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बेमेल - 20

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“काकी राम राम!” – घर में प्रवेश करते हुए पड़ोस की रमा ने विनयधर की मां अभिवादन किया।
“राम राम बिटिया, आओ बैठो! बहुत दिन बाद आना हुआ! कहो, कैसी हो?” – विनयधर की बुढ़ी मां आभा ने कहा फिर अपनी बहू सुलोचना को आवाज लगाते हुए उसे गुड़ का ठंडा मीठा शर्बत लाने को कहा।
“अरे काकी, ये मैने क्या सुना है तुम्हारे बहू के मायकेवालों के बारे में?” – रसोई में काम करती सुलोचना की तरफ इशारा करते हुए रमा ने अपनी भौवें मटकाते हुए कहा।
“बहुत बुरा हुआ इसके मायकेवालों के साथ! इतनी कम उम्र में इसकी छोटी बहन दुनिया से चली गई और उसे बचाने की खातिर बाप भी अपनी जान से हाथ धो बैठा। ...और एक ये है, न जाने कबतक मेरी छाती पर मूंग दलेगी! सच बताऊं तो अब मुझे यकीन हो गया है इन सबमें इस सुलोचना का ही कसुर है! ये है ही मनहूस, जिससे भी इसका सम्बंध रहेगा उसका जीवन भला कैसे खुशहाल रह सकता है! अरे... ओ कलमुंही, कहाँ मर गई! शर्बत आ भी जाएगा या फिर मेहमान अगली बार आएंगे तब लेकर आएगी!” – जहरबुझे स्वर में बुढ़ी आभा ने सुलोचना को आवाज लगाया।....
“जी मां जी, बस ले आयी! क्या री रमा, कैसी है तू? बहुत दिनों के बाद इधर आना हुआ तेरा! घर पर सब कैसे हैं?”- रमा की तरफ शर्बत बढ़ाते हुए सुलोचना ने उसका हालचाल पुछा।
“तेरी मां कैसी है, सुलोचना? सुना है वो पेट से है! पर उसका बच्चा...??” – रमा ने कहा तो उसकी बातों को बीच में काटते हुए सुलोचना असहज होती हुई बोली – “अ अरे...रमा! बातें तो होती रहेंगी... पहले शर्बत तो पी! इतने दिनों बाद आयी है!”
पर सुलोचना की सास आभा ने रमा की बातें सुन ली थी और वह भला कैसे चुप रहती। भौवें तानते हुए वह बोली –“हैं...!!! ये मैं क्या सुन रही हूँ!! अरी सुलोचना....सारी बेटियों को ब्याहकर अब तेरी मां फिर से बच्चा जनने चली है! छी...छी!”
उसकी बातों का सुलोचना ने कोई जवाब न दिया और काम का बहाना बनाकर रसोई के भीतर चली आयी।
“अरी काकी...तू तो बड़ी भोली है! तुझे तो खबर ही नहीं रहती कि बाहर क्या-क्या हो रहा है! कुछ पता भी है सुलोचना की मां के पेट में जो बच्चा पल रहा है वो.....” – रमा अभी आभा के कान भर ही रही थी कि तभी अपनी साईकिल खड़ी कर विनयधर घर के भीतर दाखिल हुआ।
“अरी रमा....!! इतने दिनों बाद? और बता? कैसी है तू! तेरे पति का क्या हालचाल है?” – कपड़ों का गट्ठर एक तरफ रखकर विनयधर ने पुछा।
“हाँ भैया! घर के कामकाज से फुरसत ही नहीं मिलती कि मायके का रुख कर पाऊं! कई दिनों से आने की सोच रही थी! बड़ी मुश्किल से मौका निकालकर इधर का रुख किया है। ये भी आएं है। घर पर हैं अभी! आओ कभी घर पर, जरा अपने जमाई जी से भी मिल लेना!” – रमा ने कहा और शर्बत का गिलास उठाकर अपने मुंह से लगा लिया।
“ठीक है काकी! आउंगी फिर कभी! अभी तो हूँ यहाँ कुछ दिन!” – रमा ने कहा और अपने घर को लौट गई। विनयधर भी हाथ-मुंह धोकर अपने कमरे की तरफ बढ़ने लगा।
“विनयधर, जरा इधर आना!” – अपने बेटे को आवाज लगाते हुए आभा ने कहा।
“क्या हुआ मां? बोल?” – कपड़े से अपना हाथ-मुंह पोछते हुए विनयधर ने पुछा और अपनी मां के पास ही आकर बैठ गया।
“ये मैं क्या सुन रही हूँ तेरे ससुरालवालों के बारे में? रमा बता रही थी कुछ...कि तेरी सास पेट से है! कुछ लाज-शरम बची है कि सब घोर के पी गई!!” – आभा ने कहा तो विनयधर असहज हो उठा।
“तू भी न...मां! कहाँ सुनी-सुनाई बातों में आ जाती है! अच्छा, अभी मैं अपने कमरे में जाता हूँ! बहुत थका हुआ हूँ!” – विनयधर ने कहा और उठकर अपने कमरे की तरफ बढ़ने लगा। रसोई के दरवाजे पर खड़ी सुलोचना ने अपनी सास की सारी बातें सुन ली थी। विनयधर ने पलकें झपकाकर उसे अपना मन शांत बनाए रखने को कहा और एक गिलास ठंडा जल लेकर आने को बोला।
“मां की बातों से अपना मन भारी मत करना! उसकी तो आदत ही है उलजलूल बातें करने की!!”- कमरे में प्रवेश करती सुलोचना से विनयधर ने कहा। पर सुलोचना ने उसकी बातों का कोई जवाब न दिया और पानी का गिलास आगे कर दिया।
विनयधर ने हाथ आगे बढ़ाकर गिलास थामा और एक ही सांस में पुरी गिलास कंठ के नीचे उड़ेल ली। फिर बड़े प्यार से सुलोचना का हाथ पकड़ उसे अपने पास बिठाया और बोला – “अब जो हो गया, सो हो गया! बच्चे भगवान का रूप होते हैं! जो बच्चा इस दुनिया में आ रहा है, उसका इन सबमें क्या कसूर! तू चिंता मत कर! लगता है रमा ने मां के कान भरे हैं। इसलिए मां ऐसी बातें कर रही थी! कुछ खाने को है तो ला! मुझे बड़ी जोरों की भूख लगी है! गर्मी में फेरी लगाते-लगाते आज हालत पस्त हो गई!” उसकी बातें सुन सुलोचना उठी और चिंतित होकर रसोई की तरफ बढ़ गई।...

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