अपंग - 38 Pranava Bharti द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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अपंग - 38

38

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दिन ढले से लेकर रात बढ़ बजे तक भानुमति मि.दीवान के साथ व्यस्त रही | सारे संदेह धीरे-धीरे पुष्टि जा रहे थे | दीवान जी के साथ बैठकर धीरे-धीरे सारी बातें उसकी समझ में आ गईं थीं | उनकी सहायता से उसने बहुत सी गुत्थियाँ सुलझा लीं थीं | वह तो पहले ही समझ रही थी और बात स्पष्ट हो गई कि यह सब सक्सेना और धूर्त पंडित जी की मिली भगत थी | पुराने लोगों को निकालकर नई भर्तियों के लिए कमीशन खाना उनका शगल बन गया था | अब भानु को पूरी तरह समझ में आ गया था कि पिछले वर्षों में इतनी सारी नई भर्तियाँ कैसे हुई हैं और अनुभवी लोगों को क्यों निकाला गया है |

दरसल, बाबा इतने बीमार भी नहीं थे जितना उन्हें माँ ने बना दिया था | कभी-कभी बेकार की चिंता भी अच्छे-ख़ासे आदमी को मनोवैज्ञानिक तौर पर बीमार कर देती है | यही बाबा के साथ हुआ | भानु के जाने से वे पहले ही मानसिक रूप से कमज़ोर पद गए थे फिर माँ की हर समय की रोक-टोक ने उन्हें और भी अस्वस्थ्य कर दिया |

अगले दिन बातों ही बातों में भानु अचानक ही पूछ बैठी ;

"अब तो आप ठीक हैं न बाबा ?"

"हाँ.बेटा ---क्यों ?"

"तब फिर आप फ़ैक्ट्री क्यों नहीं जाते ?"आपको काम से काम हर दिन दो-चार घंटे के लिए तो फ़ैक्ट्री जाना ही चाहिए ---" उसने बाबा से कहा |

"क्या पागलपन की बात कर रही है ---" माँ चिढ़ सी गईं |

"क्यों ? क्या हर्ज़ है ?जब बाब बीमार थे तब की बात और है, अब वे बिलकुल ठीक हैं | घर पर बैठा आदमी कितना परेशान हो जाता है माँ --- उन्हें अब ज़रूर जाना चाहिए |" भानु ने माँ को जवाब दिया |

"इतना ही काम बढ़ाने क शौक है तो चली क्यों नहीं आती हो यहाँ पर ? अब क्या इतना बोझ ढोने की उम्र है इनकी ?" फिर पंडित जी ----"

"भाड़ में गए पंडित जी ---" भानु बिफर पड़ी |

"शुभ-शुभ बोलना सीख भानुमति ---लड़की जैसे लक्षण तो रख --माँ बन गई है और बीटा तक याद नहीं आता तुझे ---फिर और क्या ?" माँ पर तो जैसे चंडी चढ़ गई थी |

"माँ ! मैं तो माँ हूँ पर तुम तो माँ की माँ हो ---" भानु ने अपने स्वर को सहज और संयत किया हुआ था | माँ की बातें उसके मन में खंजर सी चुभ गईं थीं | उसकी लाचारी यह थी कि न तो वह अपने बारे में किसी से कुछ कह सकती थी और न सबंधों के बारे में ! किसको बताए अपनी पीड़ा ? किसे साझा करे ? था कोई उसके लिए ?

"जब पुनीत तुम्हारे पास है तो मुझे उसकी चिंता करने की क्या ज़रुरत है भला ?" उसने माँ के गले में बाहें डालकर माँ को मनाने की कोशिश की | फिर बोली ;

"अच्छा, बताओ, खाली दिमाग़ शीतन का घर होता है या नहीं ?"

"तो ?"

"तो ये कि बाबा को भेजो फ़ैक्ट्री --क्यों उन्हें घर पर बैठकर रखती हो ? कितनी म्हणत से उन्होंने उसे बनाया है | उनके लिए तो उनका बच्चा है वो ---और इससे भी बढ़िया बताऊँ एक बात ? आप भी बाबा के साथ जाओ ---"

"अब, इस उम्र में ?" माँ को लगा उनकी बेटी पगला गई है | जब सारे बच्चे अपने माँ-बाप को काम करने के लिए ज़िद करके मना करते हैं वहीं हमें ये काम करने के लिए कह रही है !

"क्या उम्र है आप दोनों की ? पचास के आस-पास, ये बुढ़ापा है ?आप भी माँ ---"

"अगर तू यहाँ होती तो और बात थी ---" माँ को कुछ तो कहना ही था | असली बात तो यही थी, उससे नाराज़ तो थे ही दोनों |

"हाँ, ये तो आप बिलकुल ठीक कह रही हो, पर अब जो किया है, वह तो भोगना ही पड़ेगा न !" भानु ने दुखी होकर कहा तो माँ पिघलने लगी ---ये माँ भी न जाने किस धातु की बनी होती है ?

"ऐसा क्यों बोल रही है मेरी बच्ची ? क्या किया है तूने ?तू तो जानती है, बड़ा गर्व है हमें तुझ पर ! अब तो अपने इतना प्यार करने वाले पति के साथ ही रह, कितना प्यार करने वाला पति ढूँढा है तूने ---! जबसे आई है फ़ोन पर फ़ोन आते रहते हैं --बस, पता नहीं हमसे ही क्यों बात नहीं करता ? तूने बताया भी है कितनी बार बहुत बिज़ी रहता है ! ----हम ये थोड़े ही चाहेंगे कि तेरा घर टूटे !" माँ की आँखें भर आईं और बोल भरभराने लगे |

भानु अपने आपको कंट्रोल नहीं कर सकी उसकी आँखों में आँसू भर आए और वह उन्हें छिपाने के लिए अपने कमरे में चली गई | फ़ोन किसके आते थे, माँ को कैसे बताती ?

भ्रम बना ही रहे तो अच्छा है, केवल इसी कारण से उसे जाना होगा | वह माँ-बाबा को अपने 'सेपरेशन' की पीड़ा नहीं देना चाहती थी | वैसे उसका मन अब यहीं जमने का हो रहा था | कितना सहारा है उससे माँ-बाब को !पर --कहाँ से लाए इतना साहस कि माँ-बाबा का भरम तोड़ दे ! नहीं, वह ये नहीं कर सकती थी ---उसने रिचार्ड को धन्यवाद दिया जो उसकी इतनी सहायता कर रहा था ---वरना -----||