाबे में जाकर खाना खाया और चहल-कदमी करते हुए अपने रूम में आ गए।

रूम में एक डबल बेड था। कपड़े बदल बत्ती बन्द कर लेटते ही खिड़की से छनकर आती स्ट्रीट लैंप की रोशनी कमरे में जादू-सा जगा उठी।

लता मेरी तरफ और मैं उसकी तरफ मुंह किये लेटा था। दिनभर की थकान और रात होने के बावजूद आंखों में नींद नहीं थी। आख़िरश मैंने हाथ बढ़ा उसके सर पर रख लिया और बाल सहलाने लगा। और वह मुस्करा उठी कि सिलसिला फिर शुरू होने वाला है! और मुझे भी याद आ गया कि कैसे जब सोफे से उठा उसे दीवान पर लिटा लिया, हाथ पीठ पर रख लिया। और फिर भावुकता में चुपके से चेहरे पर बिखरी लटें हटा गोरा गाल चूम लिया।

गाल आज भी नजदीक है। बाल छोड़ मैंने उसे सहला दिया। और जब वह फुसफुसाई, "अब सो जाओ, सुबह जल्दी जाग सिलसिला बनाना है..." तो मैं भी फुसफुसाया, "सत्रह साल के वैवाहिक जीवन ने आदत बिगाड़ दी है, बिना चिपके अब नींद आती नहीं।"

गप्पी! मन ही मन हँसते, मुँह हिलाते कहा, "वे अब तुम्हें घास भी डालती हैं!"

"तभी तो तुम्हारी घास के पीछे पड़े!" कहते लालायित नजर मध्य क्षेत्र पर जमा दी। और तब मुसीबत से बचने ध्यान बंटा दिया, "आपको यकीन है, शर्मा साब मान जाएंगे!"

"दोस्त हैं, और फिर ये उनका काम भी। रिसर्च पेपर छपाना, पीएचडी कराना और सेमिनार अटेंड करना प्रमोशन के लिए ही नहीं, इंक्रीमेंट के लिए भी जरूरी।"

"पर कोई यथा स्थिति से संतुष्ट हो जाए... उन्हें देखकर तो ऐसा ही लगता है!"

"चलो देखते हैं! मना लेंगे।" मैंने आशा जगाई।

"आप तो मित्र हैं, कोई कमजोर नस हो तो दबाना!"

और मैं उसकी आँखों में बड़ी गहराई से झांकने लगा कि उसने इतनी गूढ़ बात कही! प्रोफेसर का हुलिया- उनके आम सरीखे चुसे गाल, कुछ कहने की चाह में कांपता कण्ठ का अंटा। शरीर में एड़ी से लेकर चोटी तक अदृश्य तिरछी विभाजक रेखा जिससे अर्धांग में पसीना नहीं आता... आंखों में नाच उठा।

जवानी के दिनों में शिष्या से प्यार कर बैठे तो पिता ने ऐसा षड्यंत्र रचा कि जल्दी में अंगूठा टेक, काली और एक भारी-भरकम लड़की से बांध दिया। जबकि वे दुबले-पतले, एकदम भूरे-भक्क़ और हायर एजुकेटेड थे।

शायद! वही एकमात्र गीत जो उन्होंने अपनी स्टूडेंट लाइफ में लिखा था काॅलेज-मैग्जीन के लिए... हरदम गुनगुना उठते।

और वो हुआ यों था कि उनके गाँव और जहां तक उनके खेत लगे हैं... उनके एम.पी. और राजस्थान के बीच मात्र एक पुल है। उस पुल के नीचे बहती है एक नदी चम्बल... वे नदी तीर के इन खेेतों में जब भी टहलने आते तो पुल पर उन्हें उस पार से एक स्त्री छवि-सी आती दीखती... और इस पार से एक पुरुष छवि-सी जाती दीखती! दोनों बीच पुल पर मिलते। मिले रहते जब तक कि कोई वाहन न गुजरता। और कभी-कभी तो वाहन के गुजर जाने के बाद भी आ मिलते।

शर्मा नीचे से टकटकी बाँध कर देखते कि फिर वह जोड़ा आसमान में तिरोहित हो जाता। देर तक एक धुंध-सी छाई रहती।

’हो न हो, ये द्रोपदी और कृष्ण हैं।’ उन्होंने एक दिन मुझसे कहा। और मैं हो-हो कर हँसने लगा। हँसते-हँसते बोला, ’यार... जितेन्द्र... तुम तो पक्के चूतिये हो!... भला द्रोपदी और कृष्ण का क्या साथ? अगर तुम्हें राधा दिखी होती तो मान भी लेते!’

’न-न,’ वे गम्भीरता से मुण्डी मटकाते सधकर बोले, ’ऐसा नहीं है... राधा तो एक कल्पित पात्र है! न वह कृष्ण की समकालीन है, न वास्तविक प्रेयसि। कृष्ण का लव तो द्रोपदी से ही था...’

तब उनकी आँखों में झांकता मैं बड़े विस्मय से भर उठा....कि अगर यह बात है तो फिर उन्हें सचमुच द्रोपदी और कृष्ण ही दिखते होंगे!

'कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता!' निश्वास भर हठात बुदबुदाते मैंने लता की ओर देखा, तो उसने मुस्कराते हुए कहा, "पर आपके तो दोनों हाथों में लड्डू आ गये!"

तंज समझ मैं कटकर रह गया। और उसके बाद वह सोयी तो सुबह देर तक सोयी रही। मुस्कराती-सी। जैसे कोई सुंदर सपना देख रही हो... मानो जिसके लिए देह धरी, वह मिल गया! लग रहा था वह पीएचडी के लिए नहीं, साथ के लिए ही आई थी! यह प्यार नहीं तो फिर और क्या? अब कोई कहे कि ऐसे प्यार को छोड़ दो राजेश, तुम विवाहित हो और एक कॉलेजियेट बेटी के बाप! तो यह तो साँस छोड़ देने की तरह हुआ, न?