Achhut Kanya - Part 14 books and stories free download online pdf in Hindi

अछूत कन्या - भाग १४

विवेक के मुँह से शादी का प्रस्ताव सुनते ही गंगा ने कहा, “विवेक इतने वर्षों में हमने कभी एक दूसरे के परिवार के विषय में कभी भी ना कुछ पूछा, ना कुछ जाना। हम अपने प्यार और पढ़ाई के बीच इतने व्यस्त थे कि कभी…”

“अरे तो अब जान लेते हैं ना गंगा, इसमें क्या मुश्किल है?”

“मुश्किल वाली बात तो है विवेक, तुम ऊँची जाति में पैदा हुए, किसी बड़े ख़ानदान से हो ना? लेकिन मैं गरीब मां-बाप की बेटी हूँ। जाति भी मैंने तुम्हें बता ही दी है।”

“गंगा यह क्या कह रही हो तुम? इतने बड़े शहर में, इतने बड़े मेडिकल कॉलेज में पढ़ने के बावजूद तुम्हारी मानसिकता ऐसी कैसे हो सकती है? यह जातियों का भेद-भाव तुम्हारे मन में आया ही कैसे?”

“मन में आया ही कैसे? तुम यह सवाल मुझसे कर रहे हो? इसका जवाब मैं तुम्हें ज़रूर दूंगी।”

“जवाब दोगी? कैसा जवाब गंगा?”

“उसके लिए मुझे मेरे बचपन से शुरू करना होगा विवेक। तुम्हें मेरे परिवार की बीती हुई ज़िन्दगी की सच्ची कहानी सुननी होगी।”

विवेक ने गंगा का हाथ पकड़ते हुए कहा, “गंगा आख़िर बात क्या है? तुम काफ़ी उदास, परेशान लग रही हो। चलो हम कहीं शांति से बैठ कर बात करते हैं, कहीं और चलते हैं। तुम्हारे चेहरे के भाव तुम्हारी आवाज़ और डबडबाई आँखों को देखकर मैं समझ सकता हूँ कि बात छोटी-मोटी नहीं है। शायद तुम्हारे अंदर कोई बहुत बड़ा दर्द छुपा हुआ है, जिसे बाहर निकालना बहुत ज़रूरी है।”

विवेक गंगा से ख़ुद से भी ज़्यादा प्यार करता था और उसके लिए वही सब कुछ थी। वह चिंतित हो गया, पता नहीं गंगा क्या कहने वाली है। एक बगीचे में जाकर उनके क़दम रुक गए और वे दोनों एक घने वृक्ष की छाँव में हाथों में हाथ डाले बैठ गए।

“गंगा अब तुम्हें जो भी कहना है, जो भी बताना है या जो भी पूछना है; इत्मीनान के साथ बात करो। प्लीज तुम रोना नहीं।”

“रोना नहीं यह तो मेरे बस में है ही नहीं विवेक। चाहे मैं कितना भी अपने आप को संभालूँ, कितना भी नियंत्रण करूं लेकिन मेरी आँखों ने जो कुछ देखा है उसकी याद आते ही वह बहने लगती हैं। विवेक मैं एक ऐसे गाँव में पली-बढ़ी हूँ जहाँ भगवान का अन्याय भी सर चढ़ कर बोलता था। बारिश के नाम पर यदा-कदा चंद बूंदें, हमारे गाँव की धरती पर आ जाया करती थीं। पानी की वह बूंदें हमें ख़ुशी तो ज़रूर देती थीं लेकिन हमारी पानी की प्यास नहीं बुझा पाती थीं। ना जाने कितनी ही बार गाँव के कुएँ सूख जाया करते थे। पानी के लिए मेरी माँ सर पर चार-चार मटके रखकर दूर-दराज के गाँव से पानी लाया करती थीं। मेरी माँ ही नहीं, गाँव की सभी पिछड़ी जाति की महिलाओं का सुबह-सुबह यही काम होता था।”

विवेक बहुत ध्यान से गंगा की बात सुन रहा था।

“उन्हें देखकर यूँ लगता था कि कहीं इनकी गर्दन ना टूट जाए। कहीं ये चक्कर खाकर गिर ना जायें। मैं तब बहुत छोटी थी तकरीबन 7 साल की ही थी पर आज भी ना जाने कितनी बार मेरी दुबली पतली कमज़ोर माँ मुझे सर पर चार-चार मटके रखकर आती हुई दिखाई देती हैं विवेक।”

 

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात) 

स्वरचित और मौलिक  

क्रमशः 

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