उजाले की ओर –संस्मरण Pranava Bharti द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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उजाले की ओर –संस्मरण

मित्रों

सस्नेह नमस्कार

हमारे जीवन में अक्सर ऎसी बातें  होती हैं जिनसे हम तकलीफ़ में आ जाते हैं | मध्यम वर्गीय आदमी के लिए आज जीवन चलाना कठिन है, यह बात सौ प्रतिशत सही है | हम सभी इस मँहगाई से परेशान हैं फिर भी प्रयास करते हैं कि हम जितना बेहतर अपने बच्चों को दे सकें, दें | मध्यम वर्गीय परिवार अपना पेट काटकर ही बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में पढ़ा सकता है | मतलब कहीं न कहीं तो माँ-बाप को अपने ऊपर कोताही करनी पड़ती है |

एक घर बना लेने से, एक गाड़ी खरीदने से, घर के आधुनिक ताम- झाम जोड़ने से हम उच्च वर्ग में नहीं आ जाते | ये सब आज जीवन की आवश्यकताएँ बन गईं हैं जिनमें कुछ तो ज़रूरी भी हैं और कुछ दिखावा भी हैं | बाज़ारवाद ने हमें इन सब चीज़ों का आदी बनाने में खूब सहायता दी है |

यह बिलकुल सही है कि आदमी को समयानुसार चलना पड़ता है | उसे देखना पड़ता है कि उसकी आवश्यकताओं में से कौनसी अधिक महत्वपूर्ण हैं ? मुझे अच्छी तरह याद है कि मेरी माँ के घर में कोई अंधविश्वास नहीं था | वो खुद इंटर कॉलेज की अध्यापिका थीं, घर का वातावरण आर्य-समाजी था अत : कोई भी काम अन्धविश्वास के तहत नहीं किया जाता था | व्रत-उपवास भी नहीं रखे जाते थे लेकिन हर त्यौहार पर जैसे उत्तर-प्रदेश में त्योहारों का खाना बनता है, वह हर त्यौहार पर बनता था |

उनसे बहुत लोग पूछते भी थे कि जब वे व्रत आदि नहीं करतीं तो त्योहारों पर खाना क्यों बनाती हैं? माँ का कहना होता था कि पड़ौस के घर से पकवान बनने की सुगंध आए तो बच्चे को कैसा लगेगा ? अब बड़ा होकर बच्चा जो भी करे लेकिन मैं अपनी बच्ची के लिए त्यौहार पर खाना ज़रूर बनाऊँगी कि उसको कहीं दूसरी जगह देखकर मन न ललचाए |

आज हमारे बच्चों की उन कचौरी-पूरियों में नहीं पीज़ा, बर्गर, मैक्डॉनल्स आदि में अधिक रुचि  रहती है जो आज के ज़माने में बड़ी आम बात है | जब मध्यम वर्ग के परिवार का बच्चा इन सब चीज़ों में रूचि रखेगा तो गरीब वर्ग के बच्चे का मन क्यों नहीं करेगा ? स्वाभाविक है वह या तो अपने माँ-बाप से ज़िद करेगा या फिर कुछ चोरी-चकारी करना सीख जाएगा | या फिर मन मारकर बेचारगी से सबका मुँह ताकता रहेगा और दूसरों की दृष्टि में 'बेचारा'बनकर रह जाएगा |

यह सब बात मैं इसलिए कर रही हूँ कि हम मध्यम वर्ग के होकर भी बड़े-बड़े मॉल्स से जो चीज़ें खरीदते हैं, बड़े रेस्टोरेंट्स में खाते हैं | लेकिन छोटे दुकानदारों से या छुट-पुट सामान खरीदने वालों से हम ऐसे व्यवहार करते हैं जैसे उन्होंने हमें न जाने कितना लूट लिया  हो --हम यह नहीं समझते कि वो क्यों इस प्रकार का व्यवहार कर जाते हैं ? उनके भी परिवार होता है, उनके बच्चों के भी खाने-पीने की चीज़ों को देखकर दिल ललचाते हैं इसीलिए वे ऐसा कर जाते हैं जैसा मैं आपको नीचे का किस्सा सुनाने जा रही हूँ |

एक सज्जन ने एक किस्सा कुछ ऐसे सुनाया था ---

"मैं आज आपको अपने बीते दिनों की बात बताता हूं। मैंने सब्जी मंडी में  रेहड़ी लगाए हुई एक औरत से सेब खरीदे। उसके रेट काफी कम पर जायज़ लगे दूसरों से। इस तरह मैंने उसी औरत से जब तीसरी बार भी सेब खरीदे तब घर पर आ कर मैंने अगले दिन गौर किया और याद किया कि  हर बार वो सेब वो नहीं होते थे जो मैं छांटता था । मैं अपनी तरफ से अच्छे और बड़े आकार के सेब ही छांटता था।मेरे मन में आया के जरूर वो औरत कुछ गड़बड़ करती है। जब चौथी बार मैंने उससे सेब खरीदे तब उसने पॉलीथीन में गांठ लगा कर दिए।मुझे तब तक कोई शंका भी नहीं हुई थी के वो गेम खेल चुकी है मेरे साथ।मैंने उसे पैसे दिए और इस बार वही खड़े खड़े उस पॉलीथीन की गांठ खोलने लगा।मुझे ऐसा करते देख वो बोली के लाओ इसे बड़ी थैली में डाल दूं(ताकि मुझे उसको खोलने से रोक सके)।तब तक भी मुझे कोई शक नहीं हुआ था।मैंने उसे मना किया और वहीं गांठ खोल दी।क्या देखता हूं के उसमें  छोटे आकार के सेब थे।मैंने उसे चुपचाप शांत रह कर कहा के ये सेब वो नहीं जो मैंने छांटे  थे।तब पहली बार मैंने ध्यान दिया के उसकी रेहड़ी पर एक तरफ कुछ और भी थैलियां थीं जिनमें सेब थे। मैं सारा माजरा समझ गया और यकीन हो गया कि  वो सब चालाकियां वहीं करती थी।वो सेब छांट कर रखने के लिए सभी ग्राहक को सफेद थैली  देती थी और नजर बचा कर रेहड़ी पर रखी उसकी थैली  को अपनी थैली से बदल देती थी जिसमें  उसने पहले से ही छोटे आकार के सेब रखे होते थे।"

यह बात वास्तव में अच्छी नहीं थी लेकिन मेरे मन में कई सारे प्रश्न उठा गई थी जिन्हें मैंने मित्रों से साझा किया है | बाद में उन्होंने कहा; "ईश्वर उसे सद्बुद्धि दे"ठीक कहा लेकिन तुरत ही मेरे मन में बात आई कि क्या हम सबको ही सद्बुद्धि की ज़रुरत नहीं है? हममें भी तो कुछ सोचने-विचारने का मस्तिष्क होना चाहिए, एक उसको ही क्यों ?

सस्नेह

आपकी मित्र

डॉ. प्रणव भारती