पिशाच- संजीव पालीवाल राजीव तनेजा द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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पिशाच- संजीव पालीवाल

बचपन में बतौर पाठक मेरी पढ़ने की शुरुआत कब कॉमिक्स से होती हुई वेदप्रकाश शर्मा के थ्रिलर उपन्यासों तक जा पहुँची.. मुझे खुद ही नहीं पता चला। उन दिनों में एक ही सिटिंग में पूरा उपन्यास पढ़ कर खत्म कर दिया करता था। उसके बाद जो किताबों से नाता टूटा
तो वो अब कुछ सालों पहले ही पूरी तारतम्यता के साथ पुनः तब जुड़ पाया जब मुझे किंडल या किसी अन्य ऑनलाइन प्लैटफॉर्म के ज़रिए फिर से वेदप्रकाश शर्मा और सुरेन्द्र मोहन पाठक के दमदार थ्रिलर उपन्यास पढ़ने को मिले।

हालांकि मैं गद्य से संबंधित सभी तरह के साहित्य में रुचि रखता हूँ मगर थ्रिलर उपन्यासों में मेरी गहरी रुचि है कि उनमें पाठकों को पढ़ने के साथ साथ अपने दिमाग़ी घोड़े दौड़ाने का भी पूरा पूरा मौका मिलता है। किंडल पर पिछले कुछ समय से मैं हर महीने सुरेन्द्र मोहन पाठक के कम से कम 4 या 5 थ्रिलर उपन्यास तो पढ़ ही रहा हूँ।

दोस्तों..आज थ्रिलर उपन्यासों की बात इसलिए कि आज मैं थ्रिलर कैटेगरी के जिस रोचक उपन्यास की बात कर रहा हूँ उसे 'पिशाच' के नाम से लिखा है, अपने पिछले उपन्यास 'नैना' से प्रसिद्ध हो चुके लेखक, संजीव पालीवाल ने।

धाराप्रवाह शैली में लिखे गए इस तेज़ रफ़्तार उपन्यास में मूलतः कहानी है एक उम्रदराज प्रसिद्ध कवि के किसी अनजान नवयुवती के द्वारा विभीत्स तरीके किए गए कत्ल और उसके बाद उपजी परिस्थितियों की। जिनमें उसी तरह के विभीत्स तरीके से एक के बाद एक कर के तीन और कत्ल होते हैं। जिनके शिकार राजनीति..प्रकाशन और टीवी चैनल के दिग्गज लोग हैं।

एक के बाद एक हुए इन कत्लों की तफ़्तीश के सिलसिले में कहीं पुलिस अपने पुलसिया रंग ढंग दिखाती नज़र आती है। तो कहीं किसी बड़े टीवी चैनल का सर्वेसर्वा अपनी साहूलियत के हिसाब से कभी इन्हें साम्प्रदायिक रंग देता नज़र आता है। कभी वही चैनल इनका संबंध किसी आतंकवादी घटना से जोड़ अपने चैनल की टी.आर.पी बढ़ाता नज़र आता है। तो वहीं दूसरी तरफ़ कोई अन्य टीवी चैनल टी.आर.पी की परवाह ना करते हुए पूरी संजीदगी से इन कत्लों की प्राप्त सूचनाओं के आधार पर रिपोर्टिंग करता नज़र आता है।

साहित्यिक जगत की परतें उधेड़ते इस हर पल चौंकाने..रौंगटे खड़े कर देने वाले रोचक उपन्यास में और आगे बढ़ने से पहले एक ज़रूरी बात ये कि लेखक के इस उपन्यास के किरदार उनके पिछले उपन्यास 'नैना' से ही जस के तस लिए गए हैं और एक तरह से यह भी कह भी सकते हैं कि यह उपन्यास उनके पिछले उपन्यास का ही एक्सटैंडिड वर्ज़न है।

अमूमन किसी भी संपूर्ण प्रतीत हो रही कहानी में अगर उसके भविष्य में और आगे बढ़ाए जाने की गुंजाइश होती है तो उसका कोई ना कोई सिरा अधूरा छोड़ दिया जाता है। जबकि लेखक ने अपने पिछले उपन्यास 'नैना' की खत्म हो चुकी कहानी और उसके किरदारों को इस उपन्यास में फिर से ज़िंदा करने का प्रयास किया है।

ऐसे में पिछला उपन्यास पढ़ चुका पाठक तो कैसे ना कैसे कर के खुद को उस पुरानी कहानी से कनैक्ट कर लेता है मगर पहली बार लेखक के इस उपन्यास को पढ़ने वाले नए पाठकों का क्या? वो ये सोच के अजीब असमंजस में फँस..ठगा सा रह जाता है कि पुरानी कहानी को कैसे जाने? या तो इस उपन्यास को साइड में रख वह पिछले उपन्यास को पढ़ने का जुगाड़ करे या फिर असमंजस में फँस जैसे तैसे इस उपन्यास को थोड़े अनमने मन से ही सही मगर पढ़ कर पूरा करे।

ऐसे में बेहतर यही रहता कि पुरानी कहानी का बीच बीच में हिंट देने के बजाय इस उपन्यास की शुरूआत में ही पिछले उपन्यास की कहानी का सारांश दे दिए जाने इस हो रही असुविधा से बचा जा सकता था।

प्रूफ़रीडिंग के स्तर पर भी इस बेहद दिलचस्प उपन्यास में कुछ कमियाँ नज़र आयीं जैसे कि..

पेज नंबर 59 के स्वामी गजानन के बारे में लिखी गयी एक फेसबुक पोस्ट में लिखा दिखाई दिया कि..

'ये लोग तो पिशाच होते हैं।'

इसके बाद इसी पेज..इसी पोस्ट के अंत में लिखा दिखाई दिया कि..

'स्वामी गजानन पीडोफाइल है। बच्चियों का शिकारी है। हैवान है। पिशाच है पिशाच!'

इसी पोस्ट को पढ़ने के बाद पेज के अंत में लिखा दिखाई दिया कि..

'अब पोस्ट में लिखे गए एक और शब्द पर समर का ध्यान गया। वह शब्द पोस्ट में दो बार आया था , 'पिशाच' '

यहाँ लेखक लिख रहे हैं कि उक्त फेसबुक पोस्ट में दो बार 'पिशाच' शब्द आया जबकि असलियत में यह शब्द 'पिशाच' दो बार नहीं बल्कि तीन बार आया है।


इसी तरह पेज नंबर 15 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'समर का मन हुआ कि घुमा कर इस आदमी को एक थप्पड़ जड़ दे, पर उसने अपने आप को संयत रखा और पूछा, "ये क्या होता है वंचित, सर्वहारा, हाशिए का समाज और मुख्यधारा? ये कौन सी कविता है?"

इसके बाद पेज नम्बर 127 के अंतिम पैराग्राफ में लिखा दिखाई दिया कि..

'समर को उसकी बातों पर हँसी आ रही थी। हाशिए का समाज और सर्वहारा का मतलब ये आर्मी कैंटोनमेंट में पढ़ने और अँग्रेज़ी मीडियम या कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ने वाली लड़की क्या जाने? सही भी है इससे यह उम्मीद क्यों लगाई जाए।

यहाँ उल्लेखनीय बात ये है कि जो समर उपन्यास की शुरूआत में खुद वंचित, सर्वहारा, हाशिए का समाज या मुख्यधारा जैसे शब्दों से अनभिज्ञ था..उसी समर को इन्हीं शब्दों को ले कर किसी अन्य की अनभिज्ञता पर हँसी आ रही है जबकि वह खुद उस राह का मुसाफ़िर था जिसकी वह तथाकथित कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ने वाली लड़की थी।

पल पल रोचकता जगा..उत्सुकता बढ़ाने वाले इस 239 पृष्ठीय पैसा वसूल उपन्यास को छापा है
वेस्टलैंड पब्लिकेशन प्राइवेट लिमिटेड की Eka इकाई ने और इसका मूल्य रखा गया है 250/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं।