राज-सिंहासन--(अन्तिम भाग) Saroj Verma द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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राज-सिंहासन--(अन्तिम भाग)

अब अखण्डबली की मृत्यु हो चुकी थी,किन्तु बसन्तसेना की मृत्यु से सहस्त्रबाहु को अत्यधिक आघात पहुँचा था,अब आगें की योजना का कार्यभार उसके काँधों पर आ गया था,यदि बसन्तसेना जीवित होती तो उसकी सहायता करती एवं वो सरलता से अपने माता पिता को खोज सकता था,परन्तु अब वो मार्ग भी बंद हो गया था,इसलिए सहस्त्रबाहु ने सभी विचारों को त्यागकर सर्वप्रथम बसन्तसेना का अन्तिम संस्कार करना उचित समझा,सभी ने बसन्तसेना का अन्तिम संस्कार करने में योगदान दिया,
उधर सहस्त्रबाहु ने आगें की योजना की रणनीति तैयार ही की थी कि सुकेतुबाली तक ये सूचना पहुँच गई कि जो रघुवीर और श्रवन उसकी अश्वशाला में कार्य कर रहे थे वें कोई और नहीं सहस्त्रबाहु और वीरप्रताप थे,सैनिक ने सुकेतुबाली को ये भी बताया कि सहस्त्रबाहु ही उनके शत्रु सोनभद्र का पुत्र है,जो अपने माता पिता को अघोरनाथ के बंदीगृह से मुक्त कराना चाहता है और जो कादम्बरी थी वो राजकुमार ज्ञानश्रुति था,जिसने सहस्त्रबाहु के संग मिलकर अपनी बहन निपुणिका को आपके बन्दीगृह से मुक्त करवाया था ,साथ में सहस्त्रबाहु की मुँहबोली बहन सोनमयी थी एवं इस षणयन्त्र में आपकी पुत्री राजकुमारी नीलमणी भी उनके संग थी,तभी तो वें राजमहल से जा चुकीं हैं,वो सहस्त्रबाहु के निवासस्थान पर ही हैं जहाँ भानसिंह जो कि सोनभद्र का विश्वासपात्र एवं सेनापति ,वो भी वहीं रहता है.....
ये सुनकर सुकेतुबाली क्रोध की अग्नि में जल उठा एवं बोला....
इतना बड़ी योजना....इतना बड़ा षणयन्त्र ....रचा गया मेरे लिए,यहाँ तक मेरी पुत्री भी विश्वासघाती निकली,अब तो मैं इसका प्रतिशोध अवश्य लेकर रहूँगा,जाओ तुम कैसे भी करके अघोरनाथ को सूचित करो कि जैसे ही वहाँ सहस्त्रबाहु अपने साथियों के साथ वहाँ पहुँचे तो उसके प्राण बचने नहीं चाहिए....
जी!महाराज!जैसी आपकी आज्ञा और फिर सैनिक वहाँ से चला गया अघोरनाथ को सूचना देने हेतु....
सुकेतुबाली ने शीघ्रता से अपने सेनापति को आदेश दिया कि वों शीघ्र ही सेना को उस स्थान पर चलने हेतु आदेश दे,जहाँ अघोरनाथ रहता है,अब तो सहस्त्रबाहु का अन्त निश्चित है,इतना बड़ा छल किया उसने मेरे संग,ज्ञानश्रुति को कादम्बरी बनाकर मेरे संग प्रेम का अभिनय करवाया एवं नीलमणी को मैं अब जीवित नहीं छोड़ूगा,मेरे शत्रुओं के संग मिलकर मुझसे विश्वासघात किया.....
सुकेतुबाली के क्रोध की कोई सीमा ना थी एवं क्रोधवश ही व्यक्ति गलत निर्णय लेता है यही कदाचित सुकेतुबाली कर रहा था,उसने कुछ भी ना सोचा और सेना लेकर समुद्रतट पर चल पड़ा,जहाँ अघोरनाथ ने सहस्त्रबाहु के माता पिता को बंदी बना रखा था.....
उधर सहस्त्रबाहु को इस बात का अनुमान हो चुका था कि अब तक सुकेतुबाली को सारा समाचार प्राप्त हो चुका होगा,क्योंकि अखण्डबली ने पहले ही ये सूचना लेकर सैनिकों को सूरजगढ़ भेज दिया था,इसलिए उसने सभी को सावधान रहने को कहा......
तभी वीरप्रताप ने पूछा....
परन्तु भ्राता!हो सकता है ये सूचना अब तक अघोरनाथ तक भी पहुँच गई हो तो हमारे पास अब कौन सा मार्ग शेष बचता है,
तुम चिन्तित क्यों होते हो वीर? हम सभी मिलकर इस कठिनाई का सामना करेगें,सहस्त्रबाहु बोला।।
जी!भ्राता!हम सब संग है तो कोई भी कठिनाई हमारा मार्ग नहीं रोक सकती,सोनमयी बोली।।
बस,इतना ही साहस बनाएं रखना तुम सभी,सहस्त्रबाहु बोला।।
किन्तु हम समुद्रतट के भीतर बने जलमहल तक पहुँचेगें कैसें?अब तो बसन्तसेना भी नहीं रहीं,एक वही थी जो हमें वहाँ जाने का मार्ग दिखा सकती थी,ज्ञानश्रुति बोला।।
यदि हम सभी अपना कार्य निष्ठा से कर रहे हैं तो जब यहाँ तक आ पहुँचे है तो आगें का मार्ग भी स्वतः दिख ही जाएगा,सहस्त्रबाहु बोला।।
आपका सकारात्मक दृष्टिकोण ही तो है जो अब तक हम सभी में साहस शेष बचा,वीरप्रताप बोला।।
जीवन में कितनी भी विरूद्ध परिस्थितियांँ क्यों ना आ जाएं,कभी सकारात्मकता को मत छोड़ना,वो ही हमें घोर अँधेरें में प्रकाश तक ले जाती है,सहस्त्रबाहु बोला।।
मैं आपकी बात से सहमत हूँ भ्राता!सोनमयी बोली।।
तो बिलम्ब ना करते हुए आगें का कार्य प्रारम्भ करें,सहस्त्रबाहु बोला।।
जी!अवश्य,हम सभी भी इसी प्रतीक्षा में हैं,ज्ञानश्रुति बोला।।
तो चलो अपने मार्ग पर चलते हैं,जो भी समस्या आएगी तो उसका समाधान भी मिल ही जाएगा,सहस्त्रबाहु बोला।।
और ऐसे सभी आपस में वार्तालाप करते हुए अपने गन्तव्य की ओर बढ़ चले,वें कन्दरा के दूसरी छोर की ओर बढ़ रहे थे,उन्होंने लगभग आधे से अधिक मार्ग पार कर लिया था,समुद्रतट अब अधिक दूर ना रह गया था,तभी उन सभी को मार्ग में नीलमणी दिखाई थी,जो अत्यधिक चिन्तित सी प्रतीत हो रही थी,वो अपने अश्व पर सवार जैसे ही उन सभी के समीप पहुँची तो सहस्त्रबाहु ने उससे पूछा....
बहन नीलमणी!तुम यहाँ क्या कर रही हो?
तब नीलमणी बोली.....
भ्राता सहस्त्रबाहु! मैं और काका भानसिंह आपकी सहायता हेतु यहाँ आ रहे थे तभी भानसिंह काका को दृष्टबंधक अघोरनाथ के सैनिकों ने बंदी बना लिया है और उन्हें समीप ही एक कन्दरा में बंद कर दिया है,मैं उनकी सहायता करना चाहती थी किन्तु मैं उन सैनिकों का अकेले सामना नहीं कर सकती थी इसलिए लौट आई,कृपया आप उनकी सहायता करें,
ओह....परन्तु मैनें तो मामा भानसिंह तो यहाँ मेरे पहुँचने के पश्चात आने वाले थे,सहस्त्रबाहु बोला।।
किन्तु,उन्हें ऐसा लगा कि कदाचित आप किसी संकट में ना पड़ जाएं इसलिए उन्होंने यहाँ आपसे पूर्व पहुँचने का प्रयास किया,नीलमणी बोली।।
ओह....किन्तु उन्हें अपनी इस योजना के विषय में सूचित करना चाहिए था,अब देखो ना वें संकट में पड़ गए,वीरप्रताप बोला।।
तभी सोनमयी बोली.....
सखी!नीलमणी!तुम सूरजगढ़ से हमारे निवासस्थान क्यों पहुँची? ऐसा तो कुछ भी हमारी योजना में नहीं था,
पिताश्री को मुझ पर संदेह हो गया था इसलिए मैं सूरजगढ़ से भागकर आप सभी के निवास स्थान पहुँच गई,नीलमणी बोली।।
किन्तु नीलमणी मुझे तुम में कुछ परिवर्तन सा दिखाई देता है,मुझे तुम्हारी काया कुछ स्थूल से दिखाई पड़ती है एवं ये तुम्हारी भुजाएंँ किसी बलिष्ठ युवक की भाँति क्यों प्रतीत हो रहीं हैं?इतने कम समय में तुम में इतना परिवर्तन कैसे हो सकता है?या हो सकता है कि तुम मेरी सखी नहीं कोई और हो,सोनमयी बोली।।
ये कैसी बातें करती हो सखी?मैं नीलमणी ही हूँ,ये सब कुछ,कुछ समय पश्चात सोचना ,सर्वप्रथम काका भानसिंह को बचाने का प्रयास किया जाना चाहिए,नीलमणी बोली।
किन्तु मुझे ऐसा प्रतीत नहीं होता क्योंकि मामाश्री भानसिंह तो अति शक्तिशाली हैं,उन्होंने ना जाने कितने ही युद्धों मेँ कितनी बड़ी बड़ी सेनाओं को पराजय दी है तो कुछ निर्बल से सैनिक उन्हें कैसे बंदी बना सकते हैं,वीरप्रताप बोला।।
तो क्या वीर तुम्हें मुझ पर संदेह कि मैं असत्य कहती हूँ?नीलमणी बोली।।
मैंने ऐसा तो नहीं कहा,वीरप्रताप बोला।।
यदि तुम्हें मुझ पर संदेह है वीर!तो कोई बात नहीं,मैं स्वयं अकेले ही कुछ कर लूँगी और इतना कहकर नीलमणी रूठकर वहाँ से जाने लगी।।
ना!नीलमणी!मुझे तुम पर कोई सन्देह नहीं है,मैं मामाश्री की सहायता हेतु तुम्हारे संग चलता हूँ,सहस्त्रबाहु बोला।।
तो ऐसा कीजिए भ्राता! आप अपनी शक्तियों द्वारा ये ज्ञात करने का प्रयास कीजिए कि मामाश्री किस अवस्था में हैं,सोनमयी बोली।।
ये सुनकर नीलमणी कुछ भयभीत होकर बोली....
इतना समय नहीं है हम सभी के पास,ना जाने वें सैनिक उनकी क्या दशा कर रहे होगें?
नीलमणी सत्य कह रही है सोनमयी!हमें अब और अधिक बिलम्ब नहीं करना चाहिए,सहस्त्रबाहु बोला।।
तो चलिए सर्वप्रथम हम मामा भानसिंह को ही बचाते हैं,वीरप्रताप बोला।।
और इतना कहते ही सभी उस दिशा की ओर नीलमणी के संग चल पड़े जहाँ पर कन्दरा के भीतर भानसिंह को बंदी बनाया गया था,वे सब चलते जा रहे थे,परन्तु अभी तक उस स्थान तक पहुँच नहीं पाएं थे,वें सभी बारी बारी से नीलमणी से पूछते कि कब आएगी वो कन्दरा,तब नीलमणी कहती बस,अधिक दूर नहीं है हम सभी उसके निकट ही हैं,सब उसकी बात सुनकर उस पर विश्वास कर लेते परन्तु जब अत्यधिक समय ब्यतीत हो जाने पर एवं इतनी अधिक दूरी तय करने के पश्चात भी वो कन्दरा तक नहीं पहुँचे तो तब सोनमयी और ज्ञानश्रुति को कुछ संदेह सा हुआ,उन्हें लग गया कि कि ये नीलमणी नहीं है,इसे हमारा मार्ग भटकाने हेतु भेजा गया है,
दोनों ने एकदूसरे को संकेत दिया एवं दोनों ही नीलमणी के अश्व के दोनों ओर चलने लगें एवं कुछ ही समय के पश्चात ज्ञानश्रुति ने नीलमणी के अश्व को अपने अश्व द्वारा धकेल दिया,दूसरी ओर से सोनमयी ने भी यही किया तब अश्व पर सवार नीलमणी धरती पर गिर पड़ी,देखते ही देखते उसका रूप एवं वेष दोनों ही बदल गए,वो नीलमणी नहीं वो तो कोई और ही था,वो धरती से उठा और उसने ज्ञानश्रुति को अपने जादू द्वारा कुछ ही झण में बेड़ियों में जकड़ लिया एवं बोला.....
मैं नीलमणी नहीं,मैं दृष्टबंधक अघोरनाथ हूँ,जिस कार्य के लिए तुम सभी यहाँ आएं हो वो कभी पूर्ण नहीं हो सकता क्योंकि सहस्त्रबाहु तुम्हारे माता पिता को तुम कभी भी मुक्त नहीं करा सकोगें,
ये तुम्हारी भूल है अघोरनाथ!मैं अपने माता पिता को मुक्त करवाकर ही रहूँगा,तुम्हारी और सुकेतुबाली की पराजय निश्चित है,सहस्त्रबाहु बोला।।
यदि तुमने कुछ भी ऐसा किया तो ये तुम्हारा मित्र है जो कि सुकेतुबाली का परमशत्रु है,ये जीवित नहीं रहेगा,मैं इसकी वो दशा करूँगा कि जीवन भर तुम स्वयं को क्षमा नहीं कर पाओगे एवं इस अपराधबोध से जीवनपर्यन्त ग्रसित रहोगें कि यदि मैं अघोरनाथ की बात मान लेता तो मेरा मित्र आज जीवित रहता,अघोरनाथ बोला।।
तुम इसे मुक्त कर दो,तुम जो चाहोगें मैं वो करुँगा,सहस्त्रबाहु बोला।।
अब तुम सही दिशा में जा रहे हो,मैं जो कहता हूँ तुम्हें वो करना होगा मुझे तुम ऐसा वचन दो,तभी मैं इसे मुक्त करूँगा,,अघोरनाथ बोला।।
मुझे तुम्हारी सभी बातें स्वीकार हैं,परन्तु इसे मुक्त कर दो,सहस्त्रबाहु बोला।।
तो तुम मेरे समीप आओ,अघोरनाथ बोला।
नहीं सर्वप्रथम ज्ञानश्रुति को मुक्त करो एवं मुझे ये भी वचन दो कि मेरे अन्य साथियों को भी तुम मुक्त कर दोगें,उन्हें कोई भी हानि नहीं पहुँचाओगें,सहस्त्रबाहु बोला।।
बड़े बुद्धिमान हो तुम,मुझे स्वीकार है,वैसे भी तुम ही सुकेतुबाली के शत्रु हो,उसे एवं मुझे तुमसे ही संकट है,जाओ मैं सभी को जाने देता हूँ,इनसे कहो कि ये सभी यहाँ से चलें जाएं,अघोरनाथ ने ज्ञानश्रुति की बेड़ियों को अपने जादू द्वारा तोड़ते हुए कहा.....
जाओ....तुम सभी जाओ...सहस्त्रबाहु ने सभी को आदेश देते हुए कहा...
नहीं...भ्राता....हम सभी आप को छोड़कर कैसे जा सकते हैं?ज्ञानश्रुति बोला।।
जाओ....ये मेरा आदेश है,सहस्त्रबाहु बोला।।
नहीं!भ्राता!ज्ञानश्रुति एवं सोनमयी को जाने दीजिए,मैं आपके संग ही रहूँगा,वीरप्रताप बोला।।
मैनें कहा ना!तुम भी जाओ,सहस्त्रबाहु बोला।।
परन्तु भ्राता !मैं आपको ऐसी स्थिति में छोड़कर कैसे जा सकता हूँ?मेरा जी नहीं मानता,वीरप्रताप बोला।।
तुम्हें मेरे प्राणों की सौगन्ध,तुम्हें जाना ही होगा,सहस्त्रबाहु बोला।।
अब सहस्त्रबाहु की दी गई सौगन्ध को वीरप्रताप अस्वीकार ना कर सका एवं वो वहाँ से ज्ञानश्रुति एवं सोनमयी के संग लौट गया,इधर अघोरनाथ ने सहस्त्रबाहु को बेड़ियों में जकड़कर एक वृक्ष से बाँध दिया तथा उसके चहुँ ओर एक जादुई वृत्त भी खींच दिया एवं वहाँ से जाते हुए सहस्त्रबाहु से कहता गया कि यदि तुमने इस वृत्त को लाँघने का प्रयत्न किया तो तुम भस्म हो जाओगें,किन्तु अघोरनाथ यहीं पर भूल कर बैठा,वो ये ज्ञात होते हुए भी ये भूल गया कि सहस्त्रबाहु को तंत्रविद्या में भी ज्ञान प्राप्त है....
अघोरनाथ के जाते ही सहस्त्रबाहु ने ध्यान लगाया एवं उन बेड़ियों को अपनी तंत्रविद्या द्वारा तोड़ दिया,जिससे वो मुक्त हो गया,इसके पश्चात उसने धरती पर बैठकर दोबारा ध्यान लगाया,कुछ मंत्रो का जाप किया,देखते ही देखते वो वृत्ताकार रेखा स्वतः मिट गई,अब सहस्त्रबाहु मुक्त हो चुका था,वो वहीं खड़े अपने विश्वासी अश्व पर सवार होकर अपने साथियों की खोज में निकल पड़ा.....
किन्तु सहस्त्रबाहु को ये ज्ञात नहीं था कि अघोरनाथ ने उसके संग विश्वासघात किया था,सहस्त्रबाहु को बंधक बनाने के उपरान्त अघोरनाथ ने वीरप्रताप,ज्ञानश्रुति एवं सोनमयी को खोज निकाला तथा उन्हें उनके छोटे रूप में परिवर्तित करके एक पिंजरे में बंधक बनाकर अपने संग ले कर चला गया...
सहस्त्रबाहु को जब अत्यधिक खोजने पर उसके साथी नहीं मिले तो उसने ध्यान लगाकर उन्हें खोजना चाहा,तब उसने देखा कि उसे दृष्टिबंधक अघोरनाथ उन सभी को छोटे रूप में परिवर्तित करके पिंजरें में बंधक बनाकर समुद्रतट की ओर लेकर जा रहा है,उसने शीघ्रता से अपने अश्व को उस दिशा की ओर दौड़ाया......
कुछ समय पश्चात ही अघोरनाथ उन सभी को लेकर समुद्रतट की ओर पहुँच गया,वहाँ स्तम्भों से बना एक स्थान था,जहाँ अघोरनाथ के सैनिक पहरा दे रहे थें उसने उस पिंजरें को एक स्तम्भ पर टाँग दिया,तथा सैनिकों को सावधान करके समुद्र के भीतर चला गया,अघोरनाथ को जब कुछ संकट सा दिखाई पड़ता था तो वो जलमहल के बाहर नहीं निकलता था, वो अपने जलमहल के बाहर अत्यधिक आवश्यकता पड़ने पर ही आता था,क्योंकि उसे ज्ञात था कि यदि वो जलमहल के संग समुद्र के बाहर आया तो उसका अन्त निश्चित है,वो अपने किसी भी मित्र या शत्रु को उस जलमहल के भीतर भी नहीं ले जाता था,
किन्तु सायंकाल वो जलमहल के संग बाहर निकलता था,ये उसके लिए आवश्यक था ,ये करना उसकी विवशता थी क्योंकि यदि वो ऐसा नहीं करेगा तो उसका जलमहल स्वतः ही समुद्र के जल के संग घुलकर मिट्टी में परिवर्तित हो जाएगा,इसलिए वो उसे केवल सायंकाल ही बाहर ला सकता था चूँकि वो जलमहल जादुई एवं कृत्रिम था इसलिए सूर्य का प्रकाश उस जलमहल के लिए हानिकारक था,ये बात बसन्तसेना ने अपनी मृत्यु के समय सहस्त्रबाहु को बताईं थीं,ये बातें सहस्त्र के साथ साथ वीरप्रताप,ज्ञानश्रुति एवं सोनमयी को भी ज्ञात थीं..
चूँकि उस समय दोपहर बीत चुकी थी,तब सबने सोचा कि सायंकाल को तो अवश्य ही अघोरनाथ उस जलमहल के संग समुद्र से बाहर आएगा,तब तक कदाचित सहस्त्र भ्राता भी हमें खोजते हुए यहाँ पहुँच जाएं,इसी आशा में वें सभी सहस्त्र की प्रतीक्षा कर रहे थे,कुछ समय पश्चात सायंकाल हो चुकी थी...
एवं उस समय उन सभी ने जो देखा उसे देखकर वें भयभीत हो उठे,क्योंकि वहाँ सुकेतुबाली आ पहुँचा था,सुकेतुबाली ने उन सभी के समीप आकर उन्हें ध्यानपूर्वक देखा और बोला......
मुझसे विश्वासघात किया था ना!उसका दण्ड तो तुम्हें मिलना ही चाहिए,अभी मैं अघोरनाथ को यहाँ बुलाता हूँ एवं मैं उससे कहूँगा कि तुम सभी को छोटी मत्स्य में परिवर्तित करके समुद्र में फेंक दे ताकि तुम सभी बड़ी बड़ी मत्स्य का आहार बन जाओं,मेरी पुत्री को तुम सभी ने मेरे विरूद्ध कर दिया,अब इसका परिणाम देखना क्या होगा?तब सुकेतुबाली ने एक सैनिक से कहा.....
जाकर अपने स्वामी से कहो कि सूरजगढ़ के राजा सुकेतुबाली आएं हैं।।
जी!महाराज!मैं अभी आपका संदेश उन तक पहुँचाता हूँ और इतना कहकर वो सैनिक वहाँ से चला गया,तभी सोनमयी को कुछ संदेह सा हुआ वो इसलिए कि सुकेतुबाली यहाँ अकेला कैसे आ सकता है उसकी सेना कहाँ है?उसे अपनी मृत्यु का तनिक भी भय नहीं है,परन्तु वो उस समय कुछ बोल ना सकी।।
कुछ समय पश्चात अघोरनाथ अपने जलमहल के संग समुद्र के बाहर आया एवं उसने सुकेतुबाली का स्वागत करते हुए कहा.....
आइए....महाराज!आपकी ही प्रतीक्षा थी,इन सभी को क्या दण्ड देना है ये आप ही निश्चित करें,उस सहस्त्रबाहु को भी मैं बंधक बना आया हूँ,इन सबके उपरांत उसकी ही बारी है,इसके पश्चात आप पुनः सूरजगढ़ के राजसिंहासन के अधिकारी बन जाऐगें,
वो मुझे ज्ञात था अघोरनाथ कि तुम्हारे रहते हुए मैं कभी भी पराजित नहीं हो सकता,सुकेतुबाली बोला।।
परन्तु आप अकेले ही आएं हैं आपकी सेना कहाँ हैं?अघोरनाथ ने पूछा।।
है....सेना भी है,वो पीछे वृक्षों के तले विश्राम कर रही है,एक आदेश पर यहाँ आ जाएगी,सुकेतुबाली बोला।।
तब तक मैं जलमहल के भीतर से आपके शत्रुओं को लेकर आता हूँ राजा सोनभद्र एवं रानी विजयलक्ष्मी,तनिक उनके भी दर्शन कर लीजिए एवं उन्हें भी ये शुभ समाचार दे दीजिए,सुकेतुबाली बोला।।
अवश्य अघोरनाथ!उनके अश्रु देखकर मेरे कलेजे को ठंडक मिलेगी,सुकेतुबाली बोला।
तब अघोरनाथ जलमहल के भीतर गया एवं पिंजरें में बंधक तोता बने सोनभद्र और मैना बनी विजयलक्ष्मी को बाहर ले आया तभी उसने दूर से देखा कि सुकेतुबाली अपनी सेना के संग उसके समीप आ रहा है,उसे कुछ समझ नहीं आया तो उसने अपने समीप खड़े सुकेतुबाली से पूछा.....
कौन हो तुम?क्योंकि सुकेतुबाली तो वो आ रहा है अपनी सेना के संग.....
तो जब तुम्हें सब कुछ ज्ञात ही हो चुका है तो मैं बता देता हूँ कि मैं सहस्त्रबाहु हूँ और इतना कहकर सहस्त्रबाहु अपने पूर्व रूप में आ गया जो कि उसने अपनी तंत्रविद्या द्वारा धारण किया था ,उस ने अघोरनाथ के हाथ से पिंजरा छीना और भागने लगा,उसे भागता देखकर अघोरनाथ बोला.....
तू मुझसे भागकर कहीं नहीं जा सकता।।
तब तक सुकेतुबाली भी अघोरनाथ के समीप आ चुका था और उसने अघोरनाथ से पूछा....
ये अब तक जीवित है एवं अपने सैनिकों को आदेश देते हुए बोला...
सैनिकों !इसे बंदी बना लो ॥
तब तक सहस्त्रबाहु अपने साथियों को मुक्त कर चुका था उनका पिंजरा टूटा तो वें सभी अपने पूर्व रूप में आ गए,अब सहस्त्रबाहु अकेला ना था,किन्तु जब सुकेतुबाली ने अपने सैनिकों को आदेश दिया कि सहस्त्रबाहु पर आक्रमण करो तो सैनिकों ने कोई भी प्रतिक्रिया नहीं दी तो सुकेतुबाली एवं अघोरनाथ आश्चर्य में पड़ गए,तब सैनिकों के सेनापति ने आगें आकर अपने मुँखकवच को निकाला तो उन्हें देखकर सुकेतुबाली सन्न रह गया क्योंकि वो कोई और नहीं भानसिंह थे जो सहस्त्रबाहु की रक्षा हेतु सुकेतुबाली की सेना का संचालन कर रहे थें,वें सूरजगढ़ के राजमहल के पुराने व्यक्तियों से परिचित थे इसलिए उन सभी को सरलता के साथ अपने संग सम्मिलित कर लिया,वें सभी भी सुकेतुबाली को पसंद नहीं करते थे,इसी बात का लाभ भानसिंह ने उठाया और सभी सैनिक उसके विरुद्ध होकर भानसिंह के साथ हो गए....
सुकेतुबाली भानसिंह पर क्रोधित हो उठा एवं उसने अपनी तलवार द्वारा उस पर प्रहार करना चाहा,परन्तु भानसिंह ने सुकेतुबाली के उस प्रहार का ऐसा उत्तर दिया कि सुकेतुबाली भानसिंह के एक ही प्रहार से धरती की धूल चाटने लगा,उसको धरती पर गिरता हुआ देखकर भानसिंह बोलें.....
दुष्ट....पापी...आज तू नहीं बचेगा,तुझे अपने पापों का दण्ड अवश्य मिलेगा,तूने निर्दोषो को दुख दिए हैं,इतने वर्षो तक एक पुत्र को उसके माता पिता से दूर रखा,आज तू मेरे हाथों से नहीं बचेगा,
ये कदापि सम्भव नहीं,मैं इनकी रक्षा करूँगा और इतना कहते ही अघोरनाथ ने सुकेतुबाली पर एक पारदर्शी सुरक्षाकवच बना दिया,अब भानसिंह ने सुकेतुबाली पर प्रहार किया तो वें असफल रहे,अब इस समस्या का समाधान करने हेतु सहस्त्रबाहु आगें आया और उसने शीघ्रतापूर्वक धरती पर बैठकर समाधि लगाकर कुछ मंत्रो का उच्चारण करना प्रारम्भ कर दिया,कुछ ही समय में सुकेतुबाली का सुरक्षाकवच लुप्त हो गया,तभी वीरप्रताप सहस्त्रबाहु से बोला.....
भ्राता! सायंकाल बीतता जा रहा है,जलमहल भी समुद्रतट पर है,सर्वप्रथम हमें अघोरनाथ को मृत्यु तक पहुँचाना होगा,नहीं तो आपके माता पिता अपने पूर्व रूप में नहीं लौट सकेगें,
सहस्त्रबाहु ने देखा तो सायंकाल सच में बीतता जारहा था इसलिए सर्वप्रथम उसने अघोरनाथ को समाप्त करने का सोचा,इसलिए उसने बसन्तसेना की कही हुई बात पर ध्यान केन्द्रित किया और वीरप्रताप से बोला....
वीर!मुझे इस कार्य में तुम्हारी सहायता चाहिए,
वीर बोला.....
भ्राता!आप इस कार्य में मामा भानसिंह की सहायता लें,वे एक अच्छे धनुर्धर हैं,मैं तब तक सुकेतुबाली एवं अघोरनाथ का ध्यान आप पर से हटाने का प्रयास करता हूँ,
ये अच्छा सुझाव है और इतना कहकर सहस्त्रबाहु भानसिंह के पास सहायता हेतु गया,भानसिंह सहस्त्र की बात सुनकर बोले....
चलो!मुझे दिखाओं वो उल्लू कहाँ बैठा है?
सहस्त्र और भानसिंह जलमहल के समीप पहुँचे और उन्होंने अपने अपने धनुष पर बाण चढ़ाकर उल्लू की दोनों आँखों पर एक साथ बाण चलाया,दोनों बाण एक साथ ही उल्लू की दोनों आँखों में जा लगें,देखते ही देखते जलमहल रेत में परिवर्तित हो गया,साथ में तोता बने सोनभद्र और मैना बनी रानी विजयलक्ष्मी अपने पूर्व रूप में वापस लौट आईं,अघोरनाथ भी भस्म बनकर वायु के साथ उड़ गया,उन्हें देखकर भानसिंह बोला.....
महाराज और महारानी आप ठीक तो हैं ना!मुझे क्षमा करें जो आप दोनों को खोजने में इतना बिलम्ब हुआ,ये रहा आपका पुत्र सहस्त्रबाहु...
सहस्त्रबाहु को देखते ही माता पिता दोनों की आँखों से अश्रुधारा बह चली,सहस्त्रबाहु ने दोनों के चरणस्पर्श किए,दोनों ने सहस्त्र को अपने कलेजे से लगा लिया,तभी अवसर देखकर सुकेतुबाली सहस्त्र की ओर अपनी तलवार लेकर लपका परन्तु भानसिंह ने देखते ही देखते सुकेतुबाली का सिर धड़ से अलग कर दिया और बोला.....
मेरे रहते हुए तुम सहस्त्रबाहु का कुछ नहीं बिगाड़ सकते,मेरा प्रतिशोध वर्षों से शेष था जो अब पूर्ण हुआ,
इस प्रकार सुकेतुबाली और अघोरनाथ का नाश हुआ,इसके पश्चात सभी सूरजगढ़ लौटे,सहस्त्रबाहु ने अपने पालक पिता घगअनंग एवं पालक माता हीरादेवी को भी सूरजगढ़ बुला लिया,वीरप्रताप और सोनमयी के माता पिता एवं वन में रहने वालें सम्पूर्ण परिवारों को भी सूरजगढ़ बुलाया गया,सहस्त्रबाहु का राज्याभिषेक हुआ,वो अपने राज्य के राज-सिंहासन पर विराजमान हुआ,कुछ समय पश्चात सहस्त्रबाहु का विवाह ज्ञानश्रुति की बहन निपुणनिका से हो गया,वीरप्रताप का विवाह सुकेतुबाली की पुत्री नीलमणी से एवं सोनमयी का विवाह ज्ञानश्रुति से हो गया और सभी राजी खुशी रहने लगें.....

समाप्त....
सरोज वर्मा.....🙏🙏😊😊