बड़े गुरुजी (संस्मरण) राज कुमार कांदु द्वारा कुछ भी में हिंदी पीडीएफ

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बड़े गुरुजी (संस्मरण)


जी हाँ, हम लोग उन्हें बड़े गुरूजी ही कहते थे। तब हम कक्षा तीसरी के विद्यार्थी थे जब हम उन्हें पहचानने लगे थे। लंबा कद, कठोर अनुशासन के पक्षधर, चेहरे से मुस्कान तो जैसे हमेशा कोसों दूर रहती हो ऐसे सख्त अध्यापक की छवि लिए हुए वह हमारे विद्यालय के मुख्याध्यापक थे।

यूँ तो मैं कक्षा दूसरी भी उसी विद्यालय से उत्तीर्ण हुआ था, लेकिन दूसरी कक्षा में ज्यादा नहीं पढ़ सका था। उसकी वजह थी। शैक्षणिक सत्र 1971-72 के लिए जनवरी 1972 में मेरा दाखिला दूसरी कक्षा में हुआ था। उन दिनों विद्यालयों में दाखिले के लिए किसी प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं पड़ती थी।

घर पर ही पिताजी के द्वारा अक्षरज्ञान कराने की वजह से किताबें भलीभाँति पढ़ लेता था। दाखिले के वक्त बड़े गुरूजी ने बालभारती से एक कठिन शब्दों वाला पाठ जिसमें स्वतंत्रता दिवस, स्वाधीनता, गणवेश जैसे शब्द थे पढ़ने के लिए दिया। वह पाठ मैंने फर्राटे से पढ़ लिया और विद्यालय में दाखिला मिल गया।

दाखिले के लगभग तीन महीने बाद ही परीक्षा हुई जिसमें मैं अपने वर्ग में प्रथम आया था। उत्साह चरम पर था।

भरपूर प्रयास के बावजूद तीसरी कक्षा की पढाई कुछ समझ नहीं आ रही थी। अभ्यासक्रम काफी कठिन महसूस हो रहा था क्योंकि इसके पहले कभी नियमित अभ्यास किया नहीं था और निश्चित ही थोड़ी लापरवाही भी हुई।

प्रथम सत्र के परीक्षा के परिणाम सुनाये गए तो मैं सभी विषयों में उत्तीर्ण था। उत्तीर्ण भूगोल में भी था लेकिन भूगोल के पेपर में लिखे कुछ जवाबों के कारण मेरी जमकर फजीहत बड़े गुरुजी ने की थी जिसके बाद तो पढाई के प्रति मेरा नजरिया ही बदल गया।

हुआ यूँ था कि भूगोल में जिला गाँव राज्य आदि की जानकारी खाली जगहों में भरनी थी। मेरी समझ के मुताबिक मुझे बहुत पहले से ही यह सब पता था इसलिए कभी किताब उठाकर नहीं देखा और न ही कक्षा में कभी इसपर ध्यान दिया था।

मैं मूल रूप से उत्तरप्रदेश के एक देहात से हूँ। मुझे जानकारी थी मेरे मातृभूमि के बारे में जो कि पहले हर माँ बाप अपने बच्चों को रटाते थे और मैंने वही सब उत्तर पुस्तिका में लिख दिया था।

पूरी क्लास के बच्चों के सामने मेरी उत्तर पुस्तिका निकाल कर दिखाई गई और मैं हँसी का पात्र बन गया। हँसी के बीच में ही डाँट का मिश्रण भी था। उस दिन के बाद से ही सभी बच्चे बड़े गुरूजी को देख कर ही सहम जाते थे।

एक बार सामान्य खेल कूद की कक्षा के दौरान आयोजित प्रतियोगिता में मैंने भाग लिया था। दौड़ कर मैं सबसे पहले पहुँचा भी लेकिन संकोचवश अंतिम सिरे पर खड़े बड़े गुरूजी का हाथ नहीं पकड़ा, इसीलिए मेरे बहुत पीछे आनेवाले छात्र को विजेता घोषित कर दिया गया। हाथ पकड़ने के इस नियम से मैं अंजान था। उसके बाद स्कूल स्तर पर किसी भी प्रतियोगिता में भाग नहीं लिया, लेकिन किसी भी कार्य को करने से पहले नियमों की जानकारी लेने की मेरी आदत बन गई।

उनका यह व्यवहार ही मेरे अन्दर काफी कुछ बदलाव ले आया था। क्लास में हुई फजीहत दुबारा न हो इसलिए क्लास में पढाये जानेवाले हर विषय को ध्यान से सुनने लगा।

तब गृहकार्य वगैरह देने का प्रचलन नहीं था और होता भी तो शायद हम लोग नहीं कर पाते क्योंकि घर पर पहुँचने के बाद दुबारा किताबों को हाथ लगाने की फुरसत हमें नहीं मिलती थी। बाकी समय हम लोग अपने दुकान पर ही छोटे मोटे काम करते रहते थे।

तीसरी की वार्षिक परीक्षा का नतीजा जब आया तब मैं बहुत खुश हुआ। मैं अपनी कक्षा में द्वितीय आया था।

चौथी में बड़े गुरूजी हमारे हिंदी के अध्यापक थे. गृहकार्य के रूप में एक पेज श्रुतलेख घर से लिख कर लाने के लिए मिलता था जिसे हम घर से निकलने के बाद रस्ते में ही लिखते थे। घर से स्कूल के बीच पैदल चलने के अलावा हमें पाँच मिनट की रेल यात्रा भी करनी पड़ती थी। इसी रेलयात्रा के दौरान हम गृहकार्य कर लेते थे।

रोज सुबह ही सबकी कापियाँ टेबल पर जांचने के लिए रख दी जातीं।

एक दिन बगल के क्लास रूम में पहली कक्षा के बच्चों को एक कविता चंदामामा दूर के … पढाया जा रहा था। बच्चे लय में एक साथ वह कविता जोर जोर से बोल रहे थे।

उस दिन हमारी क्लास में कोई अध्यापक नहीं था सो बच्चे मस्ती करने के लिए आजाद थे।

बगल के कमरे से आती आवाज की धून पर मैंने एक कापी में लिख दिया..
बड़े गुरूजी आयेंगे
लड्डू पेडा लायेंगे
हम खुश होकर खायेंगे,

मिलकर ढोल बजायेंगे

संयोग से बेख्याली में मैंने यह रफ कॉपी की बजाय श्रुतलेख की कापी में ही लिख दिया था जिसे अगले दिन बड़े गुरूजी ने देख लिया और हँसते हुए पढ़कर पूरी क्लास में सुनाया। कहाँ तो मैं डर रहा था कि वह बहुत नाराज होंगे लेकिन उनको प्रसन्न मुद्रा में देख राहत मिली और साथ ही हैरत भी हुई।

बड़े गुरूजी के कठोर चेहरे और रौबदार व्यक्तित्व के साथ ही उनके कोमल हृदय का अहसास कराती और उनकी संवेदनशीलता को दर्शाती एक घटना और है जो मैं कभी नहीं भूल सकता।

हमारा विद्यालय सरकारी सहायता प्राप्त निजी विद्यालय था जो उस समय विरार के सुप्रसिद्ध समाजसेवी स्व.श्री मुनेश्वर तिवारी जी के सद्प्रयासों से संचालित होता था। विद्यार्थियों से कभी कोई फीस कोई दान वगैरह नहीं ली जाती थी।

स्कूल के पास अपनी दो मंजिला ईमारत के अलावा कुछ भी नहीं था। पीने के पानी के लिए बच्चों को कई बार भटकना पड़ता था।

1975 में जब मैं कक्षा पाँच का विद्यार्थी था स्कूल में पीने के पानी का इंतजाम करने के लिए पाँच रूपए प्रति छात्र से जमा कराना तय हुआ।

सभी छात्रों के पैसे जमा हो गए थे सिवाय मेरे। कुछ दिनों बाद बड़े गुरूजी ने मुझे अपने पास बुलाया और इस बारे में पूछा। मैंने असमर्थता जाहीर की। अंतिम चेतावनी के तौर पर उन्होंने कहा, "कल अगर तुम पैसे नहीं लाये तो तुम्हारा नाम स्कूल से निकाल दिया जायेगा।"

यहाँ यह बताना आवश्यक है कि उन दिनों हमारे पिताजी व माताजी गाँव गए हुए थे और संरक्षक के तौर पर हमारे चाचाजी ही यहाँ पर थे। कोई आर्थिक परेशानी हमारी समझ से तो नहीं थी। उस समय भी बड़ी अच्छी आमदनी होने के बावजूद चाचाजी स्कूल में पाँच रुपये देने के खिलाफ थे। उनकी नजर में यह स्कूल वालों की मनमानी थी। बड़े गुरूजी की चेतावनी के बारे में बताते ही वह एकदम से चिढ गए और बोले, "बोल दो उनसे जाकर कि चाहे भले ही नाम काट दो लेकिन मैं पैसे नहीं दूँगा।”

दूसरे दिन बड़े गुरूजी ने फिर मुझे बुलाया और पूछा। मैं भी उधर चाचाजी और इधर बड़े गुरूजी के दबाव से तंग आ गया था। जैसा चाचाजी ने कहा था ठीक वैसे ही बड़े गुरूजी को बता दिया।

थोड़ी देर तक तो बड़े गुरूजी शांत चित्त बैठे रहे और फिर बोले, "शायद तुम्हारे चाचाजी अड़ियल किस्म के इंसान हैं जिन्हें स्कूल के बारे में गलतफहमी हो गई है। वो नहीं समझ रहे हैं कि वो क्या कर रहे हैं। तुम पढ़ने में होशियार हो, सो पढ़ लिखकर कुछ बन सकते हो। उनकी ही तरह अगर मैं भी सोचूँ तो तुम्हारी जिंदगी बर्बाद हो जाएगी लेकिन फिर उनमें और मुझमें फर्क क्या रह जायेगा ?”
और उसके बाद उन्होंने फिर कभी इस बारे में नहीं पूछा।

पढाई का महत्व तब भला मैं कैसे समझ पाता ? तब तो मैं खुश था कि अब और क्या पढ़ना ? गाँव जाने पर सभी गाँव वाले अपनी चिट्ठियां मुझसे ही पढ़वाने आते थे। चिट्ठी पढ़ने से ज्यादा शिक्षा की और क्या जरूरत थी ?

अब सोचता हूँ तो यही समझ में आता है कि तब शायद लोगों की सोच ही ऐसी थी, लेकिन हमारे बाबूजी की सोच ऐसी नहीं थी।

गाँव से आने के बाद उन्होंने स्कूल में पैसे जमा करवाए और स्कूल की कभी छुट्टी नहीं करने दी।

सातवीं उत्तीर्ण करने के बाद हमें दूसरे स्कूल में दाखिल होना पड़ा था और उसके बाद फिर हम लोग बड़े गुरूजी से कभी नहीं मिल पाए।

यदि चाचाजी की हठधर्मिता को देखते हुए बड़े गुरूजी ने वैसा ही किया होता तो आज मैं कहाँ होता और क्या होता यह मैं अब समझ सकता हूँ।

आज भी कभी कभी उनकी भलमनसाहत याद आते ही मन उनके प्रति अगाध श्रद्धा से भर उठता है।

अक्सर हम कहते हैं कि हम जो देखते हैं हरदम वही सत्य नहीं होता। इस बात का सटीक प्रमाण थे हमारे बड़े गुरुजी। दिखने में बेहद कठोर व अनुशासित लेकिन अंदर से मक्खन से भी मुलायम, कोमल हृदय !

बड़े गुरुजी ! आपको शतशत नमन 🙏🙏