चक्र - 1 अशोक असफल द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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चक्र - 1

चक्र (भाग 1)

आबू से लौट कर नींद उड़ गई

आबू और वापसी यात्रा इतनी गहरी पैठ गई थी जे़हन में कि निकाले नहीं निकलती। वे थोडे़ से दिन पूरी उम्र पर छा गए थे। स्त्री-पुरुष मैत्री, जो प्राण-प्राणों में उतर जाने पर तुल जाय और प्यार कहलाये, ऐसा प्यार मुझे पहली बार हुआ था! ...अब तक तो देह सम्बंध एक भूख की तरह जिये थे। शौक़-शौक़ में ब्याह हुआ, उछाह-आवेग में बच्चे! स्त्री-पुरुष के बीच इसके अलावा और कोई ऐसी अदृश्य डोर भी है जो क्षण-क्षण, तिल-तिल बांधे रखती है, बिना गुज़रे इसका पता चलता नहीं।

न चाहते हुए भी बेचैनी के आलम में तीन-चार दिन बाद मैंने फोन मिलाया, कहा, ‘‘नौ बजे सेंट्रल लाइब्रेरी में मिलो।’’

मुलाकात छह-सात वर्ष पुरानी थी। पहले मैथ्स और इंग्लिश पढ़ाता था उसे। फिर केमिस्ट्री और बायोलॉजी पढ़ाने लगा। संयोग से उसके शैक्षिक उत्थान के साथ ही मैं भी इंटर कालेज से पी.जी. कालेज तक के अध्यापन सफर पर पहुंचा। जननेन्द्रियों के क्रियाकलाप समझाता तो उसकी बाडी की केमिस्ट्री बदल जाती थी। अन्य छात्राओं में ऐसा परिवर्तन देखने को नहीं मिलता...। उसमें शुरू से ही कोई अलग-सी कैफियत थी, जो मेरी सायिकी में शरीक होती गई।

‘‘क्या लिखवाना है, सर!’’

वह आ गई। मगर साथ में अपनी बेस्ट फ्रैंड शहनाज को भी ले आई! उन्हें वहां बुला कर मैं कई बार महत्वपूर्ण पुस्तकों के अंश उतरवाया करता था...।

कुछ सूझा नहीं। अजीब-सी घबराहट होने लगी। पुराने अख़बारों का बन्च उठा कर बनावटी व्यस्तता दिखाने लगा। थोड़ी देर में शहनाज बोर होने लगी, ‘‘तू रुक, मैं चलती हूं...’’ वह बेबसी में मुस्करायी। मैंने कनखियों से देखा, ‘‘सर-नमस्ते!’’ बोल कर वह चली गई।

‘‘उसे बुलाया था-क्या,’’ मैं ख़ीजा, ‘‘क्या सोचेगी...’’

‘‘कुछ नही...।’’ उसने नकार में गर्दन हिलायी, मुस्कान बरकरार थी।

‘‘तुमने कुछ बता तो नहीं दिया इसे!’’ मैं तनावग्रस्त हो गया।

-कहीं और चलें...? उसने आंखों में पूछा।

‘‘नहींऽ!’’ मैं बौखला गया। जरा-सी मिसअण्डरस्टेंडिंग के कारण अच्छा-भला मूड बिगड़ गया था।

यह सच है कि शुरूआत अचानक नहीं होती...। कुछ साल पहले तक मैं अकेला ही रहता था। तब कोचिंग सेंटर ही मेरा घर हुआ करता। कालेज और कोचिंग सेंटर बस दो ही स्थान थे शहर भर में जहां मुझे पाया जा सकता था। इसी कारण धीरे-धीरे उसे वहम हो गया कि मैं बैचलर हूं। ...और यों तो मैं सभी के लिए हँसमुख था हैंडसम भी। किंतु अन्य लड़कियों के बजाय वह कुछ अधिक ही आकृष्ट थी। फिर भले पैत्रिक सम्पत्ति के बंटवारे के बाद मैंने भी शहर में अपना एक छोटा-सा घर बना लिया और परिवार के साथ रहने लगा। पर संयोग-वश जो चाहना बन गई थी, उसमें कोई कमी नहीं आई...।

कालेज का ऐतिहासिक टूर माउन्ट आबू के लिए प्रस्तावित हुआ। मैंने लिस्ट बनाई तो लता का नाम सबसे पहले जेहन में कौंधा। ...पहला पड़ाव जयपुर। बस होटल परिसर में जाकर ठहर गई। दो हाल बुक करा लिए थे। एक में लड़के और उनके क्लास टीचर शिफ्ट हो गए, दूसरे में लड़कियां और उनके क्लास टीचर। हालांकि मैं लड़कियों का ही क्लास टीचर था, किंतु मेल सेक्शन में ठहरा। बीच-बीच में अपनी क्लास की लड़कियों की व्यवस्था देखने जाता रहा, जो मेरी व्यक्तिगत जिम्मेदारी थी। अशासकीय शिक्षण संस्थाओं में संस्था से अधिक टीचर्स की रिस्पान्सबिलिटी मानी जाती है। और वे इसे निभाते भी हैं। गार्जियन्स से उनके सीधे सम्बंध रहते हैं।

जयपुर हम दो दिन रहे। ‘हवामहल’ और ‘जंतरमंतर’ देख कर वह पागल हो गई थी। वहां की मशहूर राजमंदिर टाकीज में हमने नई ‘देवदास’ भी देखी। ‘जलमहल’ और ‘गल्ता’ झील ने उसे इतना आकर्षित किया कि उसकी वह इच्छा मुझे माउन्ट आबू में पूरी करना पड़ी, जब मैंने उसे ’नक्की’ झील में बोटिंग कराई...। शायद, एक साथ ‘देवदास’ देख कर ही हम इतने घुलमिल गये कि फिर आगे का सफर बस में उसने मेरी बगल में तय किया...।

वह टू-बाई-टू सीटर एक डीलक्स बस थी। इतनी आरामदेह कि जरा भी जर्क न लगे, सीट्स बेड की तरह खुल जायं। रात्रि में तो सीटों के कूपे बन जाते...।

एक रात पेड़ों पर चढ़े भीलों ने बस पर पत्थरों से हमला कर दिया तो, वह चीख कर मेरे गले में लिपट गई!

मैं अपने भाग्य पर फूला नहीं समा रहा था। मुझमें एक नई तेजी, नई ऊर्जा और नवोत्साह का संचार हो उठा था। न टीचर्स को शक था, न छात्र समुदाय को। तब शक सरीखा कुछ था भी नहीं। वह स्टूडेंट थी, मैं टीचर। मगर हमारे बीच गुरु-शिष्या का वह पारंपरिक रिश्ता आबू में ‘काका-काकी’ हनीमून पाइंट पर आकर अचानक भावुकता में बदल गया था...।

और वह शुरूआत लता ने की।

वही उस दिन होटल से शौकिया साड़ी बांध कर चली...। नजर बचा कर मुझे उस दिलकश चट्टान के पीछे ले गई जहां इस जहान से दूर एक नई दुनिया में मदहोश कईएक जवां दिल आपस में मशगूल थे। हमारे कालेज का और परिचित कोई चेहरा न था।

‘‘बताइये सर, साड़ी में कैसी लगती हूं?’’ उसके ओठों पर जो बात देर से थी, फूटी।

‘‘बुरा तो नहीं मानोगी?’’ मैं मुस्कराया।

‘‘नहीं बतायेंगे तो जरूर मानूंगी...।’’

‘‘एकदम फिट लगती हो...’’ मैंने अपने मन की बात कह दी। ऐसे, जैसे सलमान खान ने प्रियंका चोपड़ा से पूछ लिया, मुझसे शादी करोगी! लता चहक कर सीने से लग गई, ‘ओऽसर!’ और मैं घबरा गया, यह क्या हुआ...? मेरी बीबी है, एक बेटी भी! मैं तो बस, मजे के लिए चुहल किया करता हूँ। और आजकल तो यह भी ऐजुकेशन का पार्ट है। सेक्स फीलिंग्स को उभारना, फिर पूरी मैच्योरिटी के साथ जिज्ञासाओं का समाधान, उनका शमन।

उसके चेहरे पर अनार फूट गया था, आंखें बिल्लौरी हो आई थीं! खैर।

समय के साथ यह नादानी दूर हो जायेगी। तब मैंने सोचा था...। लेकिन सोचने और होने में जमीनोआसमान का फर्क हुआ करता है। मेरी केमिस्ट्री उसकी उपस्थिति में अब बदलने लगी थी। निर्जन में साथ रहना अच्छा लगने लगा था। दिलचस्पी हमारी न म्यूजियम में थी, न पिता श्री की समाधि अथवा नंदी अचलगढ़ और अम्बा देवी मंदिर में- क्योंकि भीड़ का एक रैला साथ होता हरदम। पर आबू की गुफाएं और टॉड रॉक, गुरु शिखर हमें खींचते थे। वहां एकान्त में एक-दूसरे का हाथ थाम चल पाते...। वही आनंद और उल्लास का विषय था। शेष सब गौण! दिल में हरदम एक मिठास सी घुली रहती।