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परोपकारार्थ मिदं शरीरम्।

"परोपकारार्थ मिदं शरीरम्"

परोपकार शब्द 'पर और उपकार' शब्दों से मिल कर बना है जिसका अर्थ है दूसरों पर किया जाने वाला उपकार। ऐसा उपकार जिसमें कोई अपना स्वार्थ न हो उसे परोपकार कहते हैं।परोपकार का अर्थ है दूसरों की भलाई करना। परोपकार के समान कोई धर्म नहीं है। परोपकार ऐसा कार्य है, जिससे शत्रु भी मित्र बन जाता है।परोपकार एक सामाजिक भावना है। इसी के सहारे इमारा सामाजिक जीवन सुखी और सुरक्षित रहता है। परोपकार की भाषा से ही हम अपने मित्रों, साथियों, परिचितों और अपरिचितों की निष्काम सहायता करते हैं। प्रकृति हमें परोपकार की शिक्षा देती है।
परोपकार को सबसे बड़ा धर्म कहा गया है और करुणा, सेवा सब परोपकार के ही पर्यायवाची हैं। जब किसी व्यक्ति के अन्दर करुणा का भाव होता है तो वो परोपकारी भी होता है।

परोपकार : संस्कृत श्लोक
(१)
"परोपकाराय फलन्ति वृक्षाः परोपकाराय वहन्ति नद्यः ।
परोपकाराय दुहन्ति गावः
परोपकारार्थ मिदं शरीरम् ॥"

अर्थात - "परोपकार के लिए वृक्ष फल देते हैं, नदीयाँ परोपकार के लिए ही बहती हैं और गायें परोपकार के लिए दूध देती हैं; अर्थात् यह शरीर भी परोपकार के लिए ही है ।"

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(२)
रविश्चन्द्रो घना वृक्षा नदी गावश्च सज्जनाः ।एते परोपकाराय युगे दैवेन निर्मिता ॥

भावार्थ :
सूर्य, चन्द्र, बादल, नदी, गाय और सज्जन - ये हरेक युग में ब्रह्मा ने परोपकार के लिए निर्माण किये हैं ।
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(३)
परोपकारशून्यस्य धिक् मनुष्यस्य जीवितम् ।जीवन्तु पशवो येषां चर्माप्युपकरिष्यति ॥

भावार्थ :
परोपकार रहित मानव के जीवन को धिक्कार है । वे पशु धन्य है, मरने के बाद जिनका चमडा भी उपयोग में आता है ।
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(४)
आत्मार्थं जीवलोकेऽस्मिन् को न जीवति मानवः । परं परोपकारार्थं यो जीवति स जीवति ॥

भावार्थ :
इस जीवलोक में स्वयं के लिए कौन नहीं जीता ? परंतु, जो परोपकार के लिए जीता है, वही सच्चा जीना है ।
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(५)
परोपकृति कैवल्ये तोलयित्वा जनार्दनः । गुर्वीमुपकृतिं मत्वा ह्यवतारान् दशाग्रहीत् ॥

भावार्थ :
विष्णु भगवान ने परोपकार और मोक्षपद दोनों को तोलकर देखे, तो उपकार का पल्लु ज्यादा झुका हुआ दिखा; इसलिए परोपकारार्थ उन्हों ने दस अवतार लिये ।
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(६)
श्लोकार्धेन प्रवक्ष्यामि यदुक्तं ग्रन्थकोटिभिः । परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ॥

भावार्थ :
जो करोडो ग्रंथों में कहा है, वह मैं आधे श्लोक में कहता हूँ; परोपकार पुण्यकारक है, और दूसरे को पीडा देना पापकारक है ।
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(७)
भवन्ति नम्रस्तरवः फलोद्रमैः नवाम्बुभिर्दूरविलम्बिनो घनाः । अनुद्धताः सत्पुरुषाः समृद्धिभिः स्वभाव एवैष परोपकारिणाम् ॥

भावार्थ :
वृक्षों पर फल आने से वे झुकते हैं (नम्र बनते हैं); पानी में भरे बादल आकाश में नीचे आते हैं; अच्छे लोग समृद्धि से गर्विष्ठ नहीं बनते, परोपकारियों का यह स्वभाव हि होता है ।
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(८)
राहिणि नलिनीलक्ष्मी दिवसो निदधाति दिनकराप्रभवाम् । अनपेक्षितगुणदोषः परोपकारः सतां व्यसनम् ॥

भावार्थ :
दिन में जिसे अनुराग है वैसे कमल को, दिन सूर्य से पैदा हुई शोभा देता है । अर्थात् परोपकार करना तो सज्जनों का व्यसन-आदत है, उन्हें गुण-दोष की परवा नहीं होती ।
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(९)
पिबन्ति नद्यः स्वयमेव नाम्भः स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षाः । नादन्ति सस्यं खलु वारिवाहाः परोपकाराय सतां विभृतयः ॥

भावार्थ :
नदियाँ अपना पानी खुद नहीं पीती, वृक्ष अपने फल खुद नहीं खाते, बादल खुद ने उगाया हुआ अनाज खुद नहीं खाते । सत्पुरुषों का जीवन परोपकार के लिए हि होता है ।

अस्मिन् एव जगति एवविधाः अपि जनाः सन्ति ।
ये आत्मनः अकल्याणं कृत्वाऽपि परेषां कल्याणं कुर्वन्ति ते एवम् परोपकारिणः सन्ति।
परोपकारः दैव भावः अस्ति।
अस्य भावस्य उदयेन एव समाजस्य देशस्य च प्रगतिः भवति।

अर्वाचीन हिन्दी दोहे
(१)
परोपकार की भावना, मानवता का मूल।
जिस उपवन में यह बसे, खिलें प्रेम के फूल।।

(२)
बुरे कर्म की भावना होती है अभिशाप।
परहित जीवन सौंप कर, पुण्य कमा लो आप।।

(३)
सेवा भाव हृदय बसे, प्रभु चरणों में ध्यान।
परहित सेवा से मिले, धरती पर भगवान।।

(४)
परोपकारी बन मिले, सब ही से आशीष।
जैसे – जैसे हम झुकें, उठे गर्व से शीश।।

(५)
है धर्मार्थ उदारता, मानवता का सार।
जितना संभव हो सके, करो सदा उपकार।।
(६)
मिले मान-सम्मान सब, जन-जन में हो नाम।
देव तुल्य मानव करे, परोपकारी काम।।
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प्राचीन हिन्दी दोहे
(१)
यों रहीम सुख होत है, उपकारी के संग । बाँटन वारे को लगै, ज्यो मेहदी को रंग ।। तरुवर फल नहिं खात है, नदी न संचै नीर। परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।।
(२)
धन रहै न जोबन रहे, रहै न गांव न ठांव।
कबीर जग में जस रहे, करिदे किसी का काम।

संत कबीर दास जी कहते हैं कि एक दिन यह न धन रहेगा न यह यौवन ही साथ होगा। गांव और घर भी छूट जायेगा पर रहेगा तो अपना यश, यह तभी संभव है कि हमने किसी का काम किया हो।
(३)
स्वारथ सूका लाकड़ा, छांह बिहना सूल।
पीपल परमारथ भजो, सुख सागर को मूल।।

संत कबीरदास जी का कहना है कि स्वार्थ तो सूखी लकड़ी के समान हैं जिसमें न तो छाया मिलती है और न ही सुख। एक तरह से वह कांटे की तरह है। इसके विपरीत परमार्थ पीपल के पेड़ के समान हैं जो सुख प्रदान करता है।

संकलन एवं प्रस्तुतकर्ता: डॉ. भैरवसिंह राओल

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