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महापुरुष के जीवन की बात - 7 - रामप्रसाद बिस्मिल

मित्रों, आज ओर एक महापुरुष के जीवन पर लिखने जा रहे हैं !
आप मेरी बातो को पढेगे ओर जीवन में उतारने का प्रयास करेंगे तो मेरा प्रयास सार्थक होगा ऐसा में मानता हूं! मेरी स्टोरीज को रेंटिंग नहीं देंगे तो चलेगा लेकिन पढना लास्ट तक! यही मेरी आप सबसे गुजारिश है!

मां भारती के महान क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल के जीवन पर कुछ बातें करने वाला हुं। रामप्रसाद बिस्मिल जी के जीवन और कवन की बात दो पार्ट में करुंगा।

राम प्रसाद बिस्मिल का जन्म ११ जून १८९७ को उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर शहर के खिरनीबाग मुहल्ले में जन्म हुआ था। रामप्रसाद अपने पिता मुरलीधर और माता मूलमती की दूसरी सन्तान थे। उनसे पूर्व एक पुत्र पैदा होते ही मर चुका था। बालक की जन्म-कुण्डली व दोनों हाथ की दसो उँगलियों में चक्र के निशान देखकर एक पंडित जी ने भविष्यवाणी की थी - "यदि इस बालक का जीवन किसी प्रकार बचा रहा , यद्यपि सम्भावना बहुत कम है, तो इसे चक्रवर्ती सम्राट बनने से दुनिया की कोई भी ताकत रोक नहीं पायेगी।'' माता-पिता दोनों ही सिंह राशि के थे और बच्चा भी ' सिंह ' जैसा लगता था । अत पंडित जी ने बहुत सोच विचार कर तुला राशि के नामाक्षर पर नाम रखने का सुझाव दिया। माता-पिता दोनों ही राम के आराधक थे । अतः बालक का नाम रामप्रसाद रखा गया। माँ मूलमती तो सदैव यही कहती थीं कि उन्हें राम जैसा पुत्र चाहिये था। बालक को घर में सभी लोग प्यार से राम कहकर ही पुकारते थे।



रामप्रसाद बिस्मिल जब बालक थे , तभी से उसका शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाने लगे। उसका मन खेलने में अधिक किन्तु पढ़ने में कम लगता था। इसके कारण उनके पिताजी तो उसकी खूब पिटायी करते थे लेकिन मां को दर्द होता है इसलिए वो रामप्रसाद बिस्मिल जी को प्यार से यही समझाती कि "बेटा राम! ये बहुत बुरी बात है मत किया करो।" इस प्यार भरी सीख का उसके मन पर कहीं न कहीं प्रभाव अवश्य पड़ता। उसके पिता ने पहले हिन्दी का अक्षर-बोध कराया किन्तु उ से उल्लू न तो उन्होंने पढ़ना सीखा और न ही लिखकर दिखाया। उन दिनों हिन्दी की वर्णमाला में उ से उल्लू ही पढ़ाया जाता था।


इस बात का वह विरोध करते थे और बदले में उसके पिता जी की मार भी खाते थे। हार कर उसे उर्दू के स्कूल में भर्ती करा दिया गया। शायद यही गुण के चलते रामप्रसाद को एक क्रान्तिकारी बना पाये।


जब खेलने की उम्र होती है ऐसे समय में अपने पिता की सन्दूकची से रुपये चुराने की लत पड़ गयी। चुराये गये रुपयों से उन्होंने उपन्यास खरीदकर पढ़ना प्रारम्भ कर दिया। सिगरेट पीने व भाँग चढ़ाने की आदत भी पड़ गयी थी। रुपये - चोरी का सिलसिला चलता रहा और एक दिन उसके पिता ने रामप्रसाद को चोरी करते हुए पकड़ लिया । खूब पिटाई की और उसके उपन्यास व अन्य किताबें फाड़ डाली गयीं लेकिन रुपये चुराने की आदत नहीं छूटी। आगे चलकर जब उनको थोड़ी समझ आयी तभी वे इस दुर्गुण से मुक्त हो सके।


उसके गांव के एक पुजारी ने रामप्रसाद को पूजा-पाठ की विधि का ज्ञान करवा दिया। पुजारी एक विद्वान व्यक्ति थे उनके व्यक्तित्व का प्रभाव रामप्रसाद के जीवन पर भी पड़ा। पुजारी के उपदेशों के कारण रामप्रसाद पूजा-पाठ के साथ ब्रह्मचर्य का पालन करने लगा। पुजारी की देखा-देखी रामप्रसाद ने व्यायाम करना भी प्रारम्भ कर दिया। बाल्यकाल के चली आई की जितनी भी कुभावनाएँ एवं बुरी आदतें मन में थीं वे भी छूट गयीं। एक आदत सिगरेट पीने की थी वो लत नहीं छूटी। लेकिन उसके बाद जब विद्यालय के एक सहपाठी सुशीलचन्द्र सेन की सत्संगति से छूट गयी। सिगरेट छूटने के बाद रामप्रसाद का मन पढ़ाई में लगने लगा।

रामप्रसाद बिस्मिल जी नियमित रूप से पूजा-पाठ में समय व्यतीत करने लगे। इसी दौरान वह मन्दिर में आने वाले मुंशी इन्द्रजीत से उसका सम्पर्क हुआ। मुंशी इन्द्रजीत ने रामप्रसाद को आर्य समाज के सम्बन्ध में बताया और स्वामी दयानन्द सरस्वती की लिखी पुस्तक ' सत्यार्थ प्रकाश ' पढ़ने को दी। सत्यार्थ प्रकाश के गम्भीर अध्ययन से रामप्रसाद के जीवन पर आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ा ।रामप्रसाद जब आठवीं कक्षा के छात्र थे तभी संयोग से स्वामी सोमदेव का आर्य समाज भवन में आगमन हुआ। और उसी वक्त मुंशी इन्द्रजीत ने रामप्रसाद को स्वामीजी की सेवा में नियुक्त कर दिया। यहीं प्रसंग से उनके
जीवन की दशा और दिशा दोनों में परिवर्तन प्रारम्भ हुआ। उसके मन में देश प्रेम भाव जागृत होने लगा।


रामप्रसाद बिस्मिल जी के जीवन की बात दुसरे पार्ट में करुंगा।