चक्र - 3 अशोक असफल द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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चक्र - 3

चक्र (भाग 3)

एक दिन डेटिंग पर

कई रोज बाद एक रोज लाइब्रेरी हाल से निकल कर अनजाने में ही हम उस बस में आ बैठे, जो उधर से निकलती थी, जिधर से निकलने पर बस की खिड़की से हमेशा दिखता था एक डाक बंगला। नदी किनारे टीले पर अकेली खड़ी इमारत। वह जैसे बुलाती थी। मगर कोई जाता नहीं था। मेरे जे़हन में अर्से से वही एक ऐसी जगह थी आसपास की जानी-पहचानी सारी जगहों में जहां हम जा सकते थे...।

नदी-पुल पर बस टोलटैक्स गुमटी पर रुकी तो मैंने आंख के इशारे से कहा, ‘चलो, इसे भी देख लें!’

वह हँसती आंखों से उठ खड़ी हुई। बस चली गई तब हमने पुल के छोर से डाक बंगले को नजर भर देखा। टीले पर खड़ा वह हमें भी देख रहा था। दोनों के बीच एक पगडण्डी थी। जोश में चढ़ने लगे। बीच-बीच में एक-दूसरे को मुस्करा कर निरख लेते, गोया डेटिंग पर हों! ऊपर जाकर खुशी और बढ़ गई। उजाड़ रेस्ट हाउस में उस वक्त हमारे सिवा और कोई नहीं था! गलियारे में चढ़ कर एक कमरे में दाखिल हो गए। मगर सोफा, बेड सब टूटे मिले। उन पर इतनी धूल अंटी थी कि बैठने पर कपड़े धूल से भर जाते। मीटिंग और डाइनिंग हाल में भी बालिश्त भर जगह नहीं मिली। सोचा, सोफा-कुर्सी के बजाय एक टेबिल साफ कर दो क्षण बैठ लें। इस प्रयास में उसने अपना रूमाल भी गंदा कर लिया...। और मैंने दरवाजा भेड़कर सिटकनी खोजी तो उखड़ी मिली! फिर हमने बारी-बारी सभी किवाड़ों में सिटकनियां ढूंढ़ीं, एक भी साबूत नहीं! तोड़ दी गई थीं। क्यों? हमें डर-सा लगा। रसोई में पहुंचे तो अधजली लकड़ियां और कुछ जूठन-सी बिखरी मिली। ...कहीं डकैत तो यहां आकर रसोई नहीं रचते?’ डर और बढ़ गया। और हम लुढ़क कर कछार में आ गये...।

नदी पार टीले पर मंदिर का ध्वज लहरा रहा था। मैंने कहा, ‘‘वहां चलते है...।’’

‘‘फिर पुल की ओर क्यों चलें,’’ वह सोच कर बोली, "यहां नदी पांज (उथली) होगी!’’

शायद हो! बीच-बीच में रेत चमक रहा था। मैं धँसने लगा। पीछे-पीछे लता भी। धार तेज थी मगर घुटनों तक रही। मंझधार में आकर हमने एक-दूसरे के बाजू थाम लिए ऐहतियातन। फिर किनारे तक उसी भांति चले आये। फिर मेरी हाथ छुड़ाने की इच्छा नहीं हुई। ...और सटने की होने लगी। उसने भी हाथ छुड़ाया नहीं।

मगर मंदिर वाले टीले पर आकर पता चला कि वह निर्जन नहीं है! वहां एक साधु भोजन पका रहा था। वह उघारा था, कमर पर महज एक पटका लपेटे हुए। हम लोगों को देखते ही बोला, ‘‘परसादी ग्रहण करोगे?’’

‘‘नहीं...।’’ हमने एक साथ कहा।

बोला, ‘‘बगल में गुफा है- जाओ देख आओ!’’

‘‘गुफा?’’

‘‘ऊपर मंदिर है, दर्शन कर लो जाके...’’

‘‘हां- वो तो हैं!’’ हमने कहा।

‘‘अच्छा! और किसी काम से आये हो।..’’ उसकी आंखें चमकीं।

‘‘नहीं, गुफा का पता नहीं था...’’ लता ने बात संभाली।

‘‘गुफा तो प्रसिद्ध है...दूर-दूर के लोग आते है...।’’ उसने आले से टार्च उठा कर दी, ‘‘देखो तो आप जाके!’’

मेरा दिल धड़कने लगा...। जो एकान्त और सुरक्षा चाहता था आखिर वही तो ईश्वर ने बख्श दी! मगर लता के चेहरे पर रसोई रचते साधु की तलवार लटक रही थी। उसने इशारे से मना कर दिया।

आलमारी में एक धुंधला-सा बोर्ड पड़ा था। मैंने साधु की गृहस्थी खिसका कर इबारत पढ़ी, ‘संस्कृत विद्यालय’!

‘‘अरे!’’

‘‘हां- पहले किसी जमाने में चलता था। उस कोठरी में आज भी कुछ पुस्तकें रखी है...।’’ बाबा ने सामने की ओर इंगित किया।

मैं उठ कर चल दिया। पीछे लता भी। किवाड़ों की सांकल उतार कर धूल-जाले से अंटी किताबें पलटीं। पीले, मोटे छापे के पन्ने। अजीब-सी स्मैल से भरे हुए। दीमक चाट गई थी बहुत कुछ। दो किताबें छांट लीं। ‘पार्वती मंगल’ और ‘चार्वाक संहिता’।

साधु ने फिर कहा, ‘‘भोजन का समय हो चुका है, अब तो भूख भी लगी होगी...।’’

लता मुस्करायी, अर्थात् हां!

रोटियों की गंध ने मेरी भी क्षुधा जाग्रत कर दी थी।

‘‘ठीक है, पा लेंगे।’’ मैंने कहा।

साधु थाली में और थोड़ा-सा आटा निकाल कर गूंदने लगा, ‘‘सब्जी तो सैली है, चार टिक्कर और लगाए देता हूं...यहां तो कोई न कोई मूर्ति आती ही रहती है।’’

फिर वह थाली सजा कर बोला, ‘‘मैं जाकर भोग लगाता हूं तब तक थोड़ा-सा आटा है, तुम सेंक लोगी?’’ उसने लता से पूछा।

‘‘बिल्कुल!’’ वह खुशी से भर गई।

‘‘तो फिर ठीक है...’’ कह कर वह मंदिर की सीढ़ियां चढ़ने लगा।

लता लकड़ी के चूल्हे पर रखे तिरछे तवे को चिमटे से ठीक कर, उकड़ूं बैठ, थाली से आटा तोड़ लोई बनाने लगी। कुरता समेट कर उसने अपनी जांघों में दबा लिया था। मैं उसे अचरज से निहारता वहीं पत्थर की बैंच पर बैठ गया। पहली किताब पलटी। बीच में एक पन्ने पर नजर ठहर गई। श्लोक था- बिल्वस्तनी कोमलिता सुशीला सुगंधकुंता ललिता च गौरा। नालिंगतो येन च कंठदेशे वृथागतः तस्य नरस्य जीवनम्।

नजरें लता की ओर उठ गईं और मैं कल्पना करने लगा कि उसके स्तन सचमुच बेल सदृश चिकने होंगे! वह कितनी कोमल और सुशील है और गोरी भी! करीब होती है तो देह से उठती भीनी सुगंध जो कि कमल पुष्प-सी प्रतीत होती है, मुझे मदहोश कर देती है। सचमुच इसे गले से लगा कर आलिंगनबद्ध न करके मैंने अपना नर जन्म वृथा गंवा दिया है...।

लता ने हाथ से ठोक कर टिक्कर तवे पर डाल दिया था। मैंने निश्वास छोड़ कर किताब फिर खोली, श्लोक था- पीनस्तनी पक्वबिम्बाधरोष्ठा प्रसन्नवक्त्रा मृदुभाषणीया। नोसेवितो येन भुजंगवेणी वृथागतः तस्य नरस्य जीवनम्।

और मैंने नजरें उठा कर फिर पुष्टि की...। पुष्ट स्तन अभी दुपट्टे के पीछे छुपे हैं पर पके कुंदरू से ओष्ठ तो रूबरू हैं! उसका प्रसन्नता से चहकना और मधुर संभाषण तो मैंने सुना है! ओह! इस काले सर्प-सी चोटी वाली रमणी का सेवन न कर मैंने अपना नर-जन्म व्यर्थ गंवा दिया है!

उसने मंद-मंद मुस्कराते हुए रसोई समेटनी शुरू कर दी थी। मैंने अगला श्लोक पढ़ा- चलत्कटि नूपुरमंजुघोषा नासाग्रमुक्ता नयनाभिरामा। नोचुम्बितो येन सुनाभिदेशे वृथागतः तस्य नरस्य जीवनम्।

मेरे कानों में घंटियां-सी बज रही थीं। क्या सचमुच उसके चलने-फिरने से करघनी और नूपुर मधुर ध्वनि कर रहे थे! उसकी नाक की लोंग मुझे चकित कर रही थी! तब तो उसके सुंदर नाभिप्रदेश को न चूम कर मैंने अपना मनुष्य-जन्म सचमुच ही गंवा दिया...।

‘‘क्या पढ़ लिया जो इतने डूब गये?’’ वह सम्मुख थी।

‘‘चार्वाक संहिता।’’

‘‘अरे! ऐसा क्या लिखा है उसने?’’

‘‘सिर्फ लिखा नहीं, तुम्हें हू-ब-हू उतार दिया है...’’

वह एक खास अदा से मुस्करायी और खाना परोसने लगी। थोड़ी देर में साधु भी भोग लगा कर लौट आया। मैंने जीवन में पहली बार इतना स्वादिष्ट खाना खाया। लता ने भी सब्जी और टिक्करों की बहुत तारीफ की। साधु बच्चों और गृहणियों की तरह खुश हुआ। खाने के बाद हम लोगों ने अपने-अपने बर्तन मांजे-धोये। मेरे तईं यह भी पहला अनुभव था। फारिग हुए तो साधु बोला, ‘‘आप ईश्वर को नहीं मानते?’’

‘‘किसने कहा?’’ मुझे झटका-सा लगा। मैं जन्मजात पुरोहित!

‘‘तो मूर्ति में श्रद्धा नहीं है...’’

‘‘नहीं-नहीं, ऐसी कोई बात नहीं। हम तो मंदिर के ध्वज से ही प्रेरित होकर यहां आये! पर गुफा वर्णन, विद्यालय दर्शन फिर भोजन...। मूर्ति दर्शन का अवकाश ही नहीं मिल पाया।’’

‘‘अब चलते है...।’’ लता ने उत्साह से कहा।

बाबा तख्त पर आराम करने लगा। मैं लता के पीछे मंदिर की चौड़ी सीढ़ियां चढ़ने लगा। ‘चार्वाक संहिता’ लेना चाहता था ताकि एकान्त में उसे वे श्लोक सुनाऊं! किंतु धोखे से ‘पार्वती मंगल’ उठा लाया। बहरहाल, सीढ़ियां चढ़ते-चढ़ते पन्ने पलटे तो अचानक एक श्लोक पर नजर ठहर कर रह गई। लता ने बांह से टिक कर पूछा, ‘‘अब क्या मिल गया?’’

‘‘ऊपर बैठ कर बाँचेंगे।’’ मैंने उंगली लगा कर किताब बंद कर ली।

शिला खण्ड में उत्कीर्ण वहां हनुमान जी की विशाल प्रतिमा थी। उसमें सिर्फ उदर और मुख दर्शाया गया था। न हाथ-पैर न गदा और न द्रोणागिर।

लता ने अपना सिर मेरे कंधे से सटा लिया था। प्रार्थनारत् हम थोड़ी देर यों ही खड़े रहे। मेरा दिल धड़क रहा था और शायद, उसका भी। मैंने मन ही मन देवता से कहा कि आप मुझे माफ करें। मेरा चित्त आपकी भक्ति में न होकर इस रमणी में रमा हुआ है। यद्यपि ब्रह्मा ने अपने पुत्र नारद से कहा है- पुरुषं सुवेशम् दृष्ट्वा भ्रातरम् यदिवासुतम। योनिःक्लीद्यन्ति नारिणाम् सत्यम्-सत्यम् हिनारद।’ पर मैं तो यह अनुभव कर रहा हूं कि इस नवयौवना को एकान्त में पाकर संभोग की कल्पना से स्वयं मेरा बुरा हाल है!

लता ने मुख उठा कर मुझ पर एक बेधक नजर डाली और परिक्रमा हेतु बायीं ओर घूम गई। मैंने तुरंत उसका अनुसरण किया। किताब मेरे हाथ में थी। मूर्ति के पीछे जाकर वह ठिठकी। मैंने उससे सट कर किताब खोल ली। उंगली उसी श्लोक पर लगी थी, जिसने इतना उत्तेजित कर दिया था मुझे!

‘‘क्या लिखा है?’’ वह फुसफुसायी।

जालियों से पर्याप्त रोशनी आ रही थी। मगर श्लोक पढ़ने से पहले ही मैं हांफ गया। मैंने उसे लता की ओर बढ़ा दिया! वह अटक-अटक कर पढ़ने लगी, ‘जघ नन्त राले विमले विशाले अधोमुखी रोम बने बसंती। सापा तु देवीम् भग नाम ध्येयो दन्तम बिना चर्बति चर्म दण्डाह।’ फिर चेहरा उठा कर गोया इन्नोसेंटली पूछा, ‘‘मतलब?’’

मैं हाथ उसकी कमर में डाल कर रहस्यमय ढंग से मुस्कराया कि इतनी संस्कृत तो आती होगी!

‘‘किसकी स्तुति है?’’ उसकी आंखें चमक रही थीं।

मैंने हिम्मत जुटाकर नजदीक हो आए ओठों का एक भावप्रवण चुम्बन ले लिया। धमनियाँ झनझना रही थीं। उखड़ती सांसों के मध्य किसी तरह फुसफुसाया, ‘‘स्तुति-प्रार्थना नहीं, वर्णन है...इंटरकोर्स का डिटेल दिया है, ऋषि ने...।’’

‘‘धत्!’’ चेहरा लाल पड़ गया।

और मैंने लोहा गर्म समझ कमर अपने बाजुओं में कस ली, "क्यों, अब झील में पतवार न डलवाओगी... तुम्हीं ने तो कहा था, पानी में छप्-छप् की यह दिलकश आवाज फिर कहां सुनने को मिलेगी?’’

"नईं नईं नईं...हमने कब कहा..." वह मुकर गई और घबराकर सिर सीने में गड़ा सख्ती से पीछे की ओर हट गई। ...फिर भाग खड़ी हुई।

जीवन में ऐसी हास्यास्पद स्थिति पहली बार बनी। इतना शर्मसार हुआ कि दो दिन घर से नहीं निकला। फिर आत्मनियंत्रण की गरज से मैंने कालेज से लम्बी छुट्टी ले ली।

कई दिन बाद एक दिन वह घर आई और बातों-बातों में ही मुझे एक लिफाफा थमा गई। जिसे बंद कमरे में जाकर धड़कते दिल से मद्धिम उजाले के बीच पढ़ा मैंने, सिर्फ एक पंक्ति- ‘आप विद्ड्रा करलें... मैं नहीं करने वाली!’

-इसका क्या मतलब...?' मुझे उससे नफरत होने लगी। आबू से वापसी में अपनी सीट के कूपे में जो आनंद लूटा था, वही सहस्रगुना गुनाह में तब्दील होकर चित्त को छलनी किये दे रहा था। आखिर मैंने शर्त रखी कि अब तुम मुझसे मिलीं तो जहर खा लूंगा!

उन दिनों न मैं किसी से बात करता, न कोई काम। हरदम दिल में एक हूक-सी उठती रहती। तनाव और विरह ने मुझे बीमार कर दिया। धमकी से वह भी डर गई। तीन महीने तक नहीं मिली। न मैं कालेज गया। परीक्षाएं निबट गईं। वे दिन मुझ पर ही नहीं, मेरे परिवार पर भी बहुत भारी पड़ गए। प्राइवेट कालेज जहां 12 महीने काम लेकर 10 महीने का वेतन रो-झींक कर देते हैं- वहां कोई तीन महीने गोल मारे तो!