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चक्र - 2

चक्र (भाग 2)

डोन्ट टच माई चुनरिया

शाम का वक्त। ग्रुप सूर्यास्त देखने की हड़बड़ी में आगे निकल गया था। हम होटल से ही पिछड़ गए थे। चाह कर भी पीछा नहीं कर पाए। मगर ‘सनसेट’ की तरफ पैदल ही काफी लोग जा रहे थे। आखिरश पूछते-पूछते पहुंच ही गए ‘सनसेट पाइंट' पर जहां का माहौल ही कुछ अलग था...। जगह-जगह सीढियां बनी हुई थीं। सब सैलानियों से भरी हुईं। रंग-बिरंगे वस्त्राभूषणों में सुसज्जित स्त्री-पुरुष और बच्चों का हुजूम देखकर ही बहुत अच्छा लग रहा था।

अंततः हमने भी एक ऊंची-सी जगह तलाश कर ही ली! बड़ा सुंदर नजारा था। एक तरफ पहाड़, दूसरी तरफ लम्बा-चौड़ा मैदान। धूप से मेरी आंखें नहीं खुल थीं, क्योंकि हम सूरज की तरफ मुंह करके ही बैठे थे। जबकि मेरी ही बगल में बैठी वह चमचमाते सूरज से लगातार आंखें मिला रही थी! मैंने कहा कि- काफी धूप है!’ उसने कहा- पर हवा भी तो ठंडी चल रही है, आप मुंह फेर लीजिये!’ मैंने कहा- कोई बात नहीं, अब तो वह हौले-हौले नीचे जा रहा है!’ वह बांह झिंझोड़ चहकी- नहीं, बड़े फुटबाल की तरह घूम रहा है!’

‘‘किरणें भी ठंडी लग रही हैं!’’ भावावेग में हथेली मैंने उसके सिर पर रख ली, ‘‘पता है, फिल्म ‘कयामत से कयामत तक’ की शूटिग यहीं हुई थी!’’

‘‘सर ऽ फोटो खींचियेऽ!’’ सूरज को उंगली पर उठाये वह धीमे से चीखी। पर मैंने केमरा फोकस कर क्लिक किया तब तक वे नीचे सरक गए! चेहरा झुका वह फूंक मारने लगी, ‘‘अब खींचये!’’ दृश्य मैंने कैद कर लिया मगर उसकी नाक पकड़ हिलाते हुए कहा- पाऽगल! कभी सूरज भी फूंक से उड़ा है!’ पर उसने परवाह नहीं की। लुढ़कती-सी सीढ़ियां उतर सूरज को आखिरश अपनी अंजुलि में भर ही लिया!

एक वही नहीं, ‘सनसेट’ का निराला रूप निरख वहां तो हरदिल चहक रहा था। सूरज महाराज की अनोखी अदाओं पर हर कोई फिदा हुआ जा रहा था। पर बढ़ता धुंधलका धीरे-धीरे माहौल की सरगर्मियां छीनता जा रहा था। टैक्सी लेकर हम भी ‘नक्की’ झील चले आए। जहां ‘सनसेट’ से भी अधिक रौनक थी। रेस्टोरेंट पानी में तैर रहा था और बगीचे में म्यूजिकल फाउन्टेन चल रहा था। एक रास्ता गांधी घाट को जा रहा था जहां बोटिंग करने के लिए भारी भीड़ जुटी थी। मुझे लगा कि जितना समय नौका पाने कतार में बर्बाद करेंगे, उतने में झील के किनारे कहीं एकांत में बैठ सुकून पा लेंगे!

घाट से थोड़ी दूर छोटे-छोटे दुकानदार लोक लुभावन वस्तुओं के साथ पर्यटकों को आकर्षित कर रहे थे। हम उन्हें अनदेखा कर झील के दक्षिण-पूर्वी किनारे पर स्थित पानी में बने जहाजनुमा रेस्टोरेन्ट की ओर चले आए। भाग्य से रेस्टोरेंट उस वक्त बिल्कुल खाली था। सारी भीड़ नौका विहार का आनंद लेने में मशगूल थी। चूंकि भीड़ के आने का समय नहीं हुआ था इसलिए बैरे भी इधर-उधर थे। पानी के समीप शांति से बैठने का ये अनुकूल अवसर था।

सरोवर रेस्टोरेन्ट के डेक से झील का रमणीक दृश्य दिख रहा था। झील के दूसरी ओर की पहाड़ियों के नीचे उठते श्वेत फव्वारे और उन फव्वारों के बीच चलती भांति-भांति आकारों से सुसज्जित छोटी-बड़ी नावें...। अभी हम रौशनी में जगमगाती रात की बांहों में मचलने आतुर झील को आत्मसात् कर ही रहे थे कि दक्षिण-पश्चिमी सिरे से बादलों की पतली चादर उड़ती सी दिखाई दी। बादलों के फैलाव को देखते ही मैं समझ गया कि ये वर्षा के बादल हैं। मैंने लता का हाथ पकड़ उतावली में कहा, ‘‘देखो तो- जो लोग खुली नौकाओं में सवार हैं, वे भी बारिश में लौटने को तैयार नहीं दिख रहे!’’

‘‘क्यूं लौटें भला, घर से इतनी दूर मौज-मस्ती के माहौल में अपने को सराबोर करने ही तो चले आए!’’ मस्ती में झूमते वह उनकी तरफदारी करने लगी।

पर ज्यों-ज्यों अंधेरा बढ़ा, बारिश और तेज होती गई। अंधेरा और बारिश बढ़ने की वजह से भोजनालय में भीड़ बढ़ने लगी। माहौल देख तुरंत नाश्ते का आर्डर देकर हम भीतर आकर बैठ गए। आंखों से ओझल ‘नककी’ झील अब भी दिलोदिमाग पर छाई थी। गहमा-गहमी के बीच मैंने उसे बताया कि- ऐसी मान्यता है कि इस झील को देवताओं ने अपने नख से खोदा है, इसी कारण इसका नाम ‘नक्की’ झील पड़ा।’’

‘‘अरे!’’ सहसा उसे यकीन नहीं हुआ।

झील के नाम को लेकर सहसा ही मुझे वो गाना याद आ गया जो लड़कपन में सुना था, ‘डोन्ट टच माई चुनरिया बलम रसिया’! मैंने गुनगुनाया तो उसने पूछा, ‘‘इस ऊटपटांग से गीत का ‘नक्की’ झील के नामकरण से क्या संबंध है, भला?’’

‘‘बहुत गहरा संबंध है,’’ उसकी आंखों में झांकते हुए मैंने कहा, ‘‘सुनते हैं- किसी जमाने में यहां एक ऋषि रहा करते थे जिनका नाम भी यही था, बलम रसिया...।’’

‘‘अच्छा...!’’ वह अचरज से हँसी।

‘‘हां, हुआ ये कि वे एक राजकुमारी को अपना दिल दे बैठे। राजा चिंता में पड़ गया। एक योगी को वह अपनी लड़की का हाथ भी नहीं देना चाहता था और उन्हें नाराज भी नहीं करना चाहता था...। अब करे तो करे क्या? उसे एक जुगत सूझी। उसने योगी के सामने शर्त रखी कि- आप सुबह तक, मुर्गे की बांग से पहले पहाड़ की चोटी से लेकर तलहटी तक अपनी कानी ऊंगली (कनिष्ठा) से खुदाई कर एक रास्ता और झील बना दें तो हम इस विवाह के लिए राजी हो जाएंगे।’’

‘‘हा-य!’’ उसके मुंह से निकला। मैंने महसूस किया कि दिल धड़क गया। क्योंकि यह तो सरासर चालाकी थी। एक योगी को राजकुमारी का हाथ कैसे भी न देने की चाल...। चेहरा बुझ-सा गया। पर उसी क्षण उसके डूबते-से दिल को सहारा देते मैंने हाथ दबाकर कहा, ‘‘बलम रसिया भी पहुंचे हुए योगी थे! भोर तो अभी बहुत दूर थी, रात्रि के दूसरे प्रहर तक ही उन्होंने अपनी कानी उंगली से इतनी बड़ी झील खोद मारी! पर वे अपनी दिव्य शक्तियों से उस तक पहुंचने का मार्ग खोदने वाले ही थे कि रानी ने छल से मुर्गे की आवाज निकाल कर उन्हें भ्रमित कर दिया। हताश ऋषि अपनी कुटिया में वापस लौट आए।’’

‘‘अरे!’’ अंततः वह निराश हो गई। निश्वास छोड़ मैंने आगे बताया, ‘‘वापस लौटकर उन्हें जब वस्तुस्थिति का भान हुआ तो उन्होंने शाप देकर रानी और राजकुमारी को पत्थर की मूरत बना दिया और बाद में खुद को भी एक शिला में ढाल लिया। प्रेम-कथा के इस दुखद अंत को आज भी श्रद्धालु कुंवारी कन्या मंदिर में याद करते हैं।’’

खाने का स्वाद जाता रहा। बारिश थम गई तो हमलोग गांधी घाट चले आए। एक छोटी-सी नाव ले ली और बोचोंबीच बने उसके डेक पर एक-दूसरे की बगल में बैठ गए। बोट चलने लगी तो माहौल बदल गया। उसने उत्साह में झूमकर कहा, ‘‘सर, वो देखो, रेस्टोरेंट खिसक रहा है...अब बगीचा और वो म्यूजिकल फाउन्टेन भी!’’

‘‘हां-हां! पहाड़ियां भी तो घूम रही हैं!’’ मैं उसकी आंखों में झांकता हुआ बोला।

‘‘उनमें छोटे-छोटे पहिये लगे हैं, ना!’’ कहते उसने मेरा हाथ अपनी हथेलियों में दबा लिया।

उमंग में बहते-बहते हम झील के बीचोंबीच बने टापू के करीब आ गए। जहां एक ऊंचा फाउन्टेन चलता है। मैंने बताया- इसकी धारा 80 फुट ऊपर जाती है!’ और वह आसमान की ओर मुंह उठाकर देखने लगी। विद्युत की चकाचौंध में फव्वारे की रंगबिरंगी धाराएं बहुत ऊपर तक जा रही थीं। पर नौका झील के बीचोंबीच बने इस चबूतरे का चक्कर काटकर गांधी घाट की तरफ वापस लौटने लगी। नाविक ने ठीक उसी वक्त पूछा, ‘‘और या बस?’’

‘‘और-और! अभी तो और!!’’ वह बच्ची-सी उछली।

‘‘क्यों, और क्यों! रात नहीं हो रही?’’

‘‘होने दीजिए, पानी में छप्-छप् की यह दिलकश आवाज फिर कहां सुनने को मिलेगी, सर?’’

आसमान में चांद से बादलों की लुका-छुपी अब भी जारी थी। बारिश का क्या भरोसा, कभी भी गिर सकती थी! पर मुझे उसका साथ अच्छा लग रहा था। दिल में उसकी भोली जिज्ञासाओं पर हजारों तरंगें उठ रही थीं। मैंने कपोल थपथपाते धीरे से कहा, "सुनने को मिलेगी तो...पर तुम झील में पतवार डलवाओगी नहीं।"

‘‘क्यूं!?’’ उसने मेरे दोनों बाजू पकड़ सम्मुख होते-करते पूछा।

‘‘क्योंकि लड़कियां डरती हैं!’’ मैं मुस्कराने लगा।

‘‘हम नहीं डरते...आजमा लेना!’’ उसने हेंकड़ी दिखाई।

‘‘कब!?’’ मैंने बलम रसिया की तरह रास्ता खोदना शुरू कर दिया।

‘‘चाहे जब...!’’ कहकर वह गर्दन मोड़ गोया शरमा गई और मैं रंगीली रात में डूबने-उतराने लगा।

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