सोई तकदीर की मलिकाएं - 13 Sneh Goswami द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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सोई तकदीर की मलिकाएं - 13

 

सोई तकदीर की मलिकाएँ 

 

13

 

 

केसर के साथ हुए हादसे ने बेबे जी को ऐसा गमगीन कर दिया कि जीवन की कोई भी बात उन्हें चारपाई से उठाने में असमर्थ रही । कोई दवा दाऱू , कोई दान पुण्य उन्हें ठीक न कर सके । एक गहरी उदासी उन पर हावी हो गयी थी । वे बार बार पछताती । उन्होंने इस गरीब बच्ची को पाकिस्तान भेजने का कोई इंतजाम क्यों नहीं किया । अगर नहीं किया था तो उन्होंने उसकी सुरक्षा के बारे में क्यों नहीं सोचा । भोले पर नजर क्यों नहीं रखी । फिर अगर केसर को गर्भ रह ही गया था तो समाज से टक्कर लेकर उसे अपना क्यों नहीं पाईं । केसर को सारी जिंदगी का रोग क्यों दे दिया ।और उसी पश्चाताप की आग में जलते हुए एक शाम उन्होंने देह त्याग दी । भोला सिंह के हाथों में लिया गंगाजल जैसे ही उनके मुँह में गया कि आधा बाहर आ गया । उसके साथ ही बेबे ने अपनी अंतिम सांस ली । केसर मुँह खोले खङी बेबे को अंतिम सांसे लेते देखती रही । भोला सिंह और बसंत कौर के लिए यह सदमा बर्दाशत से बाहर था । वह गुमसुम हुए बेबे की शांत हो चुकी देह को थामे रहे । कई मिनट यूं ही बीत गये । अचानक केसर चिल्लाई – छोटी सरदारनी , बेबे । तब जाकर उन्हें होश आया ।
सुन बेबे तो चली गयी ।
चली गयी । कहाँ गयी ? ऐसे अचानक ? ऐसे कैसे हमें छोङ कर जा सकती है ? अभी कल ही तो मैं मोगे जाकर दवाई बनवा के लाया , देखना वह दवाई खाते ही बेबे ने ठीक हो जानै ।
बेबे की तो सारी बीमारियाँ कट गई । बीमारियों के पार हो गई ।
अछ्छा
हूँ ... ।
उठ , अब इधर से चादर पकङ । बेबे को मंजे से नीचे उतारना है ।
भोला सिंह ने एक ओर से पकङा और दूसरी ओर से गेजे ने । बसंत कौर ने बीच से सहारा दिया । केसर ने तब तक नीचे फर्श पर दरी और चादर बिछा दी थी । बेबे को नीचे जमीन पर लिटा दिया गया । बसंत कौर के आँसू लगातार बह रहे थे । इस औरत से , जिसे वह बेबे जी कहती आई थी , सास से ज्यादा माँ बेटी का रिश्ता था । हर दुख सुख उन्होंने मिल कर झेला था । उसके सारे चाव लाड इन बेबे जी ने ही तो पूरे किये थे । पाँच साल का साथ था , जो आज छूट चला था । केसर एक कोने में चुपचाप खङी हालात को समझने की कोशिश कर रही थी ।
गेजे भाग कर आस पङोस को खबर कर । नैन को बुला । गाँव में , रिश्तेदारी में सबको खबर करनी होगी ।
जी भाबी । मैं अभी जाता हूँ ।
गेजे के खबर देते ही पङोसनें आ गई । दीवार के पार से गोला और रक्खी भी आ पहुँचे । दोनों तीनों बेटे यहाँ होते तो आखिरी बार बेबे के दर्शन कर लेते । बेबे की अर्थी को हाथ लगा लेते। इतने पोते पोतियों के होते हुए बेबे को किसी का हाथ नसीब नहीं होगा – माँ के सिरहाने बैठते हुए गोले ने सोचा । बेबे का अंतिम संस्कार करने के लिए तो हम दोनों भाई हैं । मुझे कुछ हो हवा गया , तब भी बेटे तो परदेश में ही होंगे । संस्कार क्या गाँव वाले ही कर देंगे या फिर भोला करेगा । वह माँ के सिरहाने बैठा सोचे जा रहा था ।
ए भोले , बेबे के सिरहाने अनाज , गेहूँ की ढेरी लगा । उस पर चौमुखिया दिया जला कङुआ तेल डाल कर ।
बुजुर्ग औरतें तरह तरह के निर्देश देती रही । भोला मशीन की तरह चुपचाप जैसा बताया जाता रहा , वैसे वैसे करता रहा ।
बहु, अपनी सास के चारों तरफ हल्दी छिङको ।
चंद मिनटों में यह खबर पूरे गाँव में फैल गयी । सारे गाँव से आदमी औरतें हाथ का काम वहीं छोङ कर भोला सिंह के आँगन में आ पहुँचे । रिश्तेदारी में भी खबर की जा चुकी थी । जो रिश्तेदार पास के गाँवों में रहते थे , वे तो रात में ही आ पहुँचे । सुबह दिन निकलते निकलते बाकी दूर दराज वाले रिश्तेदार भी आ गए । तुरंत तैयारियां शुरु हो गयी । अर्थी सजा दी गयी । दोपहर होते होते बेबे का शरीर पंचतत्व में लीन हो गया । भोला और गोला दोनों भाई गले लग कर फूट फूट कर रोये । माँ को दुनिया से विदा करना इतना आसान कहाँ होता है । एक सांझ थी माँ जो दोनों भाइयों के बीच का सूत्र थी । जिसके चलते हर तीज त्योहार पर दोनों परिवार इकट्ठे होते थे । मिल कर मट्ठियाँ , लड्डू और जलेब खाते थे । अब वह माँ दुनिया से चली गयी थी । बसंत कौर को लगा , आज वह अनाथ हो गयी है ।
अगले बारह दिन गहमागहमी से भरे रहे । लोग सारा दिन आते , रहते , बातें करते , बेबे के अच्छे स्वभाव की चर्चा करते । वे चले जाते तो और लोग आ जाते । पूरा दिन लोगों का आना जाना लगा रहता । यहाँ तक कि रात को भी गाँव के लोगों ने बारी बाँधी हुई थी । लोग बीस बाईस की टोली में वहीं सोने आते । आँगन में दरियाँ गदेले बिछाए जाते । लोग देर रात तक बातें करते हुए दुख सुख करते । सुबह दिन निकलने से पहले ही दस बारह औरतें आती और दाल पका देती । चार पाँच टोकरे रोटियां बना देती । लङके दो पतीले चाय बना देते । जो भी घर आता , उसे चाय पिलाकर और रोटी खिलाकर ही जाने दिया जाता । मातमपुरसी करने दूर दूर से गाँव के गाँव ट्रालियां भर भर लोग आते । मरनेवाली के अच्छे स्वभाव की तारीफ करते ।
तेरहवें दिन ब्रह्मभोज किया गया । सुखमनी साहब का पाठ कर पाठियों को कपङे बिस्तर और जरूरत का सारा सामान देकर विदा किया गया । उस दिन लगभग साठ हजार के आसपास लोगों ने लंगर खाया । लोगों ने माता वीर कौर के भाग्य की बार बार सराहना की जिसके श्रवण जैसे बेटों ने न सेवा में कोई कसर रखी , न मरने की क्रियाओं में ।
शाम तक सब लोग विदा हो गये तो घर भायं बायं करने लगा । बेबे थी तो घर में रौनक थी । रसोई में बरकत थी । उसके चलते मौहल्ले की कोई न कोई औरत मिलने आती रहती । वे मिलकर चरखा कातती । इधर उधर की बातें करती । गीत की कोई कली छेङ लेती तो उनके हेक के सुर पूरे मौहल्ले में गूंज उठते ।
आज चरखे की घूक नहीं थी । उनका खाली पीढा एक कोने में दीवार के साथ उदास टिका था । चौंके के घुग्गी और मोर उदास दीवारों पर चिपके हुए थे । चूल्हा ठंडा पङा था । यहाँ तक कि नौहरे में धौली और कजरी गाय , सुंदरी भैंस भी सूनी आँखों से बेबे की राह देख रही थी । घर वही था । घर की एक एक चीज अपने टिकाने पर थी फिर भी बहुत कुछ ऐसा था जो पहले जैसा नहीं था ।

बाकी फिर ...