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उन्नती

“सत्य को अपने ही जिस्म में ऐसी जगह छुपाते है कि, वह किसी को नजर न आये और अगर जिस्म टटोला भी जाये तब भी उसके होने का एहसास न हो. उपर से असत्य के इतने कपडे, गहने और मेकअप करते है कि, देखने वाले बस उसकी चकाचौंध में ही गुम हो जाये. सत्य को ढुंढने की कोश‍िश भी न करे. आज यहाँ हर इन्सान कुछ इसी तरह से जी रहा है, हर कोई… हर कोई…!” पुल‍िस स्टेशन के लॉकअप में सलाखों के पीछे बदहवास सी अपने ही पैरों के घुटनों पर अपना स‍िर टिकाकर दोनों हाथों से अपने पैरों को लपेट कर बैठे हुये उसी पुल‍िस स्टेशन की दिवार पर सामने बड़े बड़े अक्षरों में लिखे हुये ‘सत्यमेव जयते’ को टकटकी लगाये देखते हुये यही सोच रही थी.

आज उन्नती के यहीं मायने भी बन गये है. जितना अधिक झुठ आप बोलते हो, जितनी सफाई से बोलते हो उतना आपका फायदा होता है. आप एक सामान्य-सा झुठ बोलकर मुफ्त की यात्रा तक कर लेते है. और, जब यही झुठ आप पुरे देश के सामने विकराल रुप में और सफाई से बोलते हैं तो, आप लोगों के दिलों पर राज करने लगते हैं. वे मुर्ख आपके हाथों में सत्ता तक सौंप देते है. हो गई आपकी उन्नती. यही इस देश का आज का सबसे बड़ा सत्य है. जिसे कोई स्वीकारना नहीं चाहता. यह सत्य कई असत्य परतों के नीचे दब चुका है. उसकी ऐसी हालत है कि, वह कसमसा भी नहीं रहा है. जिससे पता चले की वह अभी जिन्दा है.

बड़े बे-स‍िर पैर की बातें कर रहीं हूँ न! जिसका कोई लॉजीक नहीं. यह तब समझ में आयेगा जब मेरी पुरी दास्तान आपके सामने आयेगी. मै कौन हूं ? क्या थी ? क्या बनी  ? और अब इस लॉकअप में क्या कर रहीं हूँ ?  कैसे लॉकअप तक पहुंची ?  जब तक इन सवालों के जवाब मै देती नहीं, तब तक तो शायद ही समझ में आये.

मै एक छोटे से शहर में एक सामान्य से परिवार में जन्म लेने वाली लड़की हूं. जैसे सभी की होती है वैसे ही मेरी भी परवर‍िश हुई. मेरे मां-बाप ने मुझे लाड प्यार से ही पाला. अपनी हैसीयत के हिसाब से जो उनकी नजर में अच्छा था, ऐसे स्कुल में पढ़ाया. इस देश में बेटीयों को बोझ समझा जाता हैं. यहाँ हर कोई यही कहता है… नहीं.. कहता नहीं.., कहता तो कुछ और है. बस मानता है कि बेटीयां बोझ होती है, पर कहता है बेटीयां तो लक्ष्मी होती है. कितना झुठ बोलता है समाज, यहाँ के लोग.

खैर, कहानी आगे बढ़ाते है. देखते देखते मैने अपना ग्रॅज्युएशन पूरा किया. बी.एस्सी. की डिग्री हाथ में थी. पर नौकरी की जगह मेरे लिये ससुराल ढुंढा जा रहा था. पिता परेशान थे की शादी का खर्च, दहेज का बंदोबस्त कहाँ से होगा. रात दिन इसी उधेडबुन में रहते. ठीक से सोते भी थे या नहीं पता नहीं. और मां का चिंता और परेशानियों से घिरा स्वर आज भी कानों में गुंजता है, “लडकी की उम्र निकली जा रही है. फिर कौन इससे शादी करेगा. मोहल्ले के आवारा तो नोंच खाने के लिये तैयार ही बैठे है. बाहर निकलते ही इनका घुरना शुरु हो जाता है. पता नहीं क्या देखते है मुये. कपडों के अंदर तक इनकी नजरे चुभती हुई महसूस होती है और आप को तो चिंता ही नहीं, बस बेटी पढ़ रही है उसे पढ़ने दो. अरे…! क्या करेंगी पढ़ लिखकर कर. मांजना तो बर्तन ही है. पर नहीं, अब देखों परेशानी, ढुंढने से भी कोई अच्छा वर नहीं मिल रहा. पढ़ा लिखा नौकरी वाला तो ऐसे मुंह फाडे हुये है की बस.. एक ही घुंट में पुरा समन्दर पी जायेगा. यहां तो कुंए से एक बाल्टी पानी निकालने के लिए भी कडी मशक्कत करनी पड रही है.

ढुंढो तो भगवान भी मिल जाते है की तर्ज पर एक रिश्ता मिल ही गया. “अच्छा है, बहुत अच्छा है” कह तो सब यही रहे थे. पर वह एक ऑटो चालक था. दसवी फेल. मां-बाप और एक छोटी बहन के साथ रहता था. बहन छोटी थी और मां किसी लोकल प्ले स्कूल में सुबह सात बजे ही चली जाती थी. घर का सारा काम, खाना बनाना, कपडे, बर्तन सब वैसे ही पड़े रहते थे. उन्हें मुफ्त की कामवाली चाहिये थी. बस…. मै मिल गई जो साथ में दो लाख रुपये भी लेकर आयी थी. 55 साल के ससुर बिमार ही रहते थे. इसीलिए कोई काम नहीं करते थे. बिस्तर पर पडे रहना और शाम को अपने हमउम्र दोस्तों के बीच जाकर बैठना और वापसी में लडखडाते कदमों से घर आना यही उनका दिनक्रम था.

शादी पुरे रितीरिवाजों के साथ संपन्न हुई. विशेषकर लेना-देना एकदम सही. जो बोला गया वह नाप तोलकर देखा वर पक्ष ने. लग्नविधी के लिये भले ही समय कम-ज्यादा…. नही… नहीं… बहुत ज्यादा लगा हो, उसकी किसी ने कोई परवाह नहीं की. ससुराल पहुंची तब पहली बार देखा अपने सपनों के महल को. रेल्वे लाईन के किनारे बने कच्चे पक्के झुग्गी झोपड़ेनुमा मकानों के बिच में था वह, दो कमरों का ईट गारे से बना और टीन की छत वाला वह मकान. दिवारों पर कई जगहों से प्लास्टर उखडा हुआ था. अजीब सिलनयुक्त गंध फैली हुई थी. किचन में हम पति-पत्नि की सोने की व्यवस्था कर दी गई थी. बाकी तो सारे ही मुख्य कमरे में सो गये थे. जब भी ट्रेन गुजरती पुरा मकान हिलता हुआ महसुस होता था.

पती जब पास पहुंचा तो शराब की गंध का भपका मेरे नथुनों में समा गया. लगा अभी उल्टी हो जायेगी. वे बोले, “अरे यार…. दोस्तों ने जबरदस्ती पीला दी… क्या करता… खुशी का मौका था” उसके बाद तो यह खुशी का मौका रोज ही बनने लगा. मुझे आदत हो गई थी. अब उस गंध से मुझे कोई परेशानी नहीं होती थी. यही जीवन है और यही जीवन का सत्य इसे स्वीकार कर लो जीवन आसान हो जाता है, इस फलसफे को सच मानकर अपनी जीन्दगी को आगे बढ़ने दिया.

पाच लोगों का परिवार, दो कमाने वाले लेकिन फिर भी घर की दर‍िद्रता कम नहीं हो रही थी. ज्यादातर पैसा ससुर और पत‍ि की शराब में चला जाता. मेरे पिता ने जो दो लाख दिये थे. उस बारे में मै आज तक नहीं जान पायी की वे कहाँ चले गये. कैसे खर्च हुये. एक-एक साड़ी तक के लिए तरस जाती थी. वे कुछ भी खरीद कर नहीं लाते. सास जो पैसे कमाती उससे ही घर का किराना, सब्जी आती थी. बहुत बार मांगने पर पति कुछ रुपये हाथ में थमा देते थे. उन्ही पैसों से पुराने बाजार से अपने लिये कपडे खरीद लाती. सास ने ही दिखाया था वह बाजार. साडी, चोली से लेकर तो आधुनिक ढंग के सभी तरह के कपडे मिलते थे उस बाजार में, इस्तेमाल किये हुये.

देखते देखते साल बित गया. घर का सारा काम करने में वक्त कैसे बितता था इसका पता नहीं चलता. मेरी खुद की सेहत भी गिरने लगी थी. जहां मां-बाप के घर में खाते पीते घर की बेटी थी. वहीं, यहाँ बरसों की भुखी, हड्डीयों का ढाँचा बनकर रह गई थी. और इसी हड्डीयों के ढाँचे में एक जीव पनपने लगा था. पतले पतले हाथ पाव, गाल पिचक से गये थे पर पेट… पेट ऐसे फुला था मानो एक नहीं दो बच्चे अंदर पल रहे है. सास परेशान हो गई थी कि अब खर्चा और बढ जायेगा और इसका भी करना पडेगा. अत: उसने बिना कुछ कहे मायके जाने की इजाजत दे दी. वैसे भी पहला बच्चा तो मायके में  ही पैदा होता है, इस रिवाज का पालन भी करना था.

हाथ में देढ़ महिने की बच्ची लेकर फिर ससुराल आयी. आते ही कामों में जुट गई. ननंद थोडी बहुत सहायता कर देती थी. उसे जितना बताओं उतना काम वह कर देती. आठ-नौ साल की बच्ची से और क्या अपेक्षा करती. उसके लिये मेरी बच्ची एक जीता जागता खिलौना थी. वह दिन भर उसे संभालती उसके साथ खेलती और मै अपने सारे काम निपटाती थी.

देखते देखते सात वर्ष बित चुके थे. ननंद पढाई में तेज न थी अत: वह पंद्रह की होने पर भी सातवी कक्षा में ही थी. अब वह मेरी बेटी के साथ कम और घर से बाहर समय ज्यादा बिताने लगी. उसके स्कुल बैग में किताबों की जगह मेकअप का सामान ही ज्यादा रहने लगा. हरदम सज-संवरकर रहती. अलग-अलग रंग की लिपस्टीक, आई लाइनर, मस्करा, विभीन्न तरह के ब्रश इत्यादी उसके बैग में रहते. इतने महंगे मेकअप के सामान वह कहाँ से लाती थी यह मुझे पता नहीं. मैने कई बार कोशिश की पर उसने बताया नहीं. खुलासा तब हुआ जब एक महिला पुलिस घर पर उसे ढुंढते हुये आयी. उस समय मेरी ननंद घर पर नहीं थी. मुझसे उसकी जानकारी लेकर महिला पुलिस जाने ही वाली थी कि, मैने भी पुछ लिया, “मॅडम, क्या किया है उसने” वह बोली, “चोर है आपकी ननंद. श्रृंगार के दुकान से मेकअप का सामान चुराते हुये सीसीटीवी में उसकी फुटेज है.”

बात आगे और बढे उससे पहले मेरी सास ने इधर उधर से उधार लेकर पुलिस को बीस हजार रुपये दिये और मामला रफा दफा कर दिया. घर में ननंद को खुब पीटा, यहां तक की उस पर अपनी लाते बरसाई. और गंदी-सी गालियाँ देते हुये बोली, “पहले ही यहां घर में खाने को नहीं और महारानी को संजना-सँवरना है. अरे किसे दिखायेगी ये खुबसुरती..? कौन-सा तेरे लिये राजकुमार आने वाला है. हमारी तरह कोई बेवड़ा ही मिलेगा तुझे और फिर यही चुल्हा चौका और बच्चे पालने है. पहले ही कर्ज का बोझ और अब उपर से ये बीस हजार और. पता नहीं कहाँ से चुकायेगे इतना कर्ज. बाप तो कमाता-धमाता कुछ नहीं, दिन पर पीकर पड़ा रहता है और भाई है, पता नहीं रिक्शा चलाकर कुछ कमाता भी है या नहीं. घर में एक धेला तक नहीं देता. लेकिन रोज रात को पीने के लिये इनके पास पैसे बराबर आ ही जाते है.”

यह सारी मुश्किले कम थी जो एक नई वैश्विक मुसीबत आन खड़ी हुई. कोरोना ने जैसे सारी दुनिया के अर्थचक्र को रोक दिया था. देश और दुनिया में सब कुछ बंद होने लगा. हाथों से काम छुटने लगे. जहाँ आलस‍ियों के लिए यह बहुत अच्छी बात थी तो कर्जदारों के लिए एक नया सिरदर्द. मेरे ससुर और पति दोनों घर पर ही रहने लगे. सास का प्ले स्कुल बंद हो गया. उसके हाथों से काम छुट गया. एक समय खाना और एक समय भुखा रहना, धीरे धीरे यह दिनक्रम बन गया.

मै मेरे मायके से कुछ रुपये उधार लेकर आयी पर उनकी भी मर्यादा थी. इस कोरोना की तंगी वाली मुसीबत से वे भी जुझ रहे थे. रिश्तेदारों के घर जा जाकर मेरी सास अपना नाक रगडते हुये, गिडगिडाते हुये पैसों की भीख मांग रही थी. उसकी चिडचिडाहट बढ़ गई थी. घर के सभी लोगों पर उसकी गंदी गालियों की बौछार दिन-रात होने लगी.

मै अपनी सात-आठ वर्ष की बच्ची को भुख से बिलखते देखती रहती. पर हताश होकर रोने के सिवा और कुछ नहीं कर पा रही थी. वह दौर ऐसा था की कोई हमे कपड़े बर्तन धोने के काम पर भी रखने को तैयार न था. ऑटो बेचने निकले तो उसके लिये खरीददार मिलना मुश्किल, उपर से वह कर्जे पर था. फायनान्स कंपनी के फोन आते और धमकाते की इएमआय भरो वरना ऑटो उठाकर ले जायेंगे.

मेरे पति और ससुर शाम को उस कर्फ्यु सदृश्य स्थिती में भी बाहर निकल जाते थे. रोज तो नहीं पर कभी कभार वे शराब पीकर ही घर आते थे. जिस दिन भी उनका जुगाड़ होता वे बराबर पीकर आते. जिस दिन जुगाड नही उसी दिन वे बिना शराब पिये लौटते, हम यही समझ रहे थे. लेकिन वे लोग शराब नहीं, सॅनिटायझर में कुछ और मिलाकर पीकर आ रहे थे. एक दिन इसका असर होना ही था. दोनों न जाने इस बार कौन-सा सॅनिटायझर पीकर आये. दोनों की हालात खराब हो गई. घर में आते ही उलटी पर उलटी करने लगे. उन्हें सरकारी अस्पताल में ले जाया गया. पर वे वहाँ से अपने पैरों पर घर वापस आने की जगह चिरफाड हुई लाश के रुप में घर वापस आये. घर क्या.. सिधे ॲम्बुलन्स से स्मशान भूमि में लाये गये. पूरी स्मशान भूमि हाऊसफुल थी. लकड़ीयों की कमी थी. कोरोना से मरने वालों की चिताएं जल रही थी. डिझल शवदाहीनी के बाहर कतार लगी हुई थी. दो बजे स्मशान भूमी पहुंची हुई लाश शाम सात बजे डिझल शवदाहीनी में डाली गई और हमारे हाथों में राख की छोटी छोटी दो पोटली थमा दी गई.

बाहर निकलना और अस्थि विसर्जन के लिये नदी पर ले जाने के लिए परमिशन तथा खर्चा अब हमारे बस का नहीं था. वैसे भी कौन-से रिश्तेदार आने वाले थे. सो सास बोली, “सारी जिन्दगी इन्होंने गटर ही पिया है. इनकी राख भी गटर मे ही मिला देते है. वहीं इनकी आत्मा को शांति मिलेगी. कौन क्या कहता है इसकी अब क्या परवाह करुं. मेरे सर पर पहले ही कर्ज का इतना बोझ है अब और सह नहीं सकती”

मेरे पिता ने मेरी सास को समझाने की कोशिश की पर मेरी सास अडी रहीं. बोली, “समधी जी, आखिर इस राख को पानी में ही बहाया जाता है, वैसे भी हम जिस नदी पर जाते है वहां का पानी भी क्या यहाँ के नाले के पानी से साफ है. पानी के करीब जाते ही बदबू आती है. कोई भी उस पानी से कुल्ला नहीं करता. मजबुरी में लोग अपना नाक-मुँह बंद कर उसमें डुबकी मारते है और फिर अब तो वहाँ इतनी भीड़ होगी की पुछो मत. आने जाने का खर्चा होगा वह अलग. और यहाँ पुरुष बचा कौन है जो परंपरागत तरीके से सारी विधीयाँ करे”

सास के इस तर्क पर मेरे पिता भी चुप रह गये. अत:  हमारे घर से थोड़ी दूरी पर बह रहे नाले में जाकर ही हमने उनका अस्थि विसर्जन किया. उसके आगे के कोई भी कार्यक्रम नहीं हुये. कोरोना ने इस खर्च से हमे बचा लिया था. पर इस तरह अस्थि विसर्जन करने पर मन में कहीं ना कहीं बहुत दुख था.

देश की परिस्थिती कुछ सुधरने लगी थी और हमारी बिगडने. धीरे-धीरे शहर दौड़ने लगा था. लोग अपने अपने काम पर जाने लगे. मेरी सास का प्ले स्कुल अब भी बंद था इसीलिए कोई वेतन नहीं मिल रहा था. इस समय सास को कोई कुछ भी काम बता देता, वह कर देती और जो मिल जाता वह लाती. देनदार आये दिन दरवाजे पर खड़े हो जाते और अपना पैसा मांगते. कुछ न मिलने पर गालियाँ देते हुये लौट जाते. घर में कोई किमती सामान भी न था. ना टीवी, ना फ्रिज, ना सोफा, ना कुलर कुछ भी तो नहीं. थोड़े बहुत खाना बनाने के बर्तन और गॅस चुल्हे के सिवा कुछ न था. बाहर मेरे पति का ऑटो रखा था. उसे भी फायनान्स वाले लेकर चले गये थे.

पहली बार मेरी सास ने मुझसे कहा, “बहु घर के हालात तो तुम देख रहीं हो, अब अपने बच्ची को छोड़ो और बाहर कुछ काम मिलता क्या देखों. मै खुद भी बहुत थक गई हूं. मुझसे लोगों के बर्तन, झाडू, पोछा वाले काम नहीं होते. तुम पढ़ी-लिखी हो, तुम्हे कोई नौकरी मिल जायेगी तो घर में चार पैसे आयेंगे. थोडा कर्जा कम होगा” सास के मुँह से यह बात सुनकर मै स्वयं अवाक् रह गई. रिश्ता करते समय उसे सिर्फ घर का कामकाज करने वाली बहू चाहिये थी. नौकरी वाली बहुएँ आवारा, बदचलन और घमंडी होती है तथा पुरे परिवार को अपनी मुठ्ठी में रखना चाहती है, ऐसा उनका मानना था. जबकि वे स्वयं प्ले स्कुल में नौकरी करती थी.

बत्तीसवें वर्ष में मै पहली बार अपने घर से बाहर निकली थी, नौकरी की तलाश में. क्या करना, कैसे करना कुछ भी पता नहीं था. सबसे पहले मुझे यह देखना पड़ा की मेरी कौनसी सहेली, चाहे बस्ती की हो या कॉलेज की, नौकरी कर रही है. मैने अपने मायके जाकर पहले इस बात का पता लगाया और उनसे बात की. ज्यादातर लड़कीयाँ शादी करके अपने ससुराल में गृहीणी जीवन ही बिता रही थी. और जो छोटी मोटी नौकरी कर रही थी, वे इस समय खुद बेरोजगार थी और नई नौकरी की तलाश में थी. आस पड़ोस की अन्य महिलाओं से बात की, हमारे बस्ती के गणमान्य समाजसेवकों के सामने लडखडाते हुये खड़ी हुई. उन्हें अपनी तकलीफ बताकर मदत की गुहार की, कहीं नौकरी मिलती क्या पुछा. आखिर एक तथाकथित समाजसेवक मेरी मदत को तैयार हुआ.

सबसे पहले उसने मुझे अपना बायोडाटा बनाने को कहा. वह खुद मुझे अलग-अलग निजी कार्यालयों में लेकर जाता. वहाँ के संचालकों से बात करता. लेकिन बात बन ही नहीं रही थी. एक दिन उसने मुझे संदेशा भेजा की किसी बिल्डर के पास ऑफिस में काम करने के लिये लड़की चाहिये. उसके बताये ठिकाने पर पहुंची तो वह बोला, “अरे भाभी आप आ गई, लेकिन बिल्डर ऑफिस में नहीं है मेरी उससे फोन पर बात हुई है. वह अपने कन्स्ट्रक्शन साईट पर गया हुआ है वहीं पर मिलने बुलाया है, चलो मेरे साथ” मै उसके साथ हो ली.

वह मुझे शहर के बाहर एक कन्स्ट्रक्शन साईट पर लेकर गया. जहाँ एक उंची इमारत का ढाँचा बनकर तयार था. करीब छ: माले तक पिलर खडे थे. कही पर ईटों की पूरी दिवार बन कर तयार खड़ी थी तो कहीं पर आधी. साईट पर कोई भी मजदूर नहीं था. वह मुझे, “आओ भाभी, आओ भाभी” कहता हुआ पाँचवे माले तक लेकर गया. यहां पर एक टेबल और कुछ फायबर की कुर्सियाँ रखी हुई थी सिमेंट की कुछ बोर‍ियाँ और बजरी तथा रेत का ढेर एक ओर लगा हुआ था. वहीं पर एक कोने में मैली सी चादर बिछी हुई थी और मजदुरों के काम में आने वाले हथियार, साहित्य पड़े हुये थे.

“यहां पर कोई भी नहीं है भैया” मेरे इतना कहने पर वह बोला, “अरे भाभी शायद सर पहुँचने के होगे तब तक तुम बैठो मै फोन करता हूं” उसने फोन किया और कुछ देर बातें करने के बाद बोला, “भाभी आराम से बैठो, बस अभी सर आ ही जायेगे.”

मै सकुचाती हुई वहां रखी एक फायबर चेयर पर बैठ गई तब वह मेरे एकदम करीब आया और बोला, “भाभी आपके पति को मरे हुये तो आठ-दस महिने हो ही गये है. क्या तुम्हे किसी की जरुरत नहीं पड़ती” कहते हुये उसने अपना हाथ मेरे कंधे पर रख दिया. मै एकदम से डर सहम गई. पर उसका हाथ हटाने की हिम्मत न हुई. तो उसकी हिम्मत और बढ़ी.

मुझे नौकरी चाहिये थी और वह मुझे नौकरी दिलाने वाला था. दूसरे, यह मेरे लिए एकदम नया अनुभव था. आज तक ऐसे किसी भी पुरुष से मेरा सामना नहीं हुआ था. घर के बाहर ऐसे किसी माहौल में मैने पहले कभी कदम ही नहीं रखा था. घर और बाजार के सिवा कहीं गई नहीं थी. अब उसका हाथ और आगे बढा कंधे से नीचे होते हुये मेरे सिने की ओर. मै एकदम से खड़ी हो गई तो उसने मुझे अपने दोनों हाथों से पकड़ लिया और अपनी बाहों में भिंच लिया. मै कसमसाकर रह गई. चिखना चाहा तो उसने मेरा मुंह बंद किया और आगे मुझे वहाँ कोने में रखी मैली-सी चादर पर पटक कर अपनी मनमानी करता रहा.

यह पहली बार था जब मेरे पति के अलावा किसी अन्य पुरुष ने मुझे भोगा था. उसने मेरे हाथों में दो सौ रुपये थमाये और बोला, “भाभी आप चिंता मत करो, आपकी यहाँ नौकरी पक्की है. शर्त यही की यहाँ जो कुछ भी हुआ वह किसी तिसरे को पता न चले.” उसकी बात सच थी. मुझे उसी बिल्डर के ऑफीस में चार हजार रुपये महिने से नौकरी मिल गई थी. उस तथाकथित समाजसेवक के काले सच को मैने भी अपनी उस मजबुर नौकरी के परतों में कहीं छुपा दिया था. दूसरे, मुझे अपनी खुद की बदनामी का डर भी था. अत: वह सच और ज्यादा गहराई तक छुपता चला गया.

सुबह दस बजे घर से निकलती और शाम सात बजे तक घर लौट आती. चार हजार में से देढ़ हजार रुपये बस के किराये में चले जाते. ढाई हजार में क्या खाते और क्या पहनते. कर्जा चुकाना तो दूर रहा. सास बोली, “अरे बहू, तुम्हारी पढ़ाई-लिखाई का क्या यही मोल है, महिना ढाई हजार. अरे ! इससे तो अच्छा पड़ोसी की बाई कमा रहीं है. चार घर के बर्तन मांजकर पुरे बारह हजार रुपये लाती है. और मै भी एक घर से तीन हजार ला ही रहीं हूँ, वह भी सिर्फ तीन-चार घंटे काम करके. चुल्‍हे में डाल अपनी डिग्री और कॉपी-किताबे. मेरी मान तो तु भी बर्तन पोछा वाला काम देख ले. मुझसे यह काम होता तो मै ही करती. मेरा एक ही घर में काम करके बुरा हाल हो जाता है, चार घर नहीं संभाल सकती.

            सास की बात में दम था, एक कड़वी सच्चाई थी. पढ़ाई के बलबुते कोई नौकरी तो मिलने से रही और जो मिली है उससे एक का खर्चा पुरा नहीं होता यहाँ चार महिलाएं थी. मेरी अपनी बेटी भी स्कुल जाने लगी थी. सपने तो थे कि किसी अच्छे पब्लिक स्कुल में पढ़ाऊ पर हालात ऐसे न थे. अत: पास के सरकारी स्कुल से ही उसकी शिक्षा का सफर शुरु करना पड़ा. 

            मेरी सास के कहने पर मै एक हाऊसकीपिंग एजेन्सी के दफ्तर कई. दफ्तर क्या था. वह भी एक घर ही था. जिसके एक कोने में टेबल कुर्सियां लगाकर रखी हुई थी और एक कंप्युटर रखा हुआ था. जब जाओं तब वह एजेन्सी का मालिक मिलता ही नहीं था. आखिर उसकी पत्नी के फोन से उससे बात की. उसने मुझे किसी अस्पताल में झाडू पोछा लगाने के लिए काम पर रखने की बात की. कोरोना महामारी से सभी अभी अभी उभरे थे. अस्पताल का नाम सुनकर डर लगा, यहाँ नौकरी जाने का खतरा कम, पर बिमार पड़ने का खतरा ज्यादा था. मरती क्या न करती, हामी भर दी.

बिल्डर की क्लर्क की नौकरी छोडकर अस्पताल में झाडू पोछा लगाने की नौकरी ज्वॉईन कर ली. यह कोई परमनन्ट नौकरी नहीं थी. बाद में पता चला, एजेन्सी के मालक के पास एक नहीं कई अस्पताल के ठेके थे. वह अपने पास काम करने वाली बाई और आदमीयों को किसी भी अस्पताल में भेजता था. जहाँ सुबह-शाम जाकर साफ-सफाई, झाडू-पोछा करना होता था. जिस दिन की हाजरी उस दिन की रोजी रुपये तीन सौ रजिस्टर में चढ जाते थे.

            बिना छुट्टी तीस दिन काम करो तो सीधे-सीधे नौ हजार हाथ में आने लगे. उस पर भी यदी डबल डयुटी करो तो वहीं रक्कम बढ़ जाती थी. जबकी उन्ही अस्पतालों में दूसरी पढ़ी-लिखी लड़कीया फ्रन्ट ऑफिस का काम कर रही थी. उन्हे छ: हजार से दस हजार तक ही सैलरी मिलती थी. वह भी पुरे आठ घंटे काम करने के बाद. और वे जो नर्स तथा दायी का काम कर रही थी, जिसमें किसी ने ए.एन.एम., जी.एन.एम.  तो किसी ने बी.एस्सी. नर्सींग किया हुआ था. उन्हें भी आठ से दस घंटे काम करने पर दस से पंद्रह हजार रुपये ही मिलते थे. छुट्टी लेने पर इनकी सैलरी में से पैसा भी काट लिया जाता था.

            यह सब देखकर मुझे लगने लगा इनसे बेहतर तो मै हूं. यदी, आठ घंटे काम करती हूं तो अठारह हजार मेरे हाथ में आ जाते है. पर इतना समय देना और एक से दूसरे अस्पताल में दौड़कर जाना थका देता था. अत: उतना काम नहीं कर पाती फिर भी अब मै महिने में बाहर हजार कमा ही लेती थी. नया मोबाईल खरीद लिया था. ताकी एजेन्सी के मालिक से अपने काम संबंधी बार-बार बात होती रहे. वह फोन करके किसी भी अस्पताल में भेज देता था.

            घर में पैसे आने शुरु हुए थे. अब पुराने कपडों की जगह नये कपडे पहनाना शुरु किया था. पर स‍िर पर लाखों का कर्जा था जो मेरे ससुर और पति ने करके रखा था. उसे भी चुकाना था, देनदार बार-बार दरवाजे पर आते ही रहते थे. उनका तगादा बढ़ गया था.

मेरी ननंद जो घर से बाहर रहने में ज्यादा माहिर थी उसका एक प्रताप सामने आया. उसकी तबीयत खराब हुई. मै उसे बस्ती के एक क्लिनीक में लेकर गई. डॉक्टर ने जांच कर बताया की यह दो महिने की गर्भवती है. स‍िर पिटने के अलावा क्या करती मै. जोर से अपनी हथली अपने माथे पर मारी. गुस्से से ननंद की ओर देखा, उसका चेहरा निर्विकार था, कोई भाव नहीं, जैसे कुछ हुआ ही नहीं. घर में आकर सास को यह बात बताई तो उसने पहले उसे खुब गालियां दी. उस पर ताडताड तमाचे जड़ दिये और रोना शुरु किया. पर ननंद पर इन सब का कोई असर ही नहीं हुआ.

            सास बोली, “अरी.. बदचलन ! किसका पाप पेट में लेकर घुम रही है. अभी सिर्फ सतरा की है तू, बोल… बोल किसके साथ मुँह काला किया ? कौन कमिना है वह ?” कहते कहते अपने दोनों हाथो से उसे पिट भी रही थी. आगे बोली, “पुरी बस्ती में जब यह बात पता चलेगी तो क्या मुँह दिखायेगे लोगों को” ननंद चुप.

            मै भी जैसे पत्थर की मुरत बन गई थी. कुछ सुझ नहीं रहा था. तभी पड़ोस की एक औरत आयी सारा माजरा उसके सामने उजागर हो गया. तब उसी ने मुझे एक तरफ ले जाकर कुछ ऐसा बताया जिस पर मै विश्वास भी नहीं कर सकती थी कि ऐसा भी होता है. वही बात मैने अपनी सास से कहीं, मेरी सास की आंखे भी चमकने लगी. उस औरत ने बड़े प्यार से मेरी ननंद से बात की और लड़के का नाम पुछा. लड़का हमारी बस्ती से कुछ ही दूरी पर संभ्रात बस्ती का रहने वाला था. अपने मां-बाप का इकलौता, बिगडेल और महंगी गाडीयां घुमाने वाला उन्नीस साल का युवक था. मेरी ननंद को अपने शौक पुरे करने थे इसीलिए उसने उस लडके को अपने झांसे में लिया था. उसके साथ मोटरबाईक पर दिन भर इधर उधर घुमना, फिल्में देखना, होटल में जाकर खाना, बदले में वह उसके साथ किसी भी लॉज पर चली जाती थी. उसके मेकअप का सामान भी वह लड़का खरीदकर देता था. एक महंगा पर सेकंड हैंड मोबाईल भी खरीद कर दिया था.

            उस पडोसी औरत के साथ हम सभी उस लडके के घर पहुंचे. इस इरादे से की हम शादी की बात करेंगे यदी वे लोग शादी के लिए तैयार ना हुए तो एक-दो लाख रुपये लेकर समझौत कर लेंगे. लड़के के माता-पिता से मिलकर हमने उन्हें बताया की आपके बेटे ने हमारी बेटी को गर्भवती बनाया है. आप इन दोनों की शादी कर दो. वे लोग पैसे वाले थे. वे किसी झोपडपट्टी के परिवार से कैसे रिश्ता जोड़ते. अत: उन्होंने साफ मना कर दिया. लड़का भी मुकर गया की उसने लड़की के साथ कुछ किया है. काफी समय तक बहस होती रही. वे किसी भी बात को मानने से मना करते रहे. हमारी उनसे पैसे वसुलने की साजिश नाकाम हो रही थी. बहस झगडे में तब्दील हो गई. मां-बहन की गालियों की बौछार दोनों ओर से होने लगी. यहां तक की लड़के का गर्म खून खौल उठा और उसने मेरी सास पर हाथ तक उठा लिया. वहाँ से भागने के सिवा हमारे पास कोई दूसरा रास्ता नहीं था.

            हम सीधे भाग कर पुलिस स्टेशन पहुंचे. जहाँ एक सत्रह साल की युवती को बिना शादी गर्भवती बनाने के लिए उस युवक पर बलात्कार की केस दर्ज कराने. पुलिस वाले ने हमे उपर से नीचे तक देखा और अपने सामने रखे रजिस्टर पर लिखने लगा. हमने बताया की पड़ोस के बस्ती के एक अमीर लड़ने ने हमारी नाबालिग बेटी को शादी का झांसा देकर उसका शारीरिक शोषण किया और उसे गर्भवती बनाया है. पुलिस ने लड़के का नाम, पता नोट किया और दो हवालदारों को लड़के को पकड़ कर लाने भेजा. आधे घंटे बाद ही वह लड़का और उसके माता-पिता तथा साथ में कुछ और लोग भी वहां उपस्थित हुये. हमे बाहर बिठाकर इन्स्पेक्टर उनसे न जाने क्या बात करता रहा. करीब एक घंटे बाद इन्स्पेक्टर ने हमे फिर बुलाया और उन्हें अपने केबीन से बाहर जाने को कहा.

            थोड़ी देर हमें घुरते रहने के बाद बोला, “तुम्हारी लड़की खुद अमीर लड़को को फंसाती है, उनके पैसे ऐंठती है और अपने शौक पुरे करती है, इसने सिर्फ इसी लड़के को नहीं तो उसके दोस्तों को भी लुटा है.”

तभी हमारे साथ आई वह महिला बोली, “पर सा’ब, हमारी लड़की तो छोटी है वो सिर्फ सतरा की है, उसने इसके साथ बलात्कार किया है”

“ऐ, चुप ! तुझे ज्यादा समझता है क्या, इनकी वकील है ? की, तु ही नाबालिग लड़कीयों से धंधा करवाती है? अभी बिच में बोली तो इसी इल्जाम में अंदर कर दूंगा”

वह महिला चुप हो गई. इन्स्पेक्टर मेरी सास पर नजरे गढाये आगे बोला, “देखो चाची, तुम्हारी बेटी अभी नाबालिग है और उसे गर्भ ठहरे दो ही महिने हुये है. मै इस बच्ची का अच्छे से अस्पताल में अबॉर्शन करवा देता हूँ और उपर से तुम लोगों को दस हजार रुपये भी दिलवा देता हूँ, तुम इस केस वेस के चक्कर में मत पड़ो वरना कोर्ट के चक्कर लगाते लगाते और भी कर्जे में डूब जाओगे. लड़की की बदनामी होगी वह अलग. आगे उसकी शादी भी नहीं होगी.”

मेरी सास थोड़ी देर चुप रही. मेरी तो कुछ भी समझ नहीं आ रहा था. मुझे लग रहा था कि समझौता होकर शादी हो जाये तो सारा मामला ही निपट जायेगा. तभी मेरी सास बोली, “सा’ब, हम गरीब लोग है पर इंसाफ भी कोई चिज होती है, आप तो दस हजार में हमारा मुँह बंद करना चाहते हो.”

इन्सपेक्टर अपने स्वर को और कड़ा करते हुये बोला, “चाची, तुम समझ नहीं रही हो, वे पैसे वाले लोग है, बड़े अफसरों को खरीद लेंगे, कोर्ट को खरीद लेंगे फिर तुम क्या करोगी”

पर चाची मानी नहीं. बात कुछ बनी नहीं. हमारे साथ आयी हुई वह महिला भी वापस चलने के लिए इशारे करने लगी. पुलिस ने हमे कोई एफआयआर की कॉपी नहीं दी. हम बस्ती में आये. तब तक सारे बस्ती में बवाल हो गया था.

बस्ती का एक पत्रकार नेता हमारे सामने आया और बोला, “क्या हुआ, यदी आपके साथ कोई अन्याय हुआ है तो बोलो मै अखबार में छपवा देता हूं” और वह पुरे मामले से संबंधित प्रश्न पर प्रश्न पुछने लगा. आखिर उसे सारी बाते पता चली तो वह फिर हमें पुलिस स्टेशन लेकर गया. हमे बाहर खड़ा कर वह अंदर गया. थोडी देर बाद वापस लौटा और कहने लगा. “चाची, पुलिस वाला सही बोल रहा है. मैने उससे बात की, उसे बोला मै, अखबार में पुरा मामला छापकर आपको बेनकाब कर दूंगा, आपने रिश्वत खाई है और मामले को दबा रहे है.” वह थोड़ी देर रुककर हमारी प्रतिक्रिया का जायजा लेने लगा फिर आगे बोला, “पर ऐसा नहीं है चाची, इन्स्पेक्टर बहुत इमानदार है, पर हम जिनके खिलाफ शिकायत करने आये है वे लोग बहुत बड़े है, उनकी पहुँच काफी उपर तक है. हम उनसे ज्यादा दिनों तक लड़ नहीं पायेगे. मैने कोशिश करके आप लोगों के लिए बीस हजार तक की बात कर ली है”

आखिर, मामला रुपयों पर आकर अटक गया. मेरी सास ने सोचा सच में हम इन पैसे वालों से लड़ नहीं सकते जितने ज्यादा लोग इस मामले में दखल देंगे उन सभी की कमाई होते रहेगी और हमे अंत में कुछ मिलेगा भी की नहीं पता नहीं. अभी बीस हजार मिल रहे है ले लेते है. सास ने अपने यह विचार मेरे सामने रखे. मै बोली, “मै क्या बताऊं आप खुद समझदार है, मेरे दिमाग का तो दही बन गया है.”

किसे कितना मिला यह तो पता नहीं पर हमारे हाथों में सिर्फ बिस हजार आये, मेरी ननंद का एक नीजि अस्पताल में अबॉर्शन हो गया. कानों में जो स्वर पडे़ थे वे थे, “कमिने ने पुरे एक लाख ले लिये और साथ में पता नहीं कहाँ से टपक पड़े उन दो लोगों को भी दस-दस देने को कहा और ये हॉस्पीटल का सत्तर हजार, हमारे लड़के को भी कुछ करना ही था तो पुरे प्रोटेक्‍शन के साथ करता ना, ये सारी मुसीबत तो नहीं आती.”

किसी समस्या का हल ऐसे भी निकलता है यह जीता जागता उदाहरण मेरे सामने घटीत हो रहा था. मै इससे रुबरु हो रही थी.  यहाँ सच्चाई, नैतिकता सब कुछ हार रहा था जीत रहा था तो सिर्फ और सिर्फ असत्य. उसकी ताकत पैसो के दम पर बढ़ गई थी. सत्यमेव जयते की तक्ती के नीचे ही असत्य की जय हो गई थी.

अपनी नैतिकता बेचकर पहली बार हमारे घर में पैसे आये थे. मेरा अभी भी अस्पतालों में हाऊसकीपिंग वाला काम जारी था.

ऐसे ही एक दिन अचानक “तु यहां काम करती है”

मै अपने काम में इतनी मशगुल थी की मुझे पता ही नहीं चला. मेरे हाथ में मॉब था और मै फर्श पर पोछा लगा रही थी. उस आवाज ने मुझे चौंका दिया था. मैने नजर उठाकर देखा वह मेरी स्कुल की सहेली थी. वह अचानक मेरे सामने आकर खड़ी हो गई थी. उसे देखकर मै बहुत खुश हुई काम करते करते ही मै उससे बातें करने लगी. बातों बातों में मैने उससे पुछा, “लेकिन तु बता तु यहाँ क्यों आयी है ? कोई भर्ती है क्या?”

“अरे नहीं, यहाँ के एक वार्ड बॉय का पता लेकर आयी हूं, किसी ने मुझे बताया वह कोरोना से मरने वालो का सर्टीफिकेट बनाकर देता है”

“तुझे किसका सर्टीफिकेट बनाना है और किसलिए?” मैने एक साथ दो सवाल कर दिये तो वह बोली,

“अरे.. मेरे पति को अटॅक आया और वे चल बसे, लेकिन मैने सुना है यदी कोरोना से मौत हुई हो तो सरकार की ओर से पचास हजार रुपये मिल रहे है. इसीलिए, वो सर्टीफिकेट वेबसाईट पर अपलोड करने के लिए चाहिए ताकि पचास हजार के लिए क्लेम कर सकूं.” हमारी और भी बातें होती रही फिर वह वार्ड बॉय को ढुंढने अंदर चली गई.

उसके जाने के बाद मेरा दिमाग भी तेजी से दौड़ने लगा. पैसो की जरुरत हमें भी थी. कोरोना पीरियड में मेरे घर में एक नही तो दो मौते हुई थी. पचास और पचास एक लाख रुपये आसानी से मिल जायेगे. मैने हाथ का काम छोडा और मै भी उसी के पीछे वार्ड बॉय को ढुंढने अंदर चली गई. वह उसी से बात कर रही थी. मै भी उनके करीब जाकर खड़ी हो गई. उसने मुझे देखा वह मुझे पहचानता था. मै बोली, “यह मेरी सहेली है, इसका काम कर दो.”

वह बोला, “काम करने के लिए ही बैठा हूं, बस जो खर्च आता है उसके लिए आप लोग तैयार रहो”

“क्या खर्च आता है”

“तुम्हारी सहेली को बता दिया है, पर वह सोच बहुत रही है”

मैने अपनी सहेली की तरफ देखा और बोली, “ऐसा क्या खर्चा बताया की तू इतना सोचने लगी”

“अरे… वह सर्टीफिकेट के दो हजार बोल रहा है और कह रहा है की ऑनलाईन अर्जी भी वही करके देंगा, उसके लिए उसे पाच हजार रुपये चाहिये. वो बोल रहा है, तुम्हे पचास हजार मिलेगे तो पाच हजार तो देना ही पड़ेगा, पुरा रिस्की मामला है”

“अरे तो सात ही हजार रुपये लग रहे है ना और ग्यारंटी से पैसे मिल रहे है तो क्या हर्ज है”

आखिर में मेरी सहेली तयार हो गई उसके बाद मैने भी अपनी बात रखी. मै बोली, “भैया दो केस और है”

“किसके ?”

“किसी और के नहीं मेरे ही है, मेरे पति और ससुर”

“वे लोग कैसे मरे थे ?”

“सेनिटायझर पीने से, सरकारी हॉस्पीटल में उनका पोस्टमार्टम भी हुआ था”

“तुम्हारे केस में तो बहुत ज्यादा रिस्क है, पर फिर भी तुम हो तो मै यह काम कर दूंगा” इतना बोलकर उसने मुझे आश्वस्त किया.

उसके बाद मै कई बार उससे मिली पर हर बार कुछ न कुछ बहाना करके वह टाल देता था. दो महिने यु ही गुजर गये. योजना बंद न हो जाये ऐसा डर मुझे लगने लगा. मैने उससे कहा, “तुम्हे पैसे और ज्यादा चाहिये क्या?”

वह बोला, “नहीं… तुम्हारे पति और ससुर सरकारी हॉस्पीटल में मरे है उनका पुरा रेकॉर्ड होता है. उनके नकली सर्टीफिकेट बनाने में बहुत ज्यादा रिस्क है जो डॉक्टर यह बनाकर देता है वह टाल रहा है”

“तुम मुझे उस डॉक्टर से मिला दो मै बात करती हूँ उनसे” वार्ड बॉय ने मुझे नकली सर्टीफिकेट बनाने वाले डॉक्टर से मिलाया. उसने सीधे मना ही कर दिया. मै उसके सामने गिडगिडाने लगी तब उसने मेरे दोनो बाजुओं को अपने हाथों से पकडा और बोला, “यार… बहुत खुबसुरत हो, यदी इसे चखने मिले तो मै यह काम कर दूंगा”

मेरा पुरा शरीर थरथराने लगा था. उसकी नियत मेरी समझ में आ गई थी. एक तरफ रुपये दो दूसरी तरफ अपनी आब्रु. पहली नौकरी मिली तब भी मुझे अपने तन से किमत चुकानी पड़ी और उस कमिने ने सिर्फ दो सौ रुपये हाथ में थमाये थे.

“क्या सोच रही हो… सिर्फ एक बार. वरना इतना बड़ा रिस्क कौन उठाये. पकड़े गये तो पता नहीं कितने साल जेल में बिताने पड़े.” आगे तुम्हारी मर्जी. इतना कहने पर भी वह रुका नहीं आगे बोलता रहा, “मुझे पता हैं, तुम्हे पैसो की कितनी जरुरत है, ये पैसे आयेगे तो तुम्हारा कर्ज भी उतर जायेगा, और यहाँ हमारे बीच जो हुआ इसका किसी को पता लगने का सवाल ही नहीं. मै एक डॉक्टर हूँ मैने ऐसा कुछ किया तो मेरी तो रेप्युटेशन ही खराब हो जायेगी. और तुम भी अपनी इज्जत सब के सामने खोलकर नहीं रखोगी.”

उसकी एक-एक बात मेरे मन को डावाडोल कर रही थी. उसने देखा उसकी बातों का मुझ पर असर हो रहा है, उसने अपनी बात आगे जारी रखी, “देखो, तुम्हारे पति को मरे काफी समय हो गया है, तुम्हे भी तो मर्द का सहवास चाहिये ही ना, पेट की भूख की तरह इसकी भी भूख तो लगती ही होगी ना तुम्हे. तुम जवान हो, खुबसुरत हो, इतना अच्छा बदन पाया है, फिर क्यूं अपने शरीर को तकलीफ देती हो, अरे…! सुख उठाओ, सुख भोगो. सब तो सुख के लिए ही करते है ना. देखों कितनी खुशी मिलती है इसमें” वह अपनी चीकनी चुपड़ी बातों से मुझपर वार करता गया.

रुपये एक लाख.. मेरी आँखों के आगे वे ही तैर रहे थे. एक बार की बात थी. कर ले समझौता.. कर ले. मेरा मन बार-बार यही कह रहा था. वैसे भी इनकी मर्जी चली तो वे बिना पैसो के भी तुझे नोंच खाये. उससे अच्छा है कि, इनकी बातें मानकर पैसे कमा ले. मैने अपने शरीर को ढीला छोड़ा गर्दन नीचे झुका दी और एक कदम डॉक्टर की ओर बढ़ाया. डॉक्टर समझ गया कि मैने समर्पन कर दिया है. पर उसके बाद पता चला यह चाल अकेले डॉक्टर की नहीं उस वॉर्ड बॉय की थी. क्योंकि डॉक्टर के बाद उसने भी पुरा फायदा उठाया. दोनो अपनी तृप्तता की डकार लेकर हँस रहे थे.

मेरा भी काम उन्होंने कर दिया था. पुरे चौदाह हजार और अपने जिस्म का सौदा कर मैने झुठ की बुनियाद पर पैसे कमाये थे.  इस घटना के पंद्रह दिन बाद ही मेरे खाते में पचास हजार और मेरी सास के खाते में पचास हजार जमा हो गये थे. अब पैसे हमारे मुँह को लग गये थे. कर्ज कम होने लगे. शौक बढ़ने लगे. घर की सुख-सुविधाओं वाला सामान आने लगा. जरुरते बढ़ने लगी तो फिर ज्यादा पैसों की जरुरत भी महसूस होने लगी.

            हमारे शहर में साल में एक बार राज्य सरकार का शितकालिन सत्र होता था. जिसके लिये विधान भवन, एमएलए हॉस्टेल, मंत्रीयों के बंगले इत्यादी को सजाया जाता था. वहां की साफ-सफाई और झाडू-पोछा से लेकर खाना बनाने तक के लिये आदमी-औरतों की जरुरत होती थी. और इन कामों में लेबर सप्लाई करने के लिए हमारे शहर के कई तथाकथित समाजसेवक, बहुउद्देशिय संस्थाएँ, लोकल छुटभैये नेता सक्रिय हो जाते थे.

राज्य की राजधानी से करीब करीब सभी मंत्री, प्रशासकीय अधिकारी, अन्य शहरों के पक्ष-विपक्ष के नेता इत्यादी यहां आकर हॉस्टेल और बंगलों में रहने लगते थे. इनकी सेवा के लिए लेबर सप्लाई का काम समाजसेवक, बहुउद्देशिय संस्थाएं तथा लोकल नेता करते थे. बस्ती की कई औरतें अपना बायोडाटा लेकर इनके पास जाती थी और वहां का काम हासिल करती थी. यहाँ दो घंटे से लेकर आठ घंटे के काम के पाँच सौ से आठ सौ रुपये मिल जाते थे. फिर भला कौन यह काम छोडना चाहेगा. काम भी ज्यादा नहीं रहता था. मै भी अपना बायोडाटा अपने बस्ती के लिडर के पास दे आयी. उसने मुझसे पुछा, “कौन-सा काम करोगी, खाना बनाना, साफ-सफाई या सेवा”

मै बोली, “समझी नहीं, ज्यादा पैसे किसमें मिलते है?” मैने सवाल किया.

वह बोला, “सेवा में ज्यादा पैसे है, पर उसका कोई समय नहीं है, रात-दिन कभी भी करनी पड़ती है, जब बुलाया जाये तब.”

            उसकी बातें सुनकर मेरी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था. झाडू-पोछा और खाना बनाने के अलावा यह सेवा क्या है मेरी समझ से परे था. मैने उससे पुछा, “सेवा में क्या करना होता है” तब वह सकपका गया और बोला.

            “ठीक है तुम्हारा बायोडाटा मैने रख लिया है. जैसे ही साफ-सफाई का काम सुरु होगा तुम्हे बुला लुंगा, एक दिन के पांच सौ रुपये मिलेंगे” मैने स‍िर हिलाकर हामी भरी और बाहर आ गई. पर मेरे मन से सेवा वाली बात जा ही नहीं रही थी. एक दूसरी औरत भी उसी समय आयी हुई थी तो मैने उससे पुछ लिया, “ये सेवा में पैसे ज्यादा मिलते है क्या?”

वह एक फिकी सी हँसी हँसी और बोली, “सेवा में बहुत पैसे मिलते है जो तुम सोच भी नहीं सकती, इतने.”

“उसमें करना क्या होता है ? सेवा का मतलब ?”

“मतलब ये कि वे जो बोले चुपचाप करो, जिसके पास भेजे चुपचाप चले जाओ, समय चाहे जो भी हो.”

मेरी टयुब लाईट अब जल चुकी थी. छी….! क्या ऐसे भी होता है, ये तो जनप्रतिनिधी है, पढ़े-लिखे उच्चाधिकारी है और ये सब” मुझे अपने आप पर ही शर्म आ रही थी.

मेरी चुप्पी देख वह आगे बोली, “इसके लिये सिर्फ औरते ही नहीं, आदमी और बच्चे भी होते है सेवा के लिए.” यह बात सुनकर तो ऐसे लगा की जमिन फट जाये और मै उसमें समा जाऊं. पर यहीं सच्चाई थी. यह वास्तविकता, जो इस दलदल में उतरने के बाद ही नजर आती है, तब तक नहीं. हम अपने घरों में बैठकर अपने परिवार और अपनी जिम्मेदारीयों के चक्रव्युह में ऐसे फंसे होते है कि बाकी दुनिया में क्या चल रहा है इसकी कोई जानकारी ही नहीं होती. अखबार, टीवी और अन्य समाचार देने वाले तो बस वहीं बताते है जो खुली आंखो से दिख रहा है, वही चमक-दमक, उपरी राजनीति और समाजिक समस्याएं. दूसरे, धर्म की राजनीति ने सामान्य इन्सान को इतना फंसा रखा है कि वह कभी इसके चक्रव्युह को तोड़कर सच्चाई का सामना ही नहीं कर पाता. उनकी अपनी एक अलग दुनिया है, जहाँ सिर्फ घर-नौकरी-परिवार के अलावा कुछ भी नहीं है. किसी से कोई मतलब नहीं. एक आसान सी एक ही पटरी पर चलती हुई जीन्दगी.

एक यह दुनिया जहाँ चारो और सिर्फ दलदल ही दलदल. जो इस दलदल में उतर चुका है वह चुप है. वह कुछ कहता नहीं. यदी, कुछ कहने के लिए मुँह खोला तो वह उस दलदल में कहाँ गुम हो जायेगा उसे खुद भी इसका पता नहीं चलता. घर आकर मैने अपनी सास को यह बात बताई. सास की आँखों की चमक बढ़ गई. बोली, “सेवा के कितने मिलते है?”

“पता नहीं, पर वह औरत बोली जो हम सोच नहीं सकते उससे ज्यादा”

“तो ठीक है, मै यह काम कर दूंगी. अभी खाली ही बैठी हूँ. तु जाकर ठेकेदार से बात कर ले. पर सेवा में करना क्या होता है ? मेरे से हो पायेगा यह काम?”

मैने अपनी सास को समझाते हुये कहा, “सासू माँ, सेवा का मतलब है, उन मर्दो को खुश करना, उनके साथ सोना और वे जैसा बोले वैसे करना” यह बात सुनकर मेरी सास थोड़ी देर चुप रही और कुछ सोचने लगी. फिर बोली,

“मै तो बुढ़ी हो गई हूँ मेरा शरीर भी थक गया है, पर तु तो जवान है. और… फिर इस जवानी में ही अपने पति को खो चुकी है. यदी, चुपचाप यह काम करती है तो हमारे पास बहुत पैसे आयेगे. बचा हुआ कर्जा भी चुकता हो जायेगा और हम अपना घर भी अच्छा बना पायेंगे. इस बारीश में तो पुरी की पुरी छत ही टपक रही थी. टीन पर जंग लग गया है. घर में जो तुने टी.वी., कुलर  खरीदा है उस पर पानी की एक बुंद भी गिरी तो इतना महंगा सामान खराब हो जायेगा, एक … एक काम कर तु… तु जा सेवा करने.”

अपने सास की यह बात सुनकर मै सकते में आ गई. मेरा मुँह खुला का खुला रह गया. मेरी सास मुझसे वेश्यावृत्ती करने को कह रही थी. वह भी इसलिए की घर में पैसे आयेगे. सुख-सुविधाओं का चस्का लग गया है. पहले मुझे क्लर्क वाली नौकरी छोड़कर पोछा मारने वाली नौकरी करने को कहा. यह माना काम कोई छोटा या बड़ा नहीं होता, पर कोई भी अपना प्रमोशन चाहेगा डिमोशन नहीं, क्लर्क के बाद कोई भी ऑफिसर बनना चाहेगा, पर मै क्लर्क से सफाईवाली और अब वेश्या… ऐसा डिमोशन. पर, मेरी सास की नजर में यह उन्नति थी आर्थिक रुप से उन्नति. जहाँ घर का सारा सामान बिक गया था, अब उसी घर में कुछ समझौते करके सारी महंगी चिजे आनी शुरु हो गई थी.

यह इच्छा सिर्फ मेरी सास की ही नहीं अपितु मेरी भी भौतिक सुख के प्रति लालसा बढ़ गई थी. ट्रेन के गुजरने से ह‍िलने वाले उस मकान की जगह किसी पॉश इलाके में अपना मकान हो, सोने के लिए अच्छा बिस्तर, पंखे, टीवी और खाने के लिए महंगी डिशेस इनके सपने मै भी देखने लगी थी. ननंद को देखती तो मुझे जलन होती थी. वह कितना सजती-सँवरती थी. नकली ही सही पर कई तरह के गहने पहनती थी. और एक मै थी जो परिस्थिती के सामने घुटने टेककर पावडर तक नहीं लगा पा रही थी, मेकअप तो दूर. पर यह सारी इच्छाएँ पुरी हो सकती थी. अपनी नैतिकता से समझौता करने पर और मैने किया, अपनी नैतिकता से समझौता. जहाँ मैने डॉक्टर को अपना तन देकर एक लाख रुपये कमाये थे तो यहां शायद उससे ज्यादा मिल जाये. इस सोच ने मुझे आंदोलित कर दिया था.

मै बिना समय गंवाएँ दूसरे ही दिन सुबह-सुबह बस्ती के लिडर के घर पहुँची, वहाँ पहले से ही कुछ महिला और पुरुष बैठे हुये थे. एक-एक कर सभी अपनी बात उसके सामने रख रहे थे. जब मेरी बारी आयी तो मैने कहा, “सर, मै सेवा देना चाहती हूं, कल मैने आपको अपना बायोडाटा दिया था” उसने मुझे उपर से नीचे तक देखा और पुछा, “उम्र कितनी है ?”

“सर, बत्तीस”

“लगती तो नहीं हो बत्तीस की, मै तो समझा तुम अभी चौबीस-पच्चीस की हो, खैर.. आगे कोई पुछे तो पच्चीस ही बताना” मैने हां में गर्दन हिला दी.

“बच्चे है ?” उसका अगला सवाल आया, मै थोड़ा हड़बड़ा गई. उसने फिर पुछा, “बच्चे कितने है”

“एक … एक लड़की” मै डर रही थी क्यों कि मै जिस काम के लिये जा रही थी, वहां लड़की का उल्लेख होने पर कही यह न बोल दे उसे भी साथ लेकर आओ. अब वह कोई और सवाल पुछे उससे पहले ही मै बोली, “मेरी लड़की सिर्फ नौ साल की है, सरकारी स्कुल में पढ़ती है”

“ठीक है, पर किसी को बताना नहीं तुम्हे बच्चे है. विधवा लग रही हो, पति मर गया क्या?”

“हां.. कोरोना पीरियड में”

“कोरोना हुआ था”

“नहीं..” मै उसे सच बताने ही वाली थी कि एकदम से रुक गई. “हां.. मेरे पति और ससुर को, दो….दोनो उसी से मरे” हडबडाते हुए मैने उसे झुठ बताया.

“ठीक है” शंकीत नजरों से देखते हुये बोला और अपने कंधे उचका दिये. फिर बोला, “एक काम करो तुम्हारा नंबर दे दो, जब भी कॉल करु उठा लेना और जहां बोलू चले जाना, कोई सवाल नहीं और कोई बहाना नहीं, समझी.”

मैने हां में गर्दन हिलायी और उसे अपना नंबर देकर वहाँ से चली आयी.

मै अब एक ऐसे सफर पर निकलने वाली थी, शायद, वहाँ से वापस मुड़कर आना कभी संभव ही नहीं था. हप्ते भर बाद ही मुझे लोकल लिडर का कॉल आया उसने मुझे एक तीन सितारा होटल का पता दिया और बोला वहाँ रुम नं. 302 में चली जाना, वह भी एक घंटे के अंदर. और हां… थोडी सज-सँवर कर जाना.

मै जैसे तैसे तयार हुई इसमें मेरी ननंद ने मेरी मदद की. उसी का सारा मेकअप का सामान मैने इस्तेमाल किया. अपने चेहरे की लिपापोती कर पहली बार जब आईने के सामने खड़ी हुई तो लगा शायद मै स्वर्ग से आयी हुई अप्सरा हूँ. दुनिया में शायद ही मुझसे ज्यादा खुबसुरत कोई औरत होगी. मेरी उम्र बत्तीस से बाईस लगने लगी थी.

खुद पर इतराते हुये ही मै होटल पहुँची. दिल जोर-जोर से धडक रहा था. हाथ-पाँव काँप रहे थे. होटल की भव्यता, रखरखाव और वहाँ का स्टाफ देखकर मेरा मुँह खुला का खुला रह गया. आस्ते-आस्ते कदम बढाते हुये मै काउंटर पर पहुंची तो वहाँ खड़ी लड़की ने बड़े ही मृदु स्वर में पुछा, “व्हॉट कॅन आय हेल्प यु मॅम?” अचानक इंग्लिश में पुछे गये इस सवाल से तो और भी बौखला गई. मेरे पसीने छुटने लगे. ऐसे नहीं मुझे इंग्लिश नहीं आती पर सालो बीत गये थे इंग्लिश बोले, पढ़े. मेरा आत्मविश्वास खो गया था. भूल गई थी की मै बी.एस्सी. हूं और बी.एस्सी. इंग्लिश से ही किया जाता है.

“रु… रुम नं..नंब..र ती…तीन सौ दो” मैने हकलाते हुये अपनी बात पुरी की.

“ओ..ह !” मुँह से यह स्वर निकालने के बाद उसने मुझे स‍िर से पाँव तक देखा और उंगली से लिफ्ट की ओर इशारा करते हुये बोली, “मॅम आप लिफ्ट से तीसरे माले पर चले जाईये, लिफ्ट से निकलने के बाद अपने राईट में मुड़ जाना. वही आगे रुम नंबर 302 है. मुझे अजीब सा महसुस हो रहा था. पता नहीं वह काउंटर गर्ल मेरे बारे में क्या सोच रही होगी. बोलती होगी, “देखों तो एक वेश्या कैसे सज-धज कर आयी है उस 302 वाले को खुश करने. क्या वो मुझे बिना कपडो के भी फिल कर रही होगी और उस आदमी के साथ भी. नहीं… नहीं…” ये मै क्या सोचने लगी. मुझे मेरा ही मन खाये जा रहा था.

अपने आप को संयत रखने की कोशिश करते हुये डरते-डरते मै 302 के सामने पहुँची. दो तीन बार दरवाजे पर दस्तक देने के लिए हाथ उठाया पर दस्तक नहीं दे पायी. मेरी बेचैनी बढ़ रही थी. अपनी दोनों हथेलीयों की ऊंगलीयों को एक दूसरे में फंसाकर तो कभी एक की मुठ्ठी बांधकर दूसरे हथेली से उसे दबा रही थी. तभी दरवाजा खुला और एक अधेड आयु का कुर्ता पायजामा पहने हुये बड़ी सी तोंद वाला आदमी सामने खड़ा दिखा. वह मुझसे टकराते टकराते बचा. अंदर किसी ओर से बात करते हुये ही उसने दरवाजा खोला था. मुझे एक नजर स‍िर से पाँव तक देखने के बाद उसने फिर अंदर वाले आदमी को आवाज दी और बोला, “अच्छा मै चलता हूं, बहुत बढ़िया है तुम एन्जॉय करो.”

मै अंदर दाखिल हुई. देखा, कमरे में एक ड़बल बेड, एक सोफा और दो कुर्सियाँ रखी हुई थी. अंदर सोफे पर बैठा हुआ आदमी सिर्फ एक बनियान और हाफ पॅन्ट पहने हुये था. हाथ में शराब का ग्लास. सोफे के सामने वाली मेज पर शराब की बोलत, दो ग्लास, एक प्लेट में चिकन के कुछ बचे हुये पीस, दूसरी प्लेट में फरसाण और सेव थोड़ी बची हुई थी, तो चिप्स का एक फटा हुआ पॅकेट भी वहीं पड़ा हुआ था.

“आओं” वह उठकर खड़ा हुआ मेरे करीब आया और मेरी पीठ पर हाथ रखते हुये मुझे बेड की ओर ले जाते हुऐ बोला, “एकदम समय पर आयी हो, बैठो…. अरे.. बैठो बिस्तर पर, तुम्हारा ही है” मै सकुचाते हुये बैठ गई. मुझे पसीना पसीना होते देख बोला, “एसी और बढ़ा दूं क्या?, तुझे बहुत पसीना आ रहा है, लगता है पहली बार है… सच बोला ना.”

मेरी तो जुबान तालू से चिपक गई थी. मै कुछ भी बोलने में खुद को असमर्थ महसूस कर रही थी.

“अरे… डर मत तू अभी एकदम फ्रि हो जायेगी, ले मेरे साथ एक घुंट ले ले” और उसने अपने हाथ में पकड़ा हुआ ग्लास मेरी और बढाया. बढाया क्या.. सीधे मेरे होठों से लगाया. मैने मना किया तो वह बोला, “तुझे नियम पता नहीं है क्या, यहाँ किसी भी बात के लिये मना नहीं किया जाता. तुझे तो सब समझा कर भेजा होगा ना.. फिर पीने के लिए मना क्यों. ले… अरे… ले…” कहते हुये उसने फिर वही ग्लास मेरे होठों से लगाया.

इस बार मै चाहकर भी मना नहीं कर पायी. उसने याद जो दिलाया था कि, जैसा बोला जाये वैसा करो. पहली बार मैने शराब पी. वह एक घूंट, जो मेरे हलक के नीचे से उतरा, पुरे मुँह में कडवाहट सी फैल गई. पति के मुँह से निकलती शराब की गंध को बरसो मैने सहा था. आज खुद पी रही थी. पर यह गंध अलग थी. पति के मुँह से आने वाली गंध बहुत ज्यादा तिव्र होती थी और सिर्फ गंध ही मेरे मुँह में कसैलापन दे जाती थी.

उसने मुझे एक पैग और पिलाया. अब मुझ पर सरुर छाने लगा. वह जैसे चाहता था उसके बाद वह वैसा करता गया. मेरी शर्म, लाज, लज्जा सब अब खत्म हो चुकी थी. मै उसका साथ देने लगी. यह सब उस नशे का असर था. जब होश में आयी तो काफी समय हो गया था. वह नंग-धड़ंग बेसुध सा सोया हुआ था. मेरा स‍िर भारी भारी सा लग रहा था. बदन टूट रहा था. शराब के नशे मे जो हुआ वह याद आते ही ग्लानी सी महसूस हुई. खुद पर बहुत गुस्सा भी आया की मैने यह क्या किया. कहाँ अपनी उम्र के तीस साल तक छुई मुई सी रहने वाली एक शर्मीली लड़की और अब कहाँ ये सब. पर भौतिक सुख सुविधाएँ, कर्जो से मुक्ति, आलिशान जीवन यह सब भी तो चाहिये, जिसके लिए किंमत चुकानी पड़ रही थी. और… फिर यह रास्ता तो मैने ही चुना था. अब ग्लानी और शर्म महसूस करके क्या फायदा. अब आगे ही बढ़ना है. पीछे मुड़कर देखेंगे तो दरिद्रता, दर्द और भूखमरी के सिवा कुछ नहीं दिखेगा.

मैने उसे अपने हाथों से हिलाकर उठाया. वह उठा और बोला, “तुम अभी तक यही हो, गई नहीं”

“सर मुझे पैसे नही मिले”

“ओह  !, ठीक है” इतना कहकर वह वैसे ही उठा और अपने सुटकेस से निकालकर मुझे पचास हजार रुपये दिये. उन नोटो को देखकर मेरी आँखे फटी की फटी रह गई. कहाँ पाच सौ, छे सौ और कहाँ पचास हजार. उसने मेरा हाथ पकडा और बोला, “यार.. तुमने बहुत मजा दिया. कल फिर आना.” मैने हामी भरी और वहाँ से निकल गई. तभी  लोकल लीडर का फोन आया. उसने पुछा, “पैसे मिले” मैने “हां” मे जवाब दिया वह बोला, “अपने घर जाने से पहले दस हजार मेरे घर पहुंचा देना और सुनो रात में एक फार्म हाउस पर जाना है मै आऊंगा गाडी लेकर तैयार रहना.”

फिर क्या था, रोज ही देर सबेर कोई ना कोई गाडी मेरे दरवाजे आती, या चौक पर खड़ी रहती. मै सुबह-दोपहर-शाम उपलब्ध रहने लगी. शितकालीन सत्र तो सिर्फ दस से पंद्रह दिन का ही होता था. लेकिन उसकी तैयारी महिना दो महिने पहले ही से शुरु हो जाती थी. नेता, ठेकेदार, सभी यही आकर जम जाते. शहर के अगल-बगल के गाँवों में उनके फार्म हाऊस, पाचसितारा होटल, तीन सितारा होटल में सब अपनी अपनी व्यवस्था करते थे. करोडों अरबों का हेर फेर होता था. मंत्रीयों को, अधिकारियों को बड़े पैमाने पर रिश्वत दी जाती थी, औरते और बच्चे घुस के तौर पर परोसे जाते थे. मै भी उस का हिस्सा बन चुकी थी. इस एक महिने में न जाने कितने अधिकारियों, नेताओं और ठेकेदारों की सेवा कर चुकी थी. मेरे घर में पैसों का अंबार लग चुका था.

बस्ती में दबी जुबान से लोग मेरे बारे में बाते जरुर करते थे, मुँह पर कोई बोलता नहीं था. उनका मेरी ओर देखने का नजरीया बदल गया था. मुझे यह महसुस हुआ. मैने वह बस्ती ही छोड़ने की ठान ली. अपने एक ग्राहक बिल्डर को खुश कर उससे तकरीबन पचास लाख का पॉश इलाके में टू बीएचके फ्लैट चालीस लाख में खरीद लिया था. लोगों से कहने लगी की वह फ्लैट मैने किराये से लिया है पर बहुत जल्दी ही बैंक से लोन लेकर खरीदने वाली हूं. दरअसल, इस तरक्की में सिर्फ मेरे अकेले का हाथ नहीं था तो मैने अपनी ननंद को भी इसी दलदल में खिंच लिया था. एक ही दिन में एक-एक, दो-दो लाख लाने लगी थी हम दोनों. मैने अपनी बेटी को सरकारी स्कुल से निकाल कर पब्लिक स्कूल में उसका दाखिला करवा दिया.

लेकिन अब कही इस बस्ती में, इस पॉश इलाके के लोग मुझ पर ऊंगली न उठाये, वे मुझे शक की नजर से ना देखे यह समस्या थी. वैसे भी इस बस्ती में किसी को किसी से कोई लेना देना नहीं था. कोई मर भी जाये तो किसी को पता ना चले ऐसी सोसायटी थी. पड़ोसी का नाम तक कोई जानता नहीं था. पर मेरा लोगों से संपर्क ज्यादा बढ़ गया था. पुरानी बस्ती के लोग, मेरे नाते रिश्तेदार और मेरे मायके वाले सभी के लिए मेरी तरक्की एक पहेली थी. मेरे पास इतना पैसा कहाँ से आ रहा है, कैसे आ रहा है यह लोगों को दिखाना जरुरी हो गया था. अत: ऐसे समय में सत्ताधारी पार्टी ही सबसे योग्य होती है आपके काले कारनामे छिपाने के लिये. इस एक महिने में मै यह सब अच्छी तरह से सीख गई थी. मेरी खुद की पहचान भी हो गई थी बड़े-बड़े नेताओं, मंत्रीयो, अधिकारीयों और व्यापारीयों से. उनके पर्सनल नंबर तक मेरे मोबाईल में सेव थे. 

लोगों को दिखाने के लिए मैने ब्युटी पार्लर की दुकान खोल ली थी. जिसमें मैने दो लड़कीयों को काम पर रख लिया था. कमाई तो कुछ होती नहीं थी पर सभी को यही दिखाती की मुझे व्यवसाय से बहुत फायदा हो रहा है. बढ़-चढ़कर सामाजिक कामों में हिस्सा लेने लगी. सत्ताधारी पार्टी के ‘मोलकरीण संघ’ में फुल टाईम कार्य करना शुरु कर दिया था. अस्पताल का झाडू पोछा वाला काम छोड़ दिया था. लेकिन उनसे संपर्क खत्म करने के बजाय और भी ज्यादा बढ़ा दिये थे. घरकाम करने वाली बाई, हाऊसकीपिंग एजेन्सी चलाने वाले ठेकेदारो से अपना संपर्क बढ़ाया. उनके नाम, पते, फोन नंबर इत्यादी डाटा जमा करने लगी. देखते-देखते छ: सात महिनों में मै काफी लोकप्रिय हो गई थी.

सभी मुझे घरकाम करने वाली बाईयों तथा हाऊसकीपिंग का काम करने वाली बाईयों के हक्क और अधिकारों के लिए लड़ने वाली सामाजिक कार्यकर्ता के रुप में पहचानने लगे. वे अपनी समस्या लेकर आती जिन्हें मै अपनी उपर तक के पहचान से सुलझा लेती थी. कुछ छोटी-मोटी समस्या हो तो मुफ्त में, तो कुछ समस्याओं को खुद जटील बनाकर उनसे रुपये ऐंठती और उनकी समस्या का हल निकालकर देने लेगी. मुझमें इतनी हिम्मत आ गई थी की  मै किसी के भी केबिन में बिना इजाजत धडल्ले से घुस जाती और जानबुझ कर उंची आवाज में बात कर अपनी बात मनवा लेती थी. जब बात ज्यादा ही गंभीर और गैरकानूनी हो तो फिर उसके लिए मै पैसे और जिस्म का सौदा करती और काम सफल करके ही दम लेती थी.

चार-पाँच साल तक मैने यही काम किया, औरतों के विविध प्रमाणपत्र तयार करना, उनके किसी योजना के तहत फंसे हुये पैसे निकाल कर देना, झुठे दस्तावेज तयार कर उन्हें सरकारी योजनाओं से लाभ दिलवाकर देना. ऐसे सभी काम मै बिना हिचकिचाएं करने लगी. कोई मेरा फायदा उठायेगा अभी इस बात का मुझे डर नहीं लगता था. उलटे उन्होंने मेरा विनयभंग किया ऐसी कई शिकायते पुलिस स्टेशन में दर्ज करवा आयी थी. शहर के सभी पुलिस स्टेशन के करीब करीब सारे पुलिस वाले भी मेरे पहचान के हो गये थे. वे मुझे देखते ही समझ जाते कि किसी ना किसी की शामत है. मेरे साथ आने पर उनका भी हिस्सा बन जाता था. मेरे फायदे के साथ-साथ कई पुलिस वाले, लोकल लीडर, मेरे साथ के कार्यकर्ता ये सभी अच्छा कमा रहे थे. इन सब से खुश होकर मुझे ‘मोलकरीण संघ’ का शहर अध्यक्ष बनाया गया.

मै बाते बनाने में काफी होशियार हो गई थी. किसी को भी शिशे में उतारना मेरे लिए बाये हाथ का खेल बन गया था. मै अपने सास के माध्यम से गरीब और सुंदर लड़कीयों को उधार पर पैसे देने लगी. फिर उन्हें पैसे वापस न करने पर गुंडो से डराने धमकाने लगी. जब वे डर कर अपनी समस्या लेकर मेरे पास मदद के लिए आती, या मेरी सास की शिकायत लेकर आती, तब मै उन्हें अपने बातों में फांस कर, उन्हें और ज्यादा पैसों का लालच देकर, उन ठेकेदारों और नेताओं के पास भेजने लगी. जो लड़कीयों के शौकीन थे या जिनसे मुझे कोई काम निकलवाना होता था या मोटी रकम के बदले जिन्हें नई और कमसीन लड़कीया चाहिये होती थी. मेरे दोनों हाथ घी में और मुँह कढाई में था.

मेरी सास महंगी साड़ी और जेवर पहने घुमती थी, तो ननंद के पाव भी जमीन पर नहीं पड़ते थे. अब तो उसके पास विदेशों से मंगाये हुये मेकअप के प्रोडक्ट रहने लगे. नये-नये फॅशन के कपडे, खुद का ब्युटी पार्लर होते हुये भी महिने में एक बार प्लेन से राज्य की राजधानी जाती और वहां फिल्मों की नायिकाओं को मेकअप करने वाले मेकअप आर्टीस्ट से अपना मेकअप करवा आती थी. मेरे पास भी महंगी फोर व्हीलर थी. मेरा उठना बैठना भी बड़े-बड़े लोगों में होने लगा. खासकर मुझे राजनीतिक लोगों के बीच में ज्यादा इंटरेस्ट आने लगा. उनके दिखाने के दात अलग और खाने के दात अलग यह उनकी लाईफस्टाईल मुझे बहुत भाने लगी थी. क्योंकि, अब मै भी वैसी ही जिन्दगी जी रही थी. लेकिन जो मेरी असलियत जानते थे. वे मुझे सिर्फ एक वेश्या ही समझते थे. मुझे अपनी यह छवी बदलनी थी. दूसरे, मेरी बेटी किशोरावस्था में पहुँच गई थी और मै अपनी बेटी को यह माहौल देना नहीं चाहती थी. मै उसे एक साफ-सुथरी दुनिया का हिस्सा बनाना चाहती थी और यह तब मुमकिन था जब मै यह वेश्यावृत्ती का काम छोडकर कुछ और करुं. लेकिन पैसों का रुख मेरी ओर बना रहे. इसीलिए मुझे उन नेताओं की जगह चाहिये थी जो बिना अपनी इज्जत गवाएं सब खरीद सकते है. जिनका काला सच कभी किसी के सामने आता ही नहीं.

राज्य में पार्षदों के चुनाव होने वाले थे. सभी पार्टीयां सक्रीय हो गई थी. उम्मीदवारों की सूचियाँ बन रही थी. मतदारों का रुझान किस ओर है यह जानने के लिए सर्वे हो रहे थे. मुझे भी इसी काम में सत्ताधारी पार्टी की ओर से लगा दिया गया था. ज्यादा से ज्यादा महिलाओं से संपर्क कर उन्हें अपनी ही पार्टी के उम्मीदवारों को वोट देने के लिए कंवीन्स करना था. पार्टी के जिल्हा अध्यक्ष को सभी वार्ड से उम्मीदवारों की सूची तयार करने का काम सौंपा गया था. मेरी जिल्हा अध्यक्ष से अच्छी पहचान थी. उसे मै अंदर-बाहर से अच्छी तरह जानती थी. अत: मै सीधे उनसे मिलने पहुंच गई और इस बार पार्टी की ओर से मेरे अपने वार्ड से मुझे पार्षद की तिकट मिलने हेतू अर्जी दी. उस अर्जी को देखते ही जिल्हा अध्यक्ष उछल पड़ा.

“ये क्या है, क्या तुम .. तुम पार्षद का चुनाव लडोगी.”

“हां तो… इसमें क्या है.. मै अपने वार्ड में काफी लोकप्रिय हूँ. मेरे पास मेरे वार्ड के कई लोगों का डाटा जमा है. उनकी कई समस्याएं मैने चुटकी में हल कर दी है. मुझे यकिन है मै जरुर चुनकर आऊंगी” एक ही बार में मैने अपनी बात रख दी. वह थोड़ी देर चुप रहा और बोला, “ठीक है, मै तुम्हारा नाम लिस्ट में डाल रहा हूं पर फैसला तो उपर से ही आयेगा.”

मै बोली “ठीक है, वैसे उपर से याने फायनल होने के लिए किसके पास जायेगी लिस्ट, राज्य के अध्यक्ष के पास ही ना या किसी और को यह जिम्मेदारी सौंपी गई है.”

“यह मुझे पता नहीं, लिस्ट तो राज्य के अध्यक्ष को ही सौंपनी है.”

“ठीक है, तुम लिस्ट भेजो मै देखती हूं, मै क्या कर सकती हूँ. इस बार तो मुझे पार्षद का चुनाव लडना ही है.”

उस लिस्ट का आगे क्या हुआ इसका पता मुझे बाद में चला, पहले दनदनाती हुई पुलिस मेरे घर पर आयी और मुझे गिरफ्तार कर लिया. मै पुछती रही, “ये क्या है? क्या किया है मैने ? क्यूं ले जा रहे हो मुझे पकड़ कर ? मेरा गुनाह क्या है?” पर उस समय किसी ने भी मेरे इन सवालों का जवाब नहीं दिया. पुलिस से पहचान होने के बावजुद वे मुझे सब के सामने मेरे हाथों में हथकडी पहनाकर लेकर गये. मुझे पल्लू से मुँह छुपाने तक नहीं दिया. स‍िर नीचे झुकाये मै उनके साथ चली जा रही थी और वे मुझे पैदल ही तमाशा बनाते हुये पास के पुल‍िस स्टेशन में लेकर गये.

पुल‍िस स्टेशन के गेट पर ही मेरा स्वागत चप्पल और जुतों से हुआ. कई महिलाएँ वहाँ भीड़ की शक्ल में इकठ्ठा थी. जिनके हाथों में मेरे नाम के फलक थे, जिनमें मेरे खिलाफ टीप्पनीयाँ लिखी हुई थी. ‘गिरफ्तार करों’, ‘मुर्दाबाद’, ‘नारीयों को कलंकित करने वाली को फांसी दो’ आदी नारे लिखे हुए थे.  पुलिस स्टेशन के अंदर पहले से ही दो लड़कीयाँ एक अधेड उम्र की औरत और कुछ तथाकथित सामाजिक कार्य करने वाली महिलाएँ भी थी. उनमें से एक दो महिलाओं को मै अच्छी तरह जानती थी. वे मेरी ही पार्टी के दुसरे गुट की महिलाएँ थी. और जो दो लड़कीयाँ थी उनसे मैने जिस्म फरोशी करवाई थी.

“तुम पुछ रहीं थी ना क्यों गिरफ्तार किया है” इन्स्पेक्टर उन दो लड़कीयों कि ओर इशारा करते हुए बोला, “इन्होंने तुम्हारे खिलाफ कंप्लेन्ट दर्ज कराई है की, तुमने इनकी मजबुरी का फायदा उठाकर इनसे वेश्यावृत्ती करवाई है. इनकी मर्जी के खिलाफ तुमने इनके जिस्म का सौदा किया है और इनका बलात्कार करवाया है.”

“ये, झुठ है.. मै इन लड़कीयो को जानती तक नहीं फिर ये इल्जाम कैसे? मैने… मैने कुछ नहीं किया है.” मेरी आवाज में दम नहीं था. सच्चाई सभी जानते थे. लेकिन यह इस तरह सब के सामने उजागर होगा इसकी मुझे भनक तक नहीं थी. वरना मै सब मॅनेज कर लेती थी.

“अंदर डालो इसे” कड़ी आवाज में इन्स्पेक्टर ने महिला कॉन्स्टेबल को आदेश दिया. जिस पर उस महिला कॉन्सटेबल ने बड़ी बेदर्दी और बेरुखी से मुझे घसीटते हुये लॉकअप में धकेल दिया था. मेरी समझ में नहीं आ रहा था. जब सब मिलजुल कर होता है, तब मेरे अकेले के साथ इस तरह का व्यवहार क्यों? जिन दो लड़कीयों ने मेरे खिलाफ कंप्लेन्ट दर्ज करवाई उनको मैने उसी इन्स्पेक्टर को परोसा था. वह सब जानता था. लेकिन अब वह खुद तो वाईट कॉलर बना हुआ है और मुझे उन लड़कीयों को बर्बाद करने के लिए अंदर डाल दिया है.

मेरी पुरी रात उस लॉकअप में सोचते हुये बिती. रात भर मुझे नींद नहीं आयी. मच्छर परेशान कर रहे थे वह अलग और मेरी कहाँ गलती हुई इस पर मेरे अपने विचार मुझे परेशान किये हुये थे. दुसरे दिन जब एक महिला कॉन्स्टेबल चाय लेकर आयी तो मैने उससे पुछा, “तुम तो सब जानती हो, मैने तुम लोगों को हिस्सा देने में कभी कंजुसी नहीं की, फिर मुझे ये सजा क्यों”

वह मेरे कानों से लगते हुये बोली “मुझे भी ठीक से पता नहीं, पर मैने सुना है तुम चुनाव लड़ने वाली थी. इन्स्पेक्टर को फोन पर बात करते हुये सुना था. बोल रहा था, वह तो अच्छी औरत है, तुम जिन लड़कीयों को भेज रही हो उन्हें तो मैने ही चखा है. इसकी जाँच पडताल में मेरा नाम भी इसमें आयेगा. कहीं ये खेल महंगा ना पड़ जाये. थोड़ी देर इन्स्पेक्टर फोन पर उधर की बात सुनता रहा फिर फोन रख दिया. उसके थोड़ी ही देर बाद वो लड़कीयाँ आयी और तुम्हारे खिलाफ रिपोर्ट लिखवाई. हमे बिना सवाल किये रिपोर्ट लिखने को कहा गया. हम क्या करते. बाकी तुम्हे फंसाने का सारा मामला उपर से ही है.”

उसकी बातें सुनकर मुझे चक्कर आने लगा था. मुझे किसी की कही हुई बात याद आयी. उसने कहाँ था, “तुम वेश्या हो वेश्या बनकर ही मरोगी. इस दुनिया में औरतों को सिर्फ इस्तेमाल की वस्तु ही समझा जाता है, जिस दिन तुम किसी काम की नहीं रहोगी या इनके सिर पर बैठने की कोशिश करोगी, उस दिन ये तुम्हे खत्म कर देगे. जिनके भरोसे तुम इतना उछल रही हो. वे ही एक दिन तुम्हे दुध में गिरी मख्खी की तरह निकाल कर फेंक देंगे.”

उसकी बात बार-बार मेरे दिमाग पर चोट करने लगी थी. लेकिन मै अब भी यह मानने के लिए तैयार न थी. मेरी ननंद मुझसे मिलने आयी. मैने उसे कहा, “तुम पार्टी अध्यक्ष के घर जाकर उससे मिलो और मुझे यहाँ से छुडाओ उसके बस का नहीं होगा तो, मंत्री से भी मिल लो. जो किंमत बोले दो. तुम्हे एक रात या एक हप्ता के लिए भी बुक कर ले तो भी मान जाना पर मुझे यहाँ से छुड़ा लो प्लीज…” मेरे बोले गये वाक्य के अंत में मेरा स्वर गिडगिडाने जैसा हो गया था.

पुलिस ने मुझे दूसरे दिन कोर्ट में पेश कर सात दिन की रिमांड ले ली थी. सब कुछ मेरे खिलाफ ही जा रहा था. जो कल तक मेरे आगे पिछे घुमते थे. जिन्हे मैने लाखों करोड़ो कमाने में मदद की वे सब मुझसे मुँह फेरने लगे थे. उनके पर्सनल नंबर मेरे लिए ब्लॉक हो गये थे. ननंद उनसे पर्सनली मिलने गई तो उससे मिलने तक से इंकार कर दिया गया.

इन्सपेक्टर मुझे इंटरोगेट करने आया तब मैने उससे बात की. मैने उसे कई ऑफर दिये. उसने मुझे अकेले पाकर एक बात कही, “तुम पुरी तरह फंस चुकी हो, सारे सबुत और गवाह तुम्हारे खिलाफ जमा कर लिये गये है. सात से दस साल के लिए तो तुम अंदर चली ही जाओगी उपर से जो पैसा कमाया है, तुम्हारा फ्लॅट, बैंक अकाउंट, गाडी सब जप्त कर लिया गया है. तुम्हे जो मिल रहा था उसी में खुश रहती ना, राजनीति में जाने की क्या जरुरत थी. क्यों बोला कि तुम्हे पार्षद का चुनाव लड़ना है. तुम जैसी औरतों ने कभी भी अपनी औकात भुलनी नहीं चाहिये. औकात भुलने पर यहीं सब होता है. मै तुम्हारी मदद कर सकता हूं, तुम्हे छुड़ा तो नहीं सकता, पर सजा एक या दो साल तक की हो ऐसा बंदोबस्त कर सकता हूँ. उसके लिये….” वह चुप हो गया.

दो-तीन दिन में मेरी अवस्था खराब हो गई थी तो साल दो साल जेल में रहने की बात सुनकर, मेरा सारा शरीर पसीना छोडने लगा था. हाथ थरथर काँप रहे थे. मै इन्सपेक्टर के पाव पकड़ते हुये बोली, “मुझे निर्दोष छुड़ा दो तुम जो बोलोगे मै करुंगी, मै खुद और मेरी ननंद भी तुम्हारे लिये हमेशा मुफ्त में अवेलेबल रहेंगी. प्लीज… प्लीज.”

वह थोड़ी देर तक मेरी नजरों में नजर डालकर देखता रहा. फिर बोला, “जो मागूंगा दोगी”

“तुम मांगकर तो देखों”

“तुम्हारी बेटी”

मुझ पर बिजली सी गिर पड़ी थी. मेरी बेटी जो अभी सिर्फ चौदाह की थी. पढाई में तेज, जिसे मेरे इन कामों का कुछ भी पता नहीं था. उस तक मैने कभी अपने कामों की हवा तक नहीं पहुंचे दी थी. वह इन्स्पेक्टर मुझसे मेरी बेटी मांग रहा था. मेरा पुरा शरीर ढिला पड़ गया और मै वहीं पर निढाल होकर गिर पड़ी. थोड़ी देर में होश आया तो मै एक सरकारी अस्पताल में एक गंदे से बेड पर पड़ी हुई थी. मेरे हाथों में सलाईन लगी हुई थी. इन्स्पेक्टर की बात मेरे कानों में गुंज रही थी.

मै जिस दलदल में उतरी थी वहाँ चारों ओर किचड ही किचड था. दूर दूर तक कोई ठोस जमीन नही नजर आ रही थी जिस पर मै खड़ी हो सकूं. यह रास्ता मैने ही चुना था. इस दुनिया मे मैने ही प्रवेश किया था. जहाँ सिर्फ और सिर्फ इंसानों को नोंच खाने वाले हैवान ही थे. जिनका जमीर मरा हुआ था. इनमें किसी के प्रति कोई प्रेम, आदर, लगाव और सहानुभूति नहीं थी. पुरी तरह संवेदनहीन समाज का मै हिस्सा बनी हुई थी. मै खुद भी तो वैसी ही हो गई थी. दुसरों की बहु बेटीयों के मजबुरी का फायदा उठाकर उन्हें भी इस दलदल में लेकर आयी थी. लोगों से झुठ बोलकर उनके पैसे ऐंठे थे. न जाने कितने मजबुर लोगों का मैने फायदा उठाया था. तब मेरे भी मन में किसी के प्रति कोई सहानुभूति नहीं जागती थी. तो अब इस दुनिया में रहने वाले भला मेरे प्रति क्यों कोई सहानुभूति दिखायेगे.

मैने जो बोया था आज उसी के फल मुझे मिल रहे थे. मेरी अपनी बेटी  को दांव पर लगाने की बात हो रही थी. यहाँ आर्थिक रुप से मेरा प्रमोशन पर प्रमोशन होता गया पर उतनी ही नैतिक रुप से मै नीचे और नीचे गिरती चली गई थी. मुझे अपनी बेटी को यह जिंदगी नहीं देनी थी. मुझे उसे इस दुनिया से दूर रखना था. सभी सुख सुविधाओं के साथ उसे एक इज्जतदार जिंदगी देनी थी. मै जिस गंदगी में जी रही थी उससे उसे कोसो दूर रखना था. पर मै खुद किचड से इतनी सन चुकी थी की यह भूल गई की मै अपना हाथ भी हिलाऊंगी तो उसके छिटे मेरी बेटी पर पड़ेगे. 

सत्यमेव जयते की वह तख्ती मेरा मुँह चिढ़ा रही थी. असत्य के परतों में छिपा हुआ सत्य मुझे डस रहा था. पर मै उसे बाहर नहीं निकाल पा रही थी. मेरे सत्य कहने पर भी कोई मेरा यकिन नहीं कर रहा था. मेरा उन सफेदपोशों के नाम उजागर करने पर भी कोई मेरी बात को मानने के लिए तैयार नहीं था. उलटे मै अपना दामन बचाने के लिए उन लोगों पर झुठा इल्जाम लगा रही हूँ कहकर मेरे खिलाफ और भी ज्यादा केस मजबुत कर रहे थे. उनके खिलाफ मेरे द्वारा दिये गये सबुत वे नष्ट करते जा रहे थे. यहाँ तक की मेरी ननंद ने भी अब मेरा साथ छोड़ दिया था. वह खुद इस केस में फंस न जाये इसके लिये उसने इन्स्पेक्टर की बात मानकर मेरी बेटी को उनके हवाले कर दिया था. मेरी बेटी भी अपनी माँ को इस मुसीबत से बचाने के लिए उनके सामने समर्पित हो गई थी. यह बात इन्स्पेक्टर द्वारा पता चली तो मै पुरी तरह बिखर चुकी थी.

मै अपनी बेटी तक को बचा नहीं सकती, तो मैने कौनसी ताकत कमाई है. ये जो पैसे कमाये वे भी मेरी बेटी को इस दलदल से बचाने में मेरे काम नहीं आये. मैने सोचा नहीं था मेरा ऐसा अंत होगा. एक शर्मीली युवती का गृहीणी बनकर शुरु हुआ सफर, एक र्क्लक, पोछा वाली से होता हुआ एक कॉलगर्ल वेश्या के पड़ाव पर खत्म हुआ. क्या सच में यह मेरी उन्नती थी ? अपनी जीवन लीला समाप्त करने के अलावा अब कोई दूसरा रास्ता इस काले समाज ने मेरे सामने छोड़ा नहीं था.

तभी मेरे कानों में स्वर पड़ा, “मम्मी” मेरे जिस्म में एक अजीब सी चेतना जागी, मै उस लॉकअप की सलाखें पकड़ कर अपना चेहरा दो सलाखों के बीच से बाहर निकालने की नाकाम सी कोशिश करने लगी. और देखने की कोशिश कि की वह आवाज कहाँ से आयी है. तभी मेरी बेटी मेरे सामने आकर खड़ी हो गई उसके साथ मेरे पिता भी थे. दोनों जज से परमिशन लेकर मुझे मिलने आये थे. मैने अपनी बेटी का चेहरा अपने हाथों से टटोला और पुछा, “इ… इन लोगों ने तुम्हारे साथ कुछ गलत तो नहीं किया ना”

“नहीं माँ जिस दिन पुलिस तुम्हे पकडकर ले गई उसी दिन नानाजी मुझे अपने साथ लेकर गये. बुआ आयी थी मुझे अपने साथ लेकर जाने के लिए पर नानाजी ने मना किया और मैने भी बुवा के साथ जाने से मना कर दिया था.”

“अच्छा ब… बहुत अच्छा, ठीक किया बेटा तुमने, कभी अपने बुवा के साथ नहीं जाना”

और मै उसे समझाने लगी, “देखों बेटा, मैने जीवन में कभी संघर्ष नहीं किया, हमेशा जो मिलता गया उससे मै समझौता करती रही, पर तुम कभी.. कभी समझौता नहीं करना. लड़ना…, हम…हम इन लोगों का कुछ बिगाड नहीं सकते, ये रक्तबीज है, ये कभी खत्म नहीं होगे. मेरे खत्म होने पर तुम्हारी बुवा ने वह जगह ले ली है, तो इस बेईमान पुलिस वाले की जगह कोई दुसरा बेईमान पुलिस वाला ले लेगा. ये ऐसी लकीर है जिसे मिटाने के चक्कर में हम खुद मिट जाते है. लेकिन बेटी तुम… तुम इस लकीर को मिटाने की जगह उसी के नीचे दूसरी लकीर खिंच देना जो इससे भी बड़ी हो. उजाला और अंधेरा यह इस संसार में हमेशा कायम रहता है. बस तुम उजाला इतना बडा दो की अंधेरा धुंधला पड़ जाये. यहीं इनकी हार है. तुम्हे बहुत…बहुत पढ़ना है, लिखना है, कुछ अच्छा बनना है. अच्छे समाज का निर्माण करना है. यह…यह सारा जीवन ही संषर्घ से भरा हुआ है, बेटा पढ़ो, लिखों और अपने जैसे ही लोगो का समुह बनाओ और इस सिस्टम के खिलाफ मरते दम तक संघर्ष करते रहो. अपने आप को ऐसे…ऐसे बनाना की तुमसे जो रोशनी निकले वह दूसरों को भी प्रकाशित कर दे. एक… एक दीये की तरह बनो. मेरे… मेरे जैसे नहीं.” उस पुलिस कस्टडी में बैठे बैठे ही जीवन का यह मर्म जो मेरी समझ में आया वही मै अपनी बेटी को दे रही थी.

मुझे यह जानकर सुकून मिला था की मेरी बेटी अब तक सुरक्षित है. उसे किसी ने कुछ नहीं किया है. पर वह यहाँ रही तो ये उसका नाम लेकर मुझे डराते रहेगे और मेरा नाम लेकर उसे. मैने अपने पिता से कहा, “पिताजी, मेरे नाम से जो कुछ भी था वह तो सारा जप्त हो गया है. लेकिन मैने तुम्हारे और माँ के नाम से कुछ रुपये जमा किये थे तथा कुछ गहने खरीद कर तुम्हारे पास रखे थे. उसमें का एक रुपया भी अब मुझ पर खर्च मत करना. उसे इसकी पढ़ाई के लिए संभालकर रखना. और, आज ही यह शहर छोडकर किसी दूसरे शहर में चले जाओ जहाँ इस पर मेरा तथा इसकी बुवा का साया भी ना पड़े. और फिर कभी चाहे कुछ भी हो जाये यहाँ लौटकर मत आना. मेरी मौत पर भी नहीं. मै नहीं चाहती की अब मै कोई समझौता करु, कमजोर पड जाऊ. आप.. आप.. कभी यहाँ लौटकर नहीं आना”

वे दोनों चले गये. लेकिन वह बात, “तुम एक वेश्या हो और वेश्या की मौत ही मरोगी” सच साब‍ित हो रही थी. शायद कल के सारे अखबार यही छापने वाले थे कि, जेल में अपनी ही साड़ी का फंदा बनकर एक वेश्या ने की आत्महत्या.

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