ममता की परीक्षा - 70 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ममता की परीक्षा - 70



तालाब के किनारे पानी में अपनी एड़ियों को रगड़ते हुए बसंती अचानक आई तेज रोशनी और फिर किसी कार के इंजन की आवाज सुनकर सहम सी गई लेकिन फिर धीरे धीरे कार उससे दूर होती गई और वह निश्चिंत होकर पुनः अपनी एड़ियों को रगड़ने के क्रम में लग गई।

कार की पिछली सीट पर बैठे राजीव उर्फ रॉकी की नजर कार के हेडलाइट की तेज रोशनी में सड़क के किनारे पोखर के किनारे बैठी बसंती पर पड़ गई थी। कई दिनों से भूखे भेड़िए की निगाहें कोई आसान शिकार देखकर जैसे चमक उठती हैं, उस नराधम के नजरों की चमक भी बढ़ गई थी। पल भर में ही उसके शातिर दिमाग में एक घिनौनी योजना ने जन्म ले लिया था।

हाथ में थमी बियर की बोतल को लापरवाही से कार की पिछली सीट पर फेंकते हुए उसने पीछे से कार चला रहे अपने दोस्त सुक्खी का कॉलर पकड़ लिया, "अबे रुक,.. जल्दी रुक !"

अचानक अपना कॉलर रॉकी की गिरफ्त में पाकर सुक्खी थोड़ा चौंका था लेकिन उसी के पैसों पर ऐश करने वाले सुक्खी की हिम्मत नहीं थी कि वह अपने चेहरे पर रॉकी की इस हरकत के लिए नाराजगी का भाव भी आने दे। रॉकी के निर्देश पर कार जब तक रुकती वह तालाब से थोड़ी दूर पहुँच चुकी थी।

कार रोककर सुक्खी ने रॉकी की तरफ पलटकर देखा मानो पूछना चाह रहा हो कि 'कहो ! क्या बात है ? ' लेकिन इससे पहले कि वह कुछ पूछने के लिये अपनी जुबान खोलता रॉकी ने अपनी उँगली होठों के मध्य रखते हुए उसे खामोश रहने का इशारा किया। अगली सीट पर बैठे राजू के चेहरे पर भी कुछ न समझने वाले भाव थे। कार से नीचे उतरकर उसने सवालिया निगाहों से रॉकी की तरफ देखा जो अपने मस्त अलसाये हुए से अंदाज में झूमते हुए कार से बाहर निकल रहा था।

सुक्खी चालक सीट से उतरकर रॉकी की तरफ लपका। राजू और सुक्खी की बाहों में लगभग झूमते हुए रॉकी ने धीमे स्वर में बुदबुदाते हुए कहा, "अबे गधों, तुम्हारी आँखें हैं या आलू ? ..और दिमाग तो जैसे है ही नहीं ?.. स्सालों ! तुम लोग मेरे साथ रहने के काबिल नहीं हो, हटो बेवकूफों !" कहते हुए उसने राजू को एक जोर का धक्का दिया।

राजू पीछे की तरफ लड़खड़ाया, लेकिन उसके लड़खड़ाने के साथ ही रॉकी भी गिरते गिरते बचा था। वह गिर ही जाता अगर लड़खड़ाने के बावजूद तुरंत ही फुर्ती से राजू ने उसको थाम न लिया होता। सँभलने के बाद अपने पैरों पर खड़ा होने की कोशिश करते हुए रॉकी फुसफुसाया, "अबे गधों, कान इधर लाओ ! तुम्हें बताता हूँ।" और उन दोनों के उसके नजदीक कान लाते ही वह फुसफुसाया, "उधर पीछे तुमने तालाब देखा ? उसके किनारे एक लड़की है।"

"लड़की ...?.. कहाँ ....है ..? हमारी तो नजर ही नहीं पड़ी।" सुनते ही सुक्खी की निगाहें चमक उठीं।

"चुप स्साला, इसीलिये तो बोला मैंने कि तुम लोग के पास आँख है कि आलू ?.. अब ध्यान से सुन मैं क्या बोल रहा हूँ।" सुक्खी को एक भद्दी सी गाली देते हुए रॉकी ने कहना जारी रखा, "वो उस पोखर के किनारे एक लड़की बैठी है, शायद शौच मैदान के लिए आई हो। उस पोखर से पीछे दूर कोई बस्ती दिख रही है। हो सकता है वह लड़की उसी गाँव की हो। सीधे खेतों के रास्ते ही वह गाँव में वापस जाएगी और हमें उसी मौके का फायदा उठाना है। पोखर के नजदीक ही सड़क है। हमें यहाँ कोई हरकत नहीं करनी। क्या पता कब कोई किसी तरफ से आ जाये ? खेत ज्यादा सुरक्षित रहेंगे हमारे लिए ....सुनसान और निर्जन इलाका है ये जिसकी वजह से सब आसान सा होने वाला है। अँधेरा होने की वजह से वह हमें पहचान भी नहीं पाएगी। कैसा रहेगा ?"

"एकदम झकास भाई ! इतना अच्छा मौका हाथ से चले गया तो बहुत पछतावा होगा भाई। चलो देर न करो, फील्डिंग लगाते हैं।" सुक्खी ने अपने सूखे होठों पर जुबान फेरते हुए रॉकी की चापलूसी की।

"ओ के, चलो, लेकिन ध्यान रहे। एक दम खामोश और थोड़ी दूर से हमें उन खेतों में पहुँचना है। समझे ?.. वहाँ गन्नों में छिपकर हम उस लड़की पर नजर रख सकते हैं और फिर मौका देखकर उसे दबोच भी सकते हैं। चलो !" कहने के साथ ही रॉकी बिल्कुल तन कर खड़ा हो गया और कार के अगले हिस्से के सामने से सड़क से नीचे की तरफ के खेतों में उतर गया।

सुक्खी और राजू भी उसकी परछाईं की तरह उसके साथ थे। पोखर से कुछ दूर इन खेतों से होते हुए तीनों दूसरी दिशा से पोखर के नजदीक वाले खेतों में गन्ने की ओट लेकर छिप गए।
बहेलियों की जाल से बेखबर मैना अर्थात बसंती हाथ पैर अच्छी तरह धोकर खेतों के रास्ते ही अपने घर की तरफ बढ़ी। यह उसकी प्रतिदिन की दिनचर्या थी अतः इन पगडंडियों से वह भली भाँति परिचित थी। अंधेरे की अभ्यस्त उसकी निगाहें बड़ी आसानी से अपने मार्ग का अवलोकन करते हुए पैरों को यथोचित निर्देश दे रही थीं। पोखर से हटकर गन्ने के खेतों के बीच से जानेवाली पगडंडी गहन अँधेरे में विलीन हो चुकी थी। दोनों तरफ खेतों में गन्ने की वजह से यहाँ अँधेरा कुछ अधिक गहरा गया था लेकिन बिना किसी आशंका के बसंती कोई देहाती धुन मुँह में ही गुनगुनाती तेजी से घर की तरफ बढ़ी जा रही थी।

तभी सहसा उसे आभास हुआ जैसे दबे कदमों से कोई उसके पीछे चल रहा हो। उसने अचानक मुड़कर पीछे देखा।
देखते ही उसकी घिग्घी बंध गई। एक नहीं, दो नहीं, तीन तीन इंसानी साये किसी शैतान की तरह उसके पीछे ही पगडंडियों पर खड़े थे। इससे पहले कि वह चीखकर किसी को अपनी मदद के लिए पुकारती उनमें से एक साया तेजी से आगे बढ़ा और उसने झपटकर अपनी हथेली से पूरी सख्ती से उसका मुँह बंद कर दिया। अपनी पूरी शक्ति लगाकर बसंती उस साये की पकड़ से खुद को छुड़ाने का प्रयास करने लगी।

वह साया कोई और नहीं सुक्खी ही था। राजू और रॉकी अपने अधरों पर अपनी जबान फेरते हुए मासूम बसंती की बेबसी का आनंद लेते हुए कुटिलता से मुस्कुरा रहे थे।

मैना अब बहेलियों के जाल में फँसी उड़ने को बेताब अपने पर फड़फड़ा रही थी लेकिन किसी बहेलिए को भला कब किसी परिंदे पर तरस आया है जो ये लोग उसपर तरस खाते ?
कुछ देर बाद पंख नुची हुई मैना लहूलुहान पड़ी हुई तड़प रही थी और बहेलिए वहाँ से फरार हो गए थे।

क्रमशः

बसंती व अन्य किरदारों के बारे में समझने के लिए कृपया भाग 25 अवश्य पढ़ें !