ममता की परीक्षा - 71 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ममता की परीक्षा - 71

ममता की परीक्षा ( भाग - 71 )

घर में सभी भोजन कर चुके थे। चौधरी रामलाल बाहर खुले में अपनी खटिया बिछाकर उसपर लेटे हुए थे। खटिये के नीचे एक मिट्टी के बर्तन में भैंस के उपलों को सुलगा दिया गया था। इस साल ठंड अधिक नहीं थी लेकिन हमेशा की तरह ठंड से बचने के लिये वह सजग थे। अडोस पड़ोस के कुछ बच्चे कहानी सुनने की आस में उन्हें घेरे हुए थे। इसी लालच में कुछ बड़े बच्चे उनके पैरों की मालिश भी करना शुरू कर दिए थे।
तभी अंदर से बिरजू की माँ बाहर आते हुए बोली, "अजी सुनते हो ! बसंती कब से गई है मैदान होने। अभी तक नहीं लौटी है। हमें तो चिंता हो रही है।.. कितनी बार कहा है इससे कि खेतों में जाना हो तो टॉर्च ले लिया कर ,लेकिन ये बच्चे जब हमारी सुनें तब न ? अँधेरा है पता नहीं कब पाँव के नीचे कोई करइत , धामिन आ जाय ? क्या भरोसा ?"

बिरजू की माँ की आवाज सुनते ही सभी बच्चे उठ खड़े हुए। चौधरी रामलाल खटिये पर उठकर बैठते हुए बोले, " अरे शुभ शुभ बोलो भागवान ! चिंता न करो, हम अभी जाकर उसको कान पकड़ के खींच लाते हैं। बैठी होगी वहीं पोखर किनारे जहाँ बैठती है अक्सर जाकर।.. लेकिन इतनी देर हो गई उसे कोई फिकर नहीं कि कोई उसकी चिंता करनेवाला भी है। ये आजकल के सब लडके लड़कियाँ ऐसे ही हो रहे हैं। अपना बिरजुआ क्या कम सताता है ? लेकिन वो ठहरा मर्द जात। हमें उसकी उतनी फिकर नाहीं होती जितना इस बसंती की होती है।"

टॉर्च हाथ में संभालते हुए रामलाल ने खटिये से उठते हुए अपना चप्पल पहना और बोले, "तुम यहीं रुको, हम अभी आए।" कहकर जाने के लिए बढ़े ही थे कि तभी बिरजू की माँ उन्हें रोकते हुए बोली, "तनिक रुक जाओ। न जाने क्यों मेरा दिल कह रहा है कि बसंती किसी मुसीबत में है। अकेले न जाओ। मैँ बिरजू को आवाज लगाती हूँ। उसे भी साथ ले जाओ।"

"ठीक है, मैं ही उसे आवाज दे देता हूँ।" कहने के साथ ही चौधरी रामलाल ने बिरजू को जोर से पुकारा जो पड़ोस में अपने मित्र के घर गया हुआ था।

दो तीन मिनट बाद ही चौधरी रामलाल और बिरजू के साथ ही पाँच गाँववाले भी खेतों के रास्ते पोखर की तरफ बढ़े जा रहे थे।

बिरजू को पुकारते ही पड़ोसियों तक भी चौधरी की आवाज पहुँची थी और सभी पड़ोसी स्वतः ही चल पड़े थे चौधरी के साथ बसंती की खोज में। सभी के चेहरे पर चिंता साफ झलक रही थी। ज्यों ज्यों पोखर करीब आ रहा था ऊपर से सामान्य नजर आने वाले चौधरी रामलाल का दिल किसी अनजानी आशंका के भय से बैठता जा रहा था। मन ही मन ग्रामदेवता और कुलदेवता का स्मरण करते जा रहे थे। मन में बस एक ही इच्छा थी ' बसंती सही सलामत पोखर किनारे मिल जाय …...अगले ही दिन ग्रामदेवता को हलवा और पूरी का भोग लगवाएंगे।'

पोखर के करीब गन्ने के खेतों के बीच वाली पगडंडी से सब गुजर रहे थे। चौधरी रामलाल जी सबसे आगे आगे टॉर्च लिए हुए चल रहे थे। उनके पीछे पीछे गाँववाले और सबसे पीछे बिरजू।

अचानक बिरजू गिरते गिरते बचा। दरअसल उसके पैरों के बीच कोई कपड़ा फंस गया था और उसका दूसरा सिरा दूसरे पैर के नीचे दबा रह गया था। बिरजू ने अपने हाथ के टॉर्च की रोशनी पैरों के नीचे दबे कपड़े पर डाली। कपड़े पर नजर पड़ते ही उसकी चीख निकल गई। सब चौंक कर उसकी तरफ मुड़ गए।

टॉर्च की रोशनी उस कपड़े पर डालते हुए बिरजू चीख पड़ा ,"देखिए बाबूजी, ये तो बसंती का दुपट्टा है।"

अब सबकी नजरें उस दुपट्टे पर केंद्रित थी कि तभी एक गाँववाले की नजर पगडंडी से नीचे खेतों में पड़े एक अन्य कपड़े पर पडी। सबने देखा,वह एक सलवार थी जिसे देखते ही बिरजू फूट फूटकर रो पड़ा। बिरजू के रुदन के बीच ही चौधरी के कानों में बसंती के कराहने की बारीक सी आवाज सुनाई पड़ी।

रामलाल जी अकेले ही उस आवाज की दिशा में आगे बढ़े।
गन्ने की फसल में चंद कदमों के फासले पर ही बसंती अर्धचेतन अवस्था में उन्हें दिखाई पड़ गई। कमर के नीचे विवस्त्र और लहूलुहान बसंती को देखकर चौधरी को सारा मामला समझते देर नहीं लगी। इससे पहले कि उनके मुख से चीख निकलती और सब लोग वहाँ आ जाते उन्होंने आगे बढ़कर अपने कंधे पर रखा गमछा बसंती के विवस्त्र जिस्म पर डाल दिया और सबको आवाज लगाई।

सबकी मौजूदगी के अहसास से बसंती कुनमुनाई और उठने का प्रयास करने लगी। रामलाल ने तुरंत ही उसके नजदीक बैठ कर उसका सिर अपनी गोद में रख लिया और स्नेह से उसके माथे पर हाथ फेरते हुए फफक पड़ा। इसके पूर्व अपना गमछा उन्होंने उसकी कमर के नीचे अच्छी तरह से लपेट दिया था।

ममता भरा स्पर्श पाकर बसंती की आँखों से भी आँसुओं की धार बहने लगी। रामलाल की गोद में अपना चेहरा छिपाकर वह भी फफक पड़ी। उसे सांत्वना देते हुए रामलाल पूर्ववत उसके माथे को प्यार से सहलाते हुए उसे अपने स्नेह का अहसास कराते रहे, उसे मानसिक संबल प्रदान करने का प्रयास करते रहे।

बसंती की अवस्था देखकर बिरजू और गाँव के अन्य लोग सन्न रह गए। अगले ही पल बिरजू किसी हिंस्र पशु के समान दहाड़ उठा, "कौन थे वो गुड़िया ? बस तू एक बार उनका नाम बता दे। माँ कसम, वो कल का सूरज नहीं देख पायेगा।"

बिरजू बसंती को प्यार से गुड़िया कहकर पुकारता था। क्रोध की अधिकता से उसकी आँखें सुर्ख अंगारे की मानिंद दहकने लगी थीं। उसे यह समझ नहीं आ रहा था कि 'इस गाँव या पास पड़ोस के अन्य गाँवों में भी उनकी इतनी इज्जत और धाक होने के बावजूद वह कौन दुस्साहसी होगा जिसने इतनी हिम्मत की ? बस गुड़िया एक बार उस दरिंदे का नाम बता दे फिर तो समझो आज की रात उसकी आखरी रात साबित होगी।'

उसके विपरीत चौधरी रामलाल बसंती को सांत्वना देते हुए उसे समझा रहे थे, "चुप हो जा मेरी बच्ची ! इसमें तेरी क्या गलती ? तू क्यों रो रही है ? रोना तो उन दरिंदों को चाहिए जिन्होंने ऐसा करने की हिमाकत की है। वो जो कोई भी है अगर इस गाँव या इसके आसपास का है तो फिर तू यकीन रख तुझे इंसाफ अवश्य मिलेगा। तुझे नहीं रोना है मेरी बच्ची। तेरी कोई गलती नहीं। तेरे ये बाबूजी हैं न तेरे साथ, चुप हो जा .........!"

बड़ी देर तक रामलाल जी उसको समझाते रहे और बिरजू और साथी गाँववाले उन अज्ञात दरिंदों को गालियाँ बकते और धमकी देते रहे।

कुछ देर के बाद संयत होकर बिरजू ने बसंती का दुपट्टा और सलवार उसे देकर उसे पहन लेने के लिए कहा। रामलाल और बिरजू सहित सभी लोग कुछ समय के लिए वहाँ से हट गए और पगडंडी पर आकर खड़े हो गए।
लगभग पाँच मिनट बाद कपड़े पहन कर बसंती लड़खड़ाते कदमों से गन्नों के बीच से निकली।

क्रमशः