ममता की परीक्षा - 72 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ममता की परीक्षा - 72



रात के लगभग नौ बज रहे थे। गुलाबी सर्दी के मौसम में ठंड के बावजूद बहुत सारी औरतें चौधरी रामलाल के घर के सामने खड़ी व्यग्रता से बार बार खेतों की तरफ देखे जा रही थीं।

सबकी निगाहें खेतों के बीच से आती हुई उस पगडंडी पर थीं जहाँ से चौधरी सहित बसंती को लेने गए अन्य गाँव वालों को आना था। लगभग पूरा गाँव चौधरी रामलाल के घर के सामने उमड़ा हुआ था। अभी तक बसंती के बारे में किसी को कोई स्पष्ट जानकारी नहीं थी। बस इतना ही पता था कि बसंती बडी देर से शौच को गई थी और अब तक उसका पता नहीं है और कुछ गाँववालों के साथ चौधरी उसे ढूँढने गए हैं।

महिलाओं की आपसी खुसर फुसर शुरू थी। उन्हीं के बीच एक बुड्ढी अम्मा नसीहत दे रही थीं 'जुग जमाना इतना खराब आ गया है और ऐसे में बसंती की अम्मा इतनी लापरवाही करे , ये अच्छा नहीं है। अरे सयानी लड़की है , दिशा मैदान के लिए अपने साथ ले जाना चाहिए। अब कहीं कुछ ऊँच नीच हो जाय तो कौन थामेगा इसका हाथ ? लड़की जात है , इसकी इज्जत काँच की तरह से बहुत नाजुक होती है। बड़ा ध्यान देना पड़ता है।'

तभी खेतों के बीच दूर कहीं हल्की सी टॉर्च की रोशनी दिखी। कुछ ही देर में सबसे आगे चौधरी रामलाल जी आते हुए दिखे। गुस्सा और क्षोभ उनके चेहरे पर स्पष्ट दिख रहा था लेकिन नजरें शर्म से झुकी हुई भी थीं। किसी से नजर मिला नहीं पा रहे थे। उनके पीछे पीछे ही बसंती चल रही थी।
बिरजू के कंधे पर हाथ रखकर उसका सहारा लेते हुए थोड़ा लंगड़ाते हुए वह बरामदे तक आई और फिर अचानक बिरजू के कंधे का सहारा छोड़ भागती हुई घर में समा गई। क्षण भर में ही उसकी लंगड़ाहट और चेहरे पर छाए असीम वेदना को सबने महसूस कर लिया था। महिलाओं में रोना पीटना मच गया।

बसंती के पीछे उसकी माँ और फिर सभी महिलाओं का हुजूम धड़धड़ाकर घर में समा गया।

बसंती अपने कमरे में जाकर खटिये पर औंधी पड़ी हुई थी जब उसकी माँ ने उसके कमरे में प्रवेश किया। कमरे में लटक रहा छोटा सा सादा बल्ब पिली मद्धिम रोशनी फेंक रहा था। कमरा बड़ा था लेकिन कुछ ही पलों में महिलाओं से भर गया।

बसंती की माँ ने आगे बढ़कर उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरा और बोली, "क्या हुआ है मेरी बच्ची ? कुछ बताएगी भी ?' कहते हुए उनका गला भर आया था और आवाज भर्रा गई थी। कुछ महिलाओं के सिसकने की भी आवाज सुनाई दे रही थी। माँ के स्नेहभरे हाथों का स्पर्श पाकर बसंती उठी और उसकी गोद में अपना चेहरा छिपाकर फफक पड़ी।

कुछ देर तक वह ऐसे ही पड़ी रही और फिर अस्पष्ट शब्दों में उसने रोते हुए उस अमानवीय अत्याचार की कहानी अपनी माँ के सामने बयान कर दी। उसे हिम्मत और दिलासा देते हुए उसकी माँ बोली, "मत रो मेरी बच्ची ! इसमें तेरा क्या कुसूर है। गुनाह तो उन जालिमों ने किया है और सजा भी उन्हें ही भुगतनी होगी।"

बाहर चौधरी और गाँववाले गम और क्रोध को खुद में समाहित किये हताशा में बैठे हुए थे। तभी बिरजू बोल पड़ा, "बाबूजी ! बैठे रहने से कुछ नहीं होगा। मैं थाने जाकर इस दरिंदगी की रपट लिखाना चाहता हूँ बाबूजी। उन दरिंदों से निबटना अब कानून के जरिये ही मुमकिन है। अगर कोई गाँववाले होते तो हम अपनी तरह से निबट लेते, लेकिन अब जबकि ये स्पष्ट है कि वो कोई शहरी थे जो कार से आये थे तो हमें रपट लिखाना जरूरी हो गया है।"

"क्या होगा रपट लिखाने से ? पुलिस आएगी, गुड़िया से गंदे गंदे सवाल पूछेगी। जब मनमर्जी थाने बुलाएगी और फिर अपराधियों से पैसा खाकर उनके फ़ेवर में केस कमजोर करके उन्हें बरी करवा देगी। इंसाफ तो नहीं मिलेगा उल्टे हाथ आएगी जिल्लत और अपमान से भरी जिंदगी। मेरी मान तो जो हुआ उसे एक भयानक हादसा समझकर भूल जा। हमें बसंती के जख्मों पर मरहम लगाने की जरूरत है उसे कुरेदने की नहीं। धीरे धीरे सब सही हो जाएगा।"
फिर गाँववालों से हाथ जोड़कर चौधरी ने कहा, "आप लोग हर सुख दुःख में हमारे साथ हैं और अच्छा लगता है जब मौके बेमौके ये साबित होते रहता है कि पूरा गाँव एक है , एक परिवार के समान है। आप लोग आए आप सबका बहुत बहुत धन्यवाद ! अब कुछ समय के लिए हमें अकेला छोड़ दो। अब हमें कुछ नहीं करना।"

तभी भीड़ में से किसी युवा ने कहा, "चौधरी काका ! मानते हैं कि बसंती आपकी बेटी है, लेकिन वह हमारी बहन भी तो है। हम उसका अपमान बरदाश्त नहीं कर सकते। उन शहरियों को हम उनके किये की सजा दिलाये बिना चैन से नहीं बैठेंगे। " कुछ और युवाओं ने उसका साथ दिया " हाँ हम चैन से नहीं बैठेंगे, बदला लेंगे। उन नराधमों को मजा चखाएंगे।" तरह तरह की आवाजें भीड़ में से आने लगी।

उसी युवक ने उत्साहित होकर आगे कहना जारी रखा, "बिरजू, चलो ! देर करना ठीक नहीं। हम सब तुम्हारे साथ पुलिस स्टेशन चलेंगे। बसंती तुम्हारी अकेले की बहन नहीं हम सबकी बहन है। उसकी बेइज्जती का बदला हम सब मिलकर लेंगे।"

भीड़ से एक शोर सा उठा "हाँ बिरजू, चलो ! हम सब तुम्हारे साथ हैं।"

रात के साढ़े नौ बजे के लगभग का समय गाँव में देर रात के समान माना जाता है लेकिन इस समय भी पूरा गाँव चौधरी के दरवाजे पर डटा हुआ था।

बिरजू के साथ ही गाँव के युवाओं का एक बड़ा हुजूम थाने जाने के लिए रवाना हो चुका था। थाना वहाँ से लगभग चार किलोमीटर की दूरी पर था। गाँव वालों के लिए वह थाना ही था जबकि असल में वह शहर के थाने से संलग्न एक पुलिस चौकी मात्र थी जहाँ एक नायब दरोगा विजय और उसके मातहत सात आठ सिपाही ही नियुक्त थे। बिरजू का गाँव इसी पुलिस चौकी के अधिकार क्षेत्र में आता था।

थाने के बाहर रात के ग्यारह बजे इतने लोगों की भीड़ को देखकर दरोगा विजय की पेशानी पर बल पड़ गए। यूँ तो अक्सर वो थाने से गायब ही रहता था और अपने मातहतों को दरोगा बनने का खूब अवसर प्रदान करता था लेकिन आज वह अभी अभी शहर से आया था बड़े साहब को एक केस के सिलसिले में अपनी रिपोर्ट पेश करके। इससे पहले कि सब थाने में घूसते वह अपनी कुर्सी से उठकर बाहर आते हुए बोला, "क्या बात है ? क्या हुआ है जो तुम सब आधी रात को यहाँ पहुँचे हो ?"
फिर भीड़ को शांत रहने का इशारा करते हुए बोला, "सब लोग यहीं खड़े रहो। सिर्फ दो आदमी अंदर आएंगे और हमें बताएंगे क्या हुआ है।"

बिरजू और उसके साथ एक युवक थाने के अंदर गए। दोनों दरोगा के सामने खड़े होकर बड़ी देर तक बसंती के साथ घटे दुर्व्यवहार की बात बताते रहे और वह कुर्सी पर बैठे पहलू बदलते घुमाफिराकर उनसे तरह तरह के सवाल करता रहा। आखिर में खीझकर बिरजू बोला, 'साहब ! वारदात मेरे साथ नहीं मेरी बहन के साथ हुआ है। आप जल्दी से कुछ करिए नहीं तो वो दरिंदे यहाँ से गायब हो जाएंगे। अभी आप कुछ कर सकते हैं।"

"सही कहा तुमने ! हम कुछ नहीं , बहुत कुछ कर सकते हैं।.. और उन दरिंदों की चिंता तुम मत करो, हम हैं न। जानते हो न कानून के हाथ लंबे होते हैं। हम उन्हें पाताल में से भी ढूँढ़ लाएंगे।"

और फ़िर बिरजू की तरफ देखते हुए बोला, "क्या नाम है तुम्हारा ?"

" बिरजू !"

" हाँ, बिरजू ! सही कहा तुमने। बलात्कार तो तुम्हारी बहन का हुआ है तो हमें बयान भी उसका ही लेना होगा और मौका ए वारदात का भी मुआयना करना होगा।"

थाने से बाहर आकर उसने सभी युवकों से कहा, " तुम सब अपने अपने घर जाओ। ये दोनों हमारे साथ चलेंगे गाँव तक।"

कुछ देर बाद बिरजू और उसके एक साथी को बिठाए पुलिस की जीप उस ऊबड़खाबड़ कच्चे रास्ते पर उछलते कूदते धीमी गति से सुजानपुर की तरफ बढ़ रही थी।


क्रमशः