अनसुनी कहानियाँ - 2 - (शनिवार वाड़ा ) karan kumar द्वारा डरावनी कहानी में हिंदी पीडीएफ

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अनसुनी कहानियाँ - 2 - (शनिवार वाड़ा )

हेल्लो दोस्त कैसे हो ।
उम्मीद करता हूँ की आप सब ठीक होंगे।
किसी जगह का इतिहास और उस जगह से जुडी रहस्मय और दिलचस्प कहानियां उम्मीद करता हूँ की आपको काफी पसन्द आई होगी।

भारत एक बहुत ही सुंदर देश है जिसमे खूबसूरत जगह की कोई कमी नही है। उसके साथ ही यहां भूतिया , रहस्मय और डरावनी जगह की भी कमी नही है।
जिसके बारे में बहुत से किसे और कहानिया प्रचलित है।

आज में आपको एक ऐसे किले के बारे में बताने वाला हूँ।
जिसके बारे में आपने पहले भी सुना होगा।
जिसको बहुत ही खूबसूरती से बनवाया गया था।
जिसका कभी बहुत नाम हुआ करता था।

लेकिन अब ये एक खण्डर में तब्दील हो गया है।
जिसका नाम सुनते ही लोगो की रूह काँप जाती है।
जहां दिन में काफी सैलानियों का डेरा रहता है
पर रात होते ही ये वीरान हो जाता है।

हम बात कर रहे है पुणे महाराष्ट्रा में स्थित शनिवार वाड़ा की जो भारत के एतिहासिक एवं प्रमुख स्थलों में शामिल है।भारत में लोग भले ही इसके बारे में कम जानते हो।
पर मराठी लोग लोग इसके बारे में बहुत अच्छे से जानते होंगे। क्यों ये किला कभी मराठा साम्राज्य की शान हुआ करता था। पर आज ये भूतिया किले के रूप में जाना जाता है। जिसके पीछे का कारण इसमें घटित कुछ घटनाएं और रहस्मयी कहानिया है जो आज भी लोगो के दिल में ख़ौफ़ पाले है।

हाँ हाँ बिल्कुल सही सोच रहे हो ये वहीं किला जिसका जिक्र बाजीराव मस्तानी फ़िल्म में हुआ था।

कहते है की ये किला पेशवा बाजीराव प्रथम द्वारा निर्मित उनका सपनो का महल था। जो पेशवा बाजीराव की उपलब्धियाँ , उनका पतन कैसे हुआ बाजीराव द्वारा काशीबाई को दिए धोखे और बाजीराव -मस्तानी की प्रेम कहानी को के साथ और भी बहुत से किसे समेटे हुए है।


शनिवार वाड़ा का निर्माण पेशवा बाजीराव प्रथम द्वारा करवाया गया था। जो मराठा शासक छत्रपति साहू महाराज के सेनापति थे। इसकी नीवं 10 जनवरी 1730 शनिवार को रखी गयी थी।
जिसकी वजह से इसका नाम ''शनिवार वाड़ा " पड़ गया।
85 वर्षों तक ये किला पेशवा के अधिकार में रहा और उसके बाद आज़ादी तक अंग्रेजों के अधीन रहा था।

उस वक्त इस किले को बनाने में अच्छी खासी धन राशि का खर्च हुआ था। जो उस समय के हिसाब से भुत ज्यादा थी । इस किले को राजस्थान के ठेकेदारों ने 2 साल की कड़ी मेहनत से तैयार करवाया था।
जिससे खुश हो पेशवा बाजीराव ने उन्हें '' नाईक''
उपाधि दी थी।

किले की मुख्य इमारत के निर्माण के बाद इसमें समय समय पर कुछ नई इमारतों का भी निर्माण करवाया गया।
किले की मुख्य इमारत की ऊंचाई 7 मंजिल थी।
जिसकी सबसे ऊपरी मंजिल पर पेशवा बाजीराव का
निवास स्थान था। जिसे मेघादम्बरी कहा जाता था।
कहते है की यहां से देखने पर 17 किलोमीटर दूर आनंदी में स्थित संत ज्ञानेश्वर मंदिर का शिखर भी दिखाई देता था। पर 1828 में किले मई लगी आग के कारण ये इमारत पूरी तरह से क्षतिग्रस्त हो गयी थी। जिसका अब सिर्फ ढांच ही बचा है।


पेशवा बाजीराव के दो पुत्र थे। बाला जी बाजीराव जिनको नाना साहब के नाम से भी जाना जाता था और रघुनाथ राव बाजीराव की मृत्यु के उपरांत नाना साहब पेशवा बने थे।

जिनके तीन पुत्र थे।
विशव राव , माधव राव ,और नारायण राव

पानीपत के तीसरे युद्ध में उनके सबसे बड़े बेटे विशव राव की मृत्यु हो गयी। जिसके बाद उनके छोटे भाई माधव राव गद्दी पर बैठे पर 27 साल छोटी की उम्र में उनकी भी
रहस्मय तरीके से मृत्यु हो गयी थी। उनके मृत्यु के उपरांत नाना साहब के आखरी पुत्र नारायण राव गद्दी पर बैठे।
जिस समय नारायण राव गद्दी पर बैठे थे उनकी उम्र मात्र 17 वर्ष की थी। जो मराठा साम्राज्य के नौंवे पेशवा बने थे

पर 17 वर्ष के नारायण राव का गद्दी पर बैठना उनके चाचा रघुनाथ राव और उनकी चाची आनंदी बाई को
हजम नही हो रहा था। उनकी आँखों में खटक रहा था।

रघुनाथ राव स्वयं पेशवा बनने का ख़्वाब देखते थे।
जिसके चलते वह पहले भी एक बार माधव राव को मारने की कोशिश कर चुके थे। जिससे नारायण राव वाकिफ थे।
जिसकी वजह से वह अपने चाचा को पसन्द नही करते थे।
और हमेशा शक के नजरिये से देखते थे।

दोनों के रिश्ते वैसे भी अच्छे नही चल रहे थे।
की अचानक सलाहकारों के भड़काने पर नारायण राव ने अपने चाचा मो किले मे नजर बन्द कर दिया था।
जिससे उनकी काकी काफी नाराज हो गयी थी।

नजरबन्द होने के बाद रघुनाथ राव ने अपने बचाव के लिए
शिकारी काबिलियाइ गार्दी के मुखिया सुमेन्दर गार्दी को अपने बचाव के लिए एक पत्र भेजा। जिसमे लिखा था नारायण राव ला धारा अर्थात नारायण राव को कैद कर लो।
पर ये पत्र पहले रघुनाथ राव की पत्नी के पास चला गया । और मौका पाकर उन्होंने पत्र में बदलाव कर
"नायरण राव ला धारा " की जगह " नारायण राव ला मारा" कर दिया अर्थात नारायण राव को मारो।

इस पत्र के मिलते ही एक रात सुमेन्द्र सिंह गार्दी ने अपने लोगों के साथ शनिवार वाड़ा पर हमला कर दिया।
और सारी बाधाओं को पार नारायण राव के कक्ष में पहुंचे गये।

नारायण राव उन्हें देख बचाव के लिए चीखते चिल्लाते हुए अपने चाचा के कक्ष की "काका माला वाचवा " अर्थात काका मुझे बचाओ कहते हुए भागा पर पर अपने काका के कक्ष तक पहुंचने से पहले ही गर्दियों ने उसे पकड़
कर मौत के घाट उतार दिया ।

पर कुछ इतिहासकारों का इस घटना के सम्बन्ध में मतभेद है। उनका मानना है की नारायण राव की मृत्यु उनके काका की आँखों के सामने ही हुई थी।

और वह खुद को बचाने के लिए उनसे याचना करता रहा , परंतु रघुनाथ राव ने कुछ नही किया वह सिर्फ उसको मौत के घाट उतरते हुए देखते गए। गर्दियों ने नारायण राव की मृत्यु कर उनके छोटे छोटे टुकड़े कर नदी में बहा दिया।

और फिर अचानक एक दिन 23 फरवरी 1828 को किला भयंकर आग की चपेट में आ गया। जिसपर 7 दिन तक काबू नही पाया जा सका। जिसमे किले का अधिकांश हिस्सा बुरी तरह से जल गया और जल कर सिर्फ ढांचा ही रह गया।

वहां के स्थानीय लोगो का कहना है की आज भी शनिवार वाड़ा में अमावस्या की रात दर्द भरी आवाज सुनाई देती है। आज भी नारायण राव की उस कीआत्मा उस किले में भटकती है और नारायण राव के " काका माला वाचवा " चिल्लाने की आवाज आती है । जिससे इसको भूतिया माना जाता है।

वहीं दूसरी तरफ ये भी कहा जाता है की काशीबाई की बचपन की एक सहेली हुआ करती थी।

बाजीराव ने उसके पति को देशद्रोही होने के संदेह में मृत्यु दंड दिया था । जिसको उनकी सहेली सही नही मानती थी। जिसे नाराज हो उसने शनिवार वाड़ा को श्राप दिया था।

कहा जाता है की उस श्राप के कारण ही उसके बाद से ही शनिवार वाड़ा अपने ही लोगो के विश्वासघात और बेईमानी के बीच संघर्ष करता रहा है।

किले का ज्यादातर हिस्सा नष्ट हो जाने के बाद आज भी देखने में ये काफी भव्य लगता है जिसको देखने आज भी दूर दूर से लोग आते है।


धन्यवाद दोस्तों शनिवार वाड़ा का रहस्य, उसे जुडी रहस्मय और दिलचस्प कहानी पढ़ने के लिए।
आप को कैसी लगी ये जानकारी
कमेंट में जरूर बताएं।





From :- Karan mahich