कामवाली बाई - भाग(१८) Saroj Verma द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

कामवाली बाई - भाग(१८)

एक बार मेरी माँ बहुत बीमार पड़ गई,एक वही तो कमाने वाली थी वो भी बिस्तर पर लेट गई ,अब हमारे पास खाने को तो पैसें नहीं थे माँ का इलाज कैसें करवाते?तब मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा,पड़ोसी कुछ दिनों तक तो हमारी मदद करते रहे फिर उन्होंने भी मदद देना बंद कर दिया,एक रोज माँ की हालत इतनी बिगड़ गई कि मुझसे देखा ना गया,मैं ने सोचा क्यों ना चोरी करके पैसे लाऊँ और माँ का इलाज करवाऊँ,
लेकिन जब मैं गाँव की हाट में चोरी करने गया तो मैं चोरी करते वक्त लोगों द्वारा पकड़ा गया,अब वहाँ मौजूद लोगों ने कहा कि वें मुझे पुलिस के हवाले कर देगें लेकिन मैं इस बात से डर गया इसलिए उन सबके बीच से खुद को छुड़ाकर ऐसा भागा कि भागता ही रहा...भागता ही रहा...मैं भागते भागते पक्की सड़क पर जा पहुँचा और जब शहर जाने वाली बस आई तो उसमें बैठ गया,कंडक्टर ने जब टिकट लेने को कहा तो मैनें उससे कहा कि मेरे पास तो पैसें ही नहीं हैं,उसने मुझसे बस से उतर जाने को कहा,लेकिन फिर मैनें उससे झूठ बोला कि मेरे बापू शहर में रहते हैं बहुत बीमार हैं मैं उनसे मिलने जा रहा हूँ,भगवान के लिए मुझे उनके पास जाने दो,लेकिन कंडक्टर ने मेरी एक ना सुनी तब उस बस के यात्रियों में मौजूद एक ने मुझ पर दया दिखाकर मेरे टिकट के पैसें चुका दिए,इस तरह से मैं शहर पहुँच गया.....
शहर पहुँचकर मैं यूँ ही भूखा प्यासा सड़कों पर भटकता रहा,किसी भी फुटपाथ पर जाकर सो रहता,फिर जब मुझसे भूख बरदाश्त ना हुई तो मैं एक दुकान से समोसा चुराकर भाग निकला,लेकिन दुकानवाले ने चोर...चोर...करके शोर मचाना शुरू कर दिया,दुकानवाले की बात सुनकर बहुत से लोंग मेरे पीछे आने लगें तो मैं वहाँ से भागने लगा,वें लोंग मेरे पीछे पीछे और मैं आगें आगें,मैं आगें जाकर एक गली में घुस गया,वहाँ पर एक रिक्शेवाला खड़ा था जिसकी उम्र लगभग बीस साल होगी,उसने मुझे भागते देखा तो मुझे इशारा करके एक दीवार के पीछे फाँदने को कहा,मैं दीवार फाँदकर उस ओर चला गया और इसके बाद जो लोंग मुझे खोजते हुए आएं थें वें उस रिक्शेवाले से मेरे बारें में पूछने लगें कि.....
क्या तुमने यहाँ से किसी चौदह पन्द्रह साल के लड़के को भागते देखा है?
तब वो रिक्शेवाले ने किसी गली की ओर इशारा करते हुए कहा.....
हाँ!देखा है,वो लड़का उस गली की ओर भागता हुआ गया है....
और फिर सभी लोंग उस गली की ओर चले गए और मैं बच गया,उन सबके जाने के बाद उस रिक्शेवाले ने मुझे आवाज़ देकर कहा....
ओ...छोटू!अब बाहर आजा,वें सब लोंग चले गए,
उस रिक्शेवाले की बात सुनकर मैं दीवार फाँदकर इस ओर आया और उससे बोला....
भइया!तुमने मेरी मदद की ,इसके लिए बहुत बहुत धन्यवाद।।
तब वो बोला....
छोटू!धन्यवाद किस बात का,इस दौर से मैं भी कभी गुज़र चुका हूँ,
मैनें कहा ,लेकिन तुमने आज बचा लिया....
और इतना कहकर मैं जाने लगा तो उसने पूछा....
कुछ खाया तूने?
तब मैनें कहा,
नहीं!दो दिन से भूखा था तभी तो समोसा चुराकर खा रहा था लेकिन दुकानदार ने चोर चोर कहकर चिल्लाना शुरू कर दिया और मैं भागकर इधर चला आया.....
अब कहाँ रहेगा तू?उस रिक्शेवाले ने पूछा।।
कहीं भी फुटपाथ पर,मैनें कहा।।
और खाएगा क्या?रिक्शेवाले ने पूछा।।
पता नहीं,मैं बोला।।
मेरी बात सुनकर वो रिक्शेवाले वाला बोला....
छोटू!जब तक तेरा ये बड़ा भाई जिन्दा है ना!तुझे चिन्ता करने की जरूरत नहीं है मेरे भाई!आज से तू मेरा छोटा भाई है और तू मेरे साथ रहेगा,चल पहले तुझे पेट भरके खाना खिलाता हूँ उसके बाद बात करेगें,वैसे तेरा तेरा नाम क्या है?
मेरा नाम राधेश्याम है,मैनें कहा।।
और मेरा नाम है जगदीश,मुझे प्यार से सब जग्गू कहकर पुकारते हैं,तू भी मुझे जग्गू कहकर बुलाया कर,रिक्शेवाला बोला।।
मेरे गाँव में सब बड़े भाई को दादा कहकर पुकारते हैं तो आज से मैं तुम्हें जग्गू दादा कहकर पुकारा करूँगा,मैनें कहा।।
ये तो इत्तेफाक हो गया छोटू! तेरे नाम का भी वही मतलब है जो मेरे नाम का मतलब है,जग्गू दादा बोला,
मैं उसकी बात सुनकर मुस्कुरा दिया....
फिर उस दिन जग्गू ने एक ढ़ाबे पर पहले मुझे भरपेट खाना खिलाया,फिर उसके बाद वो मुझे उस कमरें में ले गया जहाँ उसके साथ दो तीन लोंग और रहते थें और वें भी जग्गू दादा की तरह रिक्शा चलाते थे या मजदूरी करते थे,सब लोगों ने उस रात मेरी रामकहानी सुनी तो अपनी अपनी जमापूँजी देकर मुझे वापस मेरे गाँव ये कहकर भेज दिया कि तू गाँव जाकर अपनी माँ का इलाज करवा,मैं वो रूपये लेकर जब गाँव पहुँचा तो तब तक मेरी माँ ये दुनिया छोड़कर जा चुकी थी,गाँववालों ने उसका अन्तिम संस्कार किया,उस रात मैं अपने घर में अकेला रात भर रोता रहा और फिर मैने सोचा अब मैं अकेला यहाँ क्या करूँगा इसलिए मैं फिर से जग्गू दादा के पास शहर लौट गया....
जग्गू दादा ने जब सुना कि मेरी माँ अब नहीं रही तो वो बोला...
कोई बात नहीं,तो अब हमारे साथ रहेगा और कल ही मैं तेरे काम का भी कोई बंदोबस्त करता हूँ।।
फिर जग्गू दादा ने मुझे एक चाय की दुकान पर लगवा दिया,मैं वहाँ लोगों को चाय पहुँचाने का काम करने लगा,फिर मैं एक गैराज़ में लग गया और वहाँ से बाद में मैं एक कपड़े की दुकान में काम करने लगा ,जहाँ मुझे केवल कपड़े समेटने और ब्यवस्थित करने पड़ते थे,दिन बीतते रहे थे मैं अब अठारह का और जग्गू दादा चौबीस का हो चला था,अब मैं और जग्गू दादा इतना रुपया कमाने लगे कि हमने सबसे अलग अपना एक कमरा ले लिया,जहाँ मैं सुबह का खाना बनाता और जग्गू दादा शाम का खाना बनाता और हम साथ में अब दो भाइयों की तरह रहकर खुश थे लेकिन हमारी ये खुशी ज्यादा दिनों तक टिकी नहीं रही....
जग्गू दादा को एक सब्जी बेचने वाली बंगालन से प्यार हो गया,जिसका नाम सावित्री था,वो जग्गू दादा से उम्र में बड़ी और शादीशुदा थी,उसका पति उसे छोड़कर भाग गया था,सावित्री थी भी बहुत सुन्दर,उसके रूप और गदराए बदन पर बहुत से मर्द मरते थे,जग्गू दादा देखने सुनने में अच्छा था, तो उस बंगालन सावित्री ने जग्गू दादा को अपने प्रेमजाल में फँसा लिया और बेचारा सीधा सादा जग्गू दादा उस सावित्री के चक्कर में फँस गया,अब तो जब देखो तब जग्गू दादा सावित्री के घर पर ही पड़ा रहता,अब जग्गू दादा अपनी सारी कमाई सावित्री पर उड़ाने लगा,
मैने जग्गू दादा से कभी कुछ कहना चाहा तो उन्होंने मुझे झिड़क दिया और बोला....
तू मेरी जिन्दगी में दखल देने वाला कौन होता है? मेरा सगा भाई बनने की कोशिश मत कर।।
तो उस दिन के बाद मैनें उससे कुछ भी कहना छोड़ दिया,जग्गू दादा अब ना तो उस कमरें का किराया भरता और ना ही राशन लाता,मैं भी उससे कभी पैसे नहीं माँगता और चुपचाप कमरें का किराया भर देता साथ में राशन भी ले आता ,अब तो जग्गू दादा ना तो रात का खाना बनाता और ना ही सुबह का तो अब दोनों समय का खाना मैं ही बनाकर रख देता,लेकिन रात का खाना वैसे का वैसा पड़ा रहता क्योंकि अब जग्गू दादा रात को सावित्री के घर से मछली मटन ठूँसकर आता,जो कि वो अपने पैसों से उसके घर खरीदकर ले जाता था।।
मैं जग्गू दादा की ऐसी हरकतें देखकर परेशान हो गया तो मैनें उसके साथ एक कमरें में ना रहने का फैसला किया और इस बात को लेकर जग्गू दादा ने मुझे एक बार नहीं रोका,शायद उसकी भी यही मरजी थी कि अब मैं उसके साथ ना रहूँ,मैं अब अपने हमउम्र छलिया के साथ रहने लगा,वो भी मेरी तरह अनाथ और सौतैली माँ के जुल्मों से परेशान होकर शहर भाग आया था,छलिया किसी ट्रेलर के यहाँ काम करता था,उसका काम केवल लड़कियों के सिले सिलाऐ कपड़ो को उनके पते पर पहुँचाने का था,छलिया को अपना ये काम बहुत पसंद था क्योंकि वो कहता था कि इसी बहाने उसकी मुलाकात नई नई हसिनाओंसे हो जाती है,अब मैं छलिया के साथ रहने तो लगा था लेकिन मुझे जग्गू दादा की चिन्ता लगी रहती,
फिर एक रोज़ मुझे पता चला कि जग्गू दादा ने उस सावित्री से शादी कर ली है और अब वो जग्गू दादा के घर में ही रहने लगी है,शायद जग्गू दादा की पहले से ही यही मनसा थी इसलिए उन्होंने मुझे उस कमरें से आने से नहीं रोका,मन तो कई बार किया कि जग्गू दादा से मिल आऊँ लेकिन आत्मा ने गँवारा नहीं किया,लेकिन फिर एक रोज़ हिम्मत करके जग्गू दादा के घर उससे मिलने पहुँचा,लेकिन जग्गू दादा घर पर नहीं था वो सावित्री थी,सावित्री ने मुझे कुछ इस तरह से देखा कि उसका मेरी ओर यूँ देखना मुझे कुछ अच्छा नहीं लगा,उसने घर के भीतर आने को कहा लेकिन मैं नहीं गया दरवाजे से ही लौट आया.....
दिन बीते फिर एक रोज़ जग्गू दादा मुझे रिक्शा चलाता हुआ सड़क पर दिखा,मैनें उसे रोककर हाल चाल पूछा और उसकी सूरत की ओर देखा तो वो पहले से हट्टा कट्टा हो गया था ,साथ में उसका बदन भी भर गया था,मुझे लगा बीवी का साथ पाकर वो शायद बहुत खुश हैं,अब मेरी चिन्ता दूर हो चुकी थी,जग्गू दादा सावित्री के साथ बहुत खुश था और मुझे क्या चाहिए था,मैं भी निश्चिन्त होकर अपने कमरें में छलिया के साथ रह रहा था,फिर एक रोज़ छलिया को बहुत तेज़ बुखार हो गया,मैनें उसका रात भर ध्यान रखा लेकिन बुखार नहीं उतरा,सुबह होते ही मैं खैराती अस्पताल के डाक्टर को घर बुलाकर ले आया,उसने छलिया को देखा तो बोला....
इन्हें तो टाइफायड हुआ है,इनका खास़ ख्याल रखिए ,नहीं तो मर्ज बदलकर पीलिया में परिवर्तित हो सकता है....
मैनें डाक्टर को धन्यवाद दिया और उनके लिखे हुए पर्चे के अनुसार दवाइयाँ ले आया,साथ में फल वगैरह भी ले आया,मुझे लग रहा था कि छलिया जल्दी से अच्छा हो जाएं.....
लेकिन तब छलिया मुझे कुछ चिन्तित नज़र आया तो मैनें उसकी परेशानी का कारण उससे पूछा...
क्या हुआ?तू इतना परेशान क्यों है?मैं हूँ ना!तू जल्दी अच्छा हो जाएगा।।
तो वो बोला....
यार!बिमारी से परेशान नहीं हूँ,तू वो बण्डल देखकर रहा है,उनमें सिले हुए कपड़े हैं जो ग्राहकों तक पहुँचाने हैं,उसने कोने में बनी अलमारी की ओर इशारा करते हुए कहा...
तब मैनें उससे कहा....
तू इतना परेशान मत हो,मैं दे आता हूँ ना ये कपड़े,तू बस मुझे वहाँ का पता दे दे जहाँ कपड़े पहुँचाने हैं...
वो बोला...
तू नहीं जाएगा ऐसी जगह,मुझे अच्छी तरक्ष मालूम है।।
क्यों नहीं जाऊँगा भला!तेरे लिए इतना तो कर ही सकता हूँ ना!,मैनें कहा।।
यार!वो रेड लाइट एरिया है ना!ये कपड़े वहीं पहुँचाने हैं,मुझे तो आदत है ऐसे लोगों से जूझने की,तुझे आदत नहीं है ना इसलिए परेशान हूँ,छलिया बोला।।
कोई बात नहीं यार! मुझे कौन सा वहाँ जाकर कुश्ती लड़नी है,चुपचाप कपड़े देकर चला आऊँगा,मैनें कहा।।
फिर मैं छलिया को खिला पिलाकर उस एरिया में कपड़े देने जा पहुँचा,दोपहर का समय था ,इसलिए भीड़ नहीं थी,मैं उस घर कहिए या कोठा कहना ही ठीक होगा तो उस कोठे के सामने रूका और सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर पहुँचा...
वहाँ बीड़ी पीती हुई एक लड़की आई जो कि आधे अधूरे कपड़ो में थी,वो मुझसे बोली....
तू कैसें ऐसे मुँह उठाकर चला आ रहा हैअभी धन्धे का टेम नहीं,सब लड़कियांँ सो रहीं हैं,
मैनें कहा,
मैं उस काम के लिए नहीं आया हूँ।।
तो वो बोली,
बेटा!पहले पहल सब यही कहते हैं,
मैने कहा,बहनजी!आपको कोई गलतफहमी हो रही है,
उसने जहाँ मेरे मुँह से बहनजी सुना तो जोर जोर से हँस पड़ी फिर बोली.....
तू भोला है या बनने की कोशिश कर रहा है,
मै नें कहा,
बहनजी!ये कपड़े देने आया था मैं,छलिया बीमार है तो उसने भेजा है मुझे।।
तब वो बोली,
ओह ....तो ये बात है...
तब उसने जोर से सभी लड़कियों को आवाज़ देकर कहा....
अरे!सभी लड़कियों अपने अपने कपड़े ले लो,सिलकर आ चुके हैं...
और फिर सभी लड़कियांँ उसकी आवाज़ सुनकर आईं और मेरे पास से अपने अपने कपड़े ले कर जाने लगीं,लेकिन मेरे हाथों में तब भी एक जोड़ी कपड़े रह गए,मैनें उनमें से पूछा....
ये आप मे से किसके हैं?
तब उनमें से एक कमरें की ओर इशारा करते हुए बोली....
सारंगी के होगें,उस कमरें में पड़ी होगी ,जा वहाँ जाकर दे दे,
और मैं फिर उस कमरें की ओर पहुँचा,मैनें दरवाज़े पर दस्तक दी तो भीतर से आवाज़ आई....
जो भी है , आ जा।।
मैं कमरें में पहुँचा तो एक सोलह सत्रह साल की लड़की फर्श पर अस्त ब्यस्त कपड़ो में लेटी एक किताब पलट रही थी,उसने जैसे ही मुझ अजनबी को देखा तो जल्दी से उठकर बैठ गई और अपने आँचल को ठीक करते हुए बोली....
तुम कौन हो?
मैनें कहा,ये आपके कपड़े देने आया था...छलिया बीमार है।।
मैनें उसे कपड़े दिए और मैं वापस चला आया,लेकिन उस लड़की की मासूमियत और भोलापन मेरी आँखों में बस चुका था.....

क्रमशः.....
सरोज वर्मा.....